उपहार वह है जो आपका ही था. वह जो आपकी ही राह देख रहा था -आपकी ही उपस्थिति की बाट जोह रहा था. जब वह आपको आश्चर्यचकित करेगा और आप सोच में पड जायेंगे, अरे मैंने तो यह सोचा न था और बहुत गहरे आप उसकी आस लगाये बैठे थे. उपहार एक रहस्यमय सन्दर्भ समेटे हुये उपस्थित होता है. वे उपहार भी एक रहस्य के परदे में लिपटे हम तक पहूँचते हैं जिन्हें हम सामान्य जीवन में ग्रहण करते हैं. लेकिन जिस उपहार के सन्दर्भ की हम बात करने जा रहे हैं वह वास्तव में चित्त के उन्माद की उस दशा में उपस्थित होता है, जब आप सब कुछ नौछावर कर देने को उद्धत होते हैं. जिसको पाने के बाद कुछ पाना शेष नहीं रहता, व्यक्ति सिद्ध हो जाता है, अमृतत्व को उपलब्ध होता है “यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति”, उसके लिए सब कुछ नौछावर करना ही पड़ता है. यदि हम रामकृष्ण के आध्यात्मिक उन्माद की अवस्था को देखें तो इसे बेहतर समझ सकते हैं. रामकृष्ण का उन्माद किस स्तर का आध्यात्मिक उन्माद था, कितना सत्व था ? इस पर फिर कभी लिखा जायेगा. यहाँ जिस सन्दर्भ को लिया गया है उसके अनुसार समझें.
रामकृष्ण के जीवन का वह क्षण, निर्णय की वह दशा, जब अकस्मात् कटार ले वे स्वयं की बलि देने को उद्धत हुये. वह परिघटना जब उन्होंने समय के चक्र को पूरा किया बल्कि उसका अतिक्रमण किया, तब उसी छण परापरामर्शमयी महादेवी का आगमन हुआ. जीवन के बहुमूल्य उपहार ऐसे ही आपको मिलते हैं, जब निर्णय के एक उद्दात्त क्षण में आप सहसा समय का अतिक्रमण कर जाते हैं. चेतना के निम्न स्तर का अतिक्रमण किये बिना परम जीवन नहीं प्राप्त होता. चेतना के उच्चतम सोपानों पर ही व्यक्ति पापराशि का द्वित करने की प्रक्रिया अपनाता है. वास्तव में मुद्रा इसे ही कहा गया है, न कि हाथ इत्यादि की भंगिमाओं को. महामाया की शक्तियां ही मुद्रायें है, जिनका उद्बोधन व्यक्ति की चेतना को द्रवित करता है और उस लायक बनाता जिससे पराभट्टारिका का पदार्पण हो सके. श्रीकाली महाविद्या हैं इसलिये उनकी उपासना बहुत कठिन है. उनके पुत्र ही परमहंस होते हैं जो शताब्दियों में एकाधबार धरती पर अवतरित होते हैं. उनकी संख्या विरल है. सारी विद्यायें जिनकी रश्मियां हों, उन्हें जानने के बाद क्या कुछ शेष रह जाता है “भस्मसात्कुरुते तथा”? सारी विद्यायें उन्हीं का विकास है-सप्तशती यही तो कहती है “विद्यासमस्तास्तव देवि भेदाः”. यह भी कहना सही नहीं है कि उन्हें जाना जा सकता है. परमानन्द का स्वात्म में साक्षात्कार करने वाली अम्बा खुद स्वयं को ही जानती हैं, उसको जानने वाला कोई नही “तस्यानान्योस्ति वेदिता”, भगवद्पाद आदि शंकराचार्य ने अन्त में यही तो लिखा था.
महामाया हमें धारण करती है, उसी में हम अवस्थित हैं, वह हममें है लेकिन हमारा अतिक्रमण करके अवस्थित है. यही परम सच है, जिसे श्री कृष्ण ने भी कहा है “परातस्मात्त्” जो सर्वदा विलक्षण मेरा परम भाव है, वही परमपद, परम धाम है. यह ट्रांस-ट्रांन्सेन्टडेन्टल शक्ति भाव है, जिसमें बोध के आवेश से योगी विश्वात्मकता के व्यामोह का आत्यान्तिक निरोध कर डालता है. रामकृष्ण ने परमहंसो के परम आदर्श को पाया, उनका शुरू से एकमात्र यही उद्देश्य था “श्यामा पदे आस नदीतीरे वास”. वे जन्म से ही परमहंस थे. उनके कहे हुए सरल शब्दो में जो मधुरता और शुद्धता है, वह भी आश्चर्यचकित करता हैं. सरलता की पराकाष्ठा उनमें मिलती है और जब वे मां के गीत गाते तो वे चार साल का बच्चा होते-
ऐ श्यामा! शवारूढा माते मेरी सुनो, मैं तुम्हारे पास अपने हृदय की आन्तरिक कामना व्यक्त करता हूँ. जब मेरी अन्तिम सांस इस देह को छोड चलेगी तब, ऐ शिवे, तुम मेरे हृदय मे प्रकाशित होना. उस समय, मां, मैं मन-मन-वन-वन घूमकर सुन्दर जवा कुसुम चुनकर ले आऊंगा और उसमे भक्ति चन्दन मिलाकर तुम्हारे श्रीचरणो में पुष्पांजलि दूंगा.
