Spread the love

भागवत पुराण 8वीं शताब्दी में लिखा गया वैष्णव वेदांत का ग्रन्थ . यह वैष्णव सम्प्रदाय का ग्रन्थ है लेकिन इसके उपदेश अद्वैत वेदांत के उपदेश हैं. इस ग्रन्थ में कई छोटे छोटे उपदेश हैं जो ग्रन्थात्मक हैं जिनमे अवधूतोपाख्यान, हंसोपदेश , परीक्षित को दिया गया अंतिम शुकोपदेश इत्यादि स्वतंत्र ग्रन्थ के रूप में प्रख्यापित हैं. भागवत में कृष्ण द्वारा उद्धव को दिया गया उपदेश मूलभूत रूप से अद्वैत का ही उपदेश है जिसमे उन्होंने सांख्य योग पर जोर दिया है . श्री कृष्ण कहते हैं –

पुरुषत्वे च मां धीरा: साङ्ख्ययोगविशारदा: ।
आविस्तरां प्रपश्यन्ति सर्वशक्त्युपबृंहितम् ॥ २१ ॥

जो व्यक्ति सांख्य योग में विशारद है अर्थात वेदांत में उपदेश किये गये ज्ञान योग पर चलता है, वह ईश्वर के स्वरूप को उसकी समस्त शक्तियों के साथ साक्षात् कर सकता है. भगवान ने दो सनातन निष्ठाओं का ही भगवद्गीता में वर्णन किया है. एक तरफ सांख्य योग है अर्थात ज्ञान योग जिसका उपदेश आदि शंकराचार्य ने किया, तो दूसरी तरफ कर्म योग है जिसमे पतंजली योग, भक्ति योग, कर्म योग ये सब समाहित हो जाते हैं.

अत्र मां मृगयन्त्यद्धा युक्ता हेतुभिरीश्वरम् ।
गृह्यमाणैर्गुणैर्लिङ्गैरग्राह्यमनुमानत: ॥ २३ ॥

यह दूसरा श्लोक में श्री कृष्ण अद्वैत वेदांत के ज्ञान योग का प्रतिपादन किया. अद्वैत वेदांत में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि ये छह प्रमाण माने गये हैं जिनसे सत्य का ज्ञान होता है. इनमे अनुमान बहुत महत्वपूर्ण प्रमाण है. भगवान ने कहा कि वे अनुमान द्वारा ग्राह्य हैं. अनुमान क्या है ? जहाँ जहाँ धुंआ होता है वहां वहां अग्नि होती है. ईश्वर है इसको इस प्रकार तर्क से अनुमान द्वारा निश्चित किया जा सकता है और उनके स्वरूप और उनकी शक्तियों को जाना जा सकता है.

नीचे दिए गये चार श्लोक एकादश स्कन्ध के तेरहवें अध्याय के श्लोक हैं-

श्री कृष्ण उद्धव से कहते हैं –
सत्त्वं रजस्तम इति गुणा बुद्धेर्न चात्मन: ।
सत्त्वेनान्यतमौ हन्यात् सत्त्वं सत्त्वेन चैव हि ॥ १ ॥

सत्त्वाद् धर्मो भवेद् वृद्धात् पुंसो मद्भ‍‍‍क्तिलक्षण: ।
सात्त्विकोपासया सत्त्वं ततो धर्म: प्रवर्तते ॥ २ ॥

धर्मो रजस्तमो हन्यात् सत्त्ववृद्धिरनुत्तम: ।
आशु नश्यति तन्मूलो ह्यधर्म उभये हते ॥ ३ ॥

आगमोऽप: प्रजा देश: काल: कर्म च जन्म च ।
ध्यानं मन्त्रोऽथ संस्कारो दशैते गुणहेतव: ॥ ४ ॥

इन श्लोकों में सत्व गुण द्वारा ज्ञान में प्रवृत्ति होती है उसे दोहराया गया है. भगवद्गीता में इसका उपदेश पहले कर चुके थे “ऊर्ध्वं गच्छति सात्विका:”.