गोस्वामी तुलसीदास की विनयपत्रिका में रामचन्द्र के प्रति लम्बे विनय से पहले तुलसीदास ने भगवान शिव से भी विनती की है और उनसे विनती करते हुए उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए स्तुति लिखी है. यह स्तुति चार चार पद्यों में लिखी गई है हलांकि किसी किसी में पद्य अधिक भी हो गये हैं. तुलसीदास के लेखन का यह समय उनमें कविता के जन्म का समय है. छंदों कि तलाश करते करते वो यहाँ पहुंचे हैं. इसके बाद उन्होंने रामचरितमानस लिखा. शिव स्तुति बहुत सुंदर है, रामायण सम्प्रदाय वाले इसका पाठ भी करते हैं.
शिव स्तुति-
को जाँचिये संभु तजि आन ।
दीनदयालु भगत-आरति-हर,
सब प्रकार समरथ भगवान ॥ १ ॥
कालकूट-जुर जरत सुरासुर,
निज पन लागि किये बिष पान ।
दारुन दनुज, जगत-दुखदायक,
मारेउ त्रिपुर एक ही बान ॥ २ ॥
जो गति अगम महामुनि दुर्लभ,
कहत संत, श्रुति, सकल पुरान ।
सो गति मरन-काल अपने पुर,
देत सदासिव सबहिं समान ॥ ३ ॥
सेवत सुलभ, उदार कलपतरु,
पारबती-पति परम सुजान ।
देहु काम-रिपु राम-चरन-रति,
तुलसिदास कहँकृपानिधान ॥ ४ ॥
भगवान् शिवजीको छोड़कर और किससे याचना की जाय ? आप दीनोंपर दया करनेवाले, भक्तोंके कष्ट हरनेवाले और सब प्रकारसे समर्थ ईश्वर हैं ॥१॥
समुद्र – मन्थनके समय जब कालकूट विषकी ज्वालासे सब देवता और राक्षस जल उठे, तब आप अपने दीनोंपर दया करनेके प्रणकी रक्षाके लिये तुरंत उस विषको पी गये । जब दारुण दानव त्रिपुरासुर जगतको बहुत दुःख देने लगा, तब आपने उसको एक ही बाणसे मार डाला ॥२॥
जिस परम गतिको संत – महात्मा, वेद और सब पुराण महान् मुनियोंके लिये भी दुर्लभ बताते हैं, हे सदाशिव ! वही परम गति काशीमें मरनेपर आप सभीको समानभावसे देते हैं ॥३॥
हे पार्वतीपति ! हे परम सुजान !! सेवा करनेपर आप सहजमें ही प्राप्त हो जाते हैं, आप कल्पवृक्षके समान मुँहमाँगा फल देनेवाले उदार हैं, आप कामदेवके शत्रु हैं । अतएव, हे कृपानिधान ! तुलसीदासको श्रीरामके चरणोंकी प्रीति दीजिये ॥४॥
दानी कहुँ संकर – सम नाहीं ।
दीन – दयालु दिबोई भावै, जाचक सदा सोहाहीं ॥१॥
मारिकै मार थप्यौ जगमें, जाकी प्रथम रेख भट माहीं ।
ता ठाकुरकौ रीझि निवाजिबौ, कह्यौ क्यों परत मो पाहीं ॥२॥
जोग कोटि करि जो गति हरिसों, मुनि माँगत सकुचाहीं ।
बेद – बिदित तेहि पद पुरारि – पुर, कीट पतंग समाहीं ॥३॥
ईस उदार उमापति परिहरि, अनत जे जाचन जाहीं ।
तुलसिदास ते मूढ़ माँगने, कबहुँ न पेट अघाहीं ॥४॥
शंकरके समान दानी कहीं नहीं है । वे दीनदयालु हैं, देना ही उनके मन भाता है, माँगनेवाले उन्हें सदा सुहाते हैं ॥१॥
वीरोंमें अग्रणी कामदेवको भस्म करके फिर बिना ही शरीर जगतमें उसे रहने दिया, ऐसे प्रभुका प्रसन्न होकर कृपा करना मुझसे क्योंकर कहा जा सकता है ? ॥२॥
करोड़ों प्रकारसे योगकी साधना करके मुनिगण जिस परम गतिको भगवान् हरिसे माँगते हुए सकुचाते हैं वही परम गति त्रिपुरारि शिवजीकी पुरी काशीमें कीट – पतंग भी पा जाते हैं, यह वेदोंसे प्रकट है ॥३॥
ऐसे परम उदार भगवान् पार्वतीपतिको छोड़कर जो लोग दूसरी जगह माँगने जाते हैं, उन मूर्ख माँगनेवालोंका पेट भलीभाँति कभी नहीं भरता ॥४॥
बावरो रावरो नाह भवानी ।
दानि बड़ो दिन देत दये बिनु, बेद – बड़ाई भानी ॥१॥
निज घरकी बरबात बिलोकहु, हौ तुम परम सयानी ।
सिवकी दई संपदा देखत, श्री – सारदा सिहानी ॥२॥
जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुखकी नहीं निसानी ।
तिन रंकनकौ नाक सँवारत, हौं आयो नकबानी ॥३॥
दुख – दीनता दुखी इनके दुख, जाचकता अकुलानी ।
यह अधिकार सौंपिये औरहिं, भीख भली मैं जानी ॥४॥
प्रेम – प्रसंसा – बिनय – ब्यंगजुत, सुनि बिधिकी बर बानी ।
तुलसी मुदित महेस मनहिं मन, जगत – मातु मुसुकानी ॥५॥
( ब्रह्माजी लोगोंका भाग्य बदलते – बदलते हैरान होकर पार्वतीजीके पास जाकर कहने लगे ) हे भवानी ! आपके नाथ ( शिवजी ) पागल हैं । सदा देते ही रहते हैं । जिन लोगोंने कभी किसीको दान देकर बदलेमें पानेका कुछ भी अधिकार नहीं प्राप्त किया, ऐसे लोगोंको भी वे दे डालते हैं, जिससे वेदकी मर्यादा टूटती है ॥१॥
आप बड़ी सयानी है, अपने घरकी भलाई तो देखिये ( यों देते – देते घर खाली होने लगा है, अनधिकारियोंको ) शिवजीकी दी हुई अपार सम्पत्ति देख – देखकर लक्ष्मी और सरस्वती भी ( व्यंगसे ) आपकी बड़ाई कर रही हैं ॥२॥
जिन लोगोंके मस्तकपर मैंने सुखका नाम – निशान भी नहीं लिखा था, आपके पति शिवजीके पागलपनके कारण उन कंगालोंके लिये स्वर्ग सजाते – सजाते मेरे नाकों दम आ गया है ॥३॥
कहीं भी रहनेको जगह न पाकर दीनता और दुःखियोंके दुःख भी दुःखी हो रहे हैं और याचकता तो व्याकुल हो उठी है । लोगोंकी भाग्यलिपि बनानेका यह अधिकार कृपाकर आप किसी दूसरेको सौंपिये, मैं तो इस अधिकारकी अपेक्षा भीख माँगकर खाना अच्छा समझता हूँ ॥४॥
इस प्रकार ब्रह्माजीकी प्रेम, प्रशंसा, विनय और व्यंगसे भरी हुई सुन्दर वाणी सुनकर महादेवजी मन – ही – मन मुदित हुए और जगज्जननी पार्वती मुसकराने लगीं ॥५॥