परमहंस शुकदेव और उनमें कोई विशेष फर्क नहीं था. ब्रह्मभाव की अपने हृदय में प्रतिष्ठा की थी रामकृष्ण ने, इसके बगैर क्या कुछ भी उद्दात सम्भव है? नहीं! याद नही आ रहा है लेकिन किसी ने उनके बारे लिखा था कि उनका व्यक्तित्व ॠचारूप हो गया था. कुछ महान ॠषियों के बारे में कहा गया है कि वे ॠचा में ही समाहित हो गये थे. सही भी है न, प्राण अपने स्रोत महाप्राण में ही तो समाहित होगा. संसार की सभी अग्नियाँ सूर्य में समाहित हो जाती हैं. ॠचायें श्रीहरि का श्वांस कही जाती हैं- “ ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन् देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम् ” इसे वही समझ सकता है जो इस वेदवचन के निहित गूढार्थ को समझ सकता है.
भारतीय धर्मदर्शन का आदर्श सदैव उच्चतर मूल्यों की प्राप्ति रहा है, हम विगत शताब्दियों में अपनी चेतना से स्खलित हुये हैं. रामकृष्ण के जीवन का वह क्षण, वह परिघटना जिसमें उन्होने स्वयं को समर्पित किया, उस क्षण में “क्या था”? उस महाकाली का आविर्भाव जिसकी वर्षो से प्रतिक्षा की थी या समय की शून्यता,खेचरता और अहम् का पराप्रत्याहार ( यह शब्द थोड़ा रहस्य समेटे हुये है और पतंजलि के योग से परे अवस्थित है) एक मौन जिसके टूटने के बाद उन्होने कहा “कुछ न था चेतना का आबाध सागर था और मैं एक मछली की तरह पराभूत, शून्यचित्त फिर भी एक बोध-शेष!” श्रुति का वह सच साक्षात् “तस्य लोपः कदाचित्स्यादन्यस्यानुपलंभनात् ”. दोनों में क्या कोई अन्तर था? शायद था और नहीं भी, क्योंकि वह सब कुछ विस्मयकारी था. रामकृष्ण ने ऐसे पवित्र शक्तिमयी सौन्दर्य की कल्पना ही न की थी, कि वह उनके ही हृदयाकाश में अवस्थित है और वह अनूभूत न था. वह विमर्शमय गतिमयता जिसनें अकस्मात् सबकुछ बदल दिया, जिसके प्रसार ने चिन्मय अहंभाव को एक पल के लिये मानो खत्म ही कर दिया हो. उस परम सौन्दर्य (सुन्दरम्) का साक्षात् ही तो था जिसके बारे में लिखा है “सर्वेभ्यस्त्वतिसुन्दरी” तुम्हीं सबसे सुन्दर हो, हे सौन्दर्यमयी देवि!. संवित्ति का सूरज जब विकसित होता है तो उसी की समुज्वल किरणों पर उनका आह्वान और तर्पण होता है, वे उल्लसित सहस्रों सूर्यों का प्रकाश समेटे इस महती चिदभूमिका पर ही उतरती हैं. यही शक्तिलाभ है तथा स्वशक्ति का परिज्ञान है, जो व्यक्ति को सत्य में प्रतिष्ठित करता है. चिदाकाश में शक्ति का यह उल्लास स्थायीभाव तब तक नहीं बनता जब तक उनकी ही कृपा न हो जाये.
रामकृष्ण का पुनः चेतनावस्था में आने के बाद का रूदन, उन्हें पुनः देख लेने की, हमेशा के लिये साक्षात् कर लेने की व्याकुलता यह बतलाता है कि वह परमभट्टारिका सचमुच सबसे सुन्दर हैं तथा जिसका वरण वे करती हैं वही उन्हें प्राप्त कर सकता है. उपनिषद की यह ॠचा भी तो यही कहती है कि ”येमेवैष वृणुते तनू स्वाम् “। जिन्हें अकस्मात् उस क्षण में रामकृष्ण ने साक्षात् कर लिया था, एक अनदेखा सच थीं, एक क्वाँरा सौन्दर्य जो सबकें लिये एक सा ही नही होता फिर भी सभी यही कहते हैं “वही” निर्बाध आनन्दमयता, वह शून्य भूमिका “मेरा हृदय” है. इसे वेदान्ती लोग “अहम्” कहते हैं. यही “अहं ब्रह्मास्मि” का अहम् है. वेदों में इस “अहम्” को ही वाक् की परा भूमिका कहा गया है !
प्रदाता के उपहार देने और ग्रहणकर्ता के लेने की बीच कोई सामन्जस्य नहीं होता-समन्वय एक बेईमानी है. समन्वय वास्तव में एक अज्ञानता से उपजा विचार है, जिसने मानवता को पतन के गर्त मे धकेल दिया है. कृष्ण ने कितना स्पष्ट उपदेश किया है अर्जुन को, कि हे अर्जुन! लोक में दो ही निष्ठायें हैं“ लोकेऽस्मिन द्विविधा निष्ठा …ज्ञान योगेन साख्यानाम कर्म योगेन योगिनाम”. संसार की सारी निष्ठायें इन दो अनादि निष्ठाओं के अन्तर्गत ही हैं और फिर ये दो भी नहीं हैं. कृष्ण यह स्पष्ट कर गये हैं, अन्त में सिर्फ एक ही बच जाता है- हे पार्थ! सारे कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं। यह सत्य सामंजस्यवादियों को समझ में नहीं आ सकता है. उस दैवी “क्षण” का घटित होना एक रहस्यमय परिघटना है जिसमें प्रदाता आपको जीवन का उपहार देता है. यह जीवन जिसको शक्ति के उद्रेक ने ग्रसित कर लिया है, अन्य दृष्टि से शिव का ही परम उल्लास है. जो याचक है, उसे तब तक नही मिलता जब तक वह याचक बना रहता है. अमूर्त से उपहार लेने के अपने खतरे है, अमूर्त को साक्षात करना ही बहुत बड़ा खतरा है. यह समय को अतिक्रान्त करना है, असत्ता मात्र में अवस्थिति है-यह शुद्ध अमूर्तन है. यह सारी भाषाओं की अरणि है जिसका साक्षात्कार होने के बाद व्यक्ति नामरूप से परे चला जाता है. उसे भाषा के बावत कुछ भी जानना शेष नही रहता. महर्षि पाणिनि का सूत्र “अइउण्” सिर्फ व्याकरण का सूत्र नहीं है. उन्हें माहेश्वर का प्रसाद प्राप्त था इसलिये उन्होनें इसे अस्फुट प्रणव ही कहा है, जिसमें सृष्टि का यह महाविमर्श हो रहा है. हमारे महान ॠषियों द्वारा लिखित सूत्र चित्चमत्कार हैं, पराचेतना में अवस्थित होकर सूत्रों का प्रणयन उन्होंने मानव कल्याण के लिये किया था. रामकृष्ण परमहंस शिक्षित नहीं थे लेकिन उन्हें जब शास्त्रों को या सूत्रों को पढ कर सुनाया जाता था तो वे उनकी व्याख्या इस तरह करते थे मानो उसके रचयिता वही हों. इससे वह सारस्वत श्लोक चरितार्थ होता है “पंगुं लंघयते गिरिं”. जो सारी विद्याओं की जननी है उसका उपासक किस विद्या को हस्तगत नहीं कर सकता? महामाया की पराभूमिका को जानने वाले उनके चरणों को जानते हैं –वही कैसे एक पदी है, दो पदी है, तीन पदी और सप्तपदी है. जगदम्बा के इन चरणों के ध्यान में निमग्न एक योगी जानता है कि उन्हीं चरणों में लोकमंगल है, इसलिये कन्या पूजन के उपरान्त कितनी सुन्दर प्रार्थना करता है–
“…चरणं नो लोके सुधीतान् दधात्विति मन्त्रोऽपि लोकस्य ब्रह्मलोकस्य द्वारं”
“हे देवि! मंत्रस्वरूप आपके चरण कमल जो दिप्तिमान,कान्तिमान तथा प्रतापी है और ब्रह्मलोक में अवस्थित हैं, हमें शान्ति प्रदान करें”
-राजेश शुक्ला ‘गर्ग’
नोट- मैंने यह लेख 2012 में लिखा था. तब से अब तक आध्यात्मिक उन्माद और पागलपन के बारे में मेरी अवधारणा में काफी बड़ा परिवर्तन आया है.

