मध्ययुगीन ज्योतिष ग्रन्थों में मृत्यु के उपरांत जीव के लोकों की प्राप्ति का वर्णन मिलता है. मनुष्य की चार गति है- देवलोक, पितृलोक, तिर्यक योनि और नरक लोक की प्राप्ति. वेदों में कहा गया है “सूर्य द्वारेण ते विरजा प्रयान्ति ” वे ब्रह्मवेत्ता विरज लोग सूर्य द्वार से ब्रह्म लोक और देव लोक को जाते हैं. भगवदगीता में दो गतियों का वर्णन किया गया हैं, वहां भी ब्रह्म लोक या देवलोक के लिए उत्तरायण और सूर्य को ही द्वार माना गया है क्योंकि सूर्य ही दिन, उत्तरायण के छः महीनों के अधिपति हैं .
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।8.24।।
जिस मार्गमें प्रकाशस्वरूप अग्निका अधिपति देवता, दिनका अधिपति देवता, शुक्लपक्षका अधिपति देवता, और छः महीनोंवाले उत्तरायणका अधिपति देवता है, शरीर छोड़कर उस मार्गसे गये हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष (पहले ब्रह्मलोकको प्राप्त होकर पीछे ब्रह्माजीके साथ) ब्रह्मको प्राप्त हो जाते हैं।
पितृलोक के लिए चन्द्रमा ही द्वार है इसलिए पितृलोग कृष्ण पक्ष में अमावस्या में पूजित होते हैं. पितृलोक जाने वाले चन्द्रमा द्वारा शासित अयन में ही इस लोक को प्राप्त करते हैं. गीता में यह श्लोक प्राप्त है –
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।।8.25।
जिस मार्गमें धूमका अधिपति देवता, रात्रिका अधिपति देवता, कृष्णपक्षका अधिपति देवता और छः महीनोंवाले दक्षिणायन का अधिपति देवता है, शरीर छोड़कर उस मार्गसे गया हुआ योगी (सकाम मनुष्य) चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होकर लौट आता है अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त होता है।
नरक लोक की प्राप्ति का वर्णन भी आसुरी सम्पद के वर्णन में भगवद्गीता में किया गया है. चौथे निम्नतर योनियों जिन्हें तिर्यक या तिर्यंक योनि कहते हैं अर्थात पशु, पक्षी, कीड़े इत्यादि का जन्म के बारे में अन्य धर्म शास्त्रों में वर्णन किया गया है.
ग्रहों में राहु केतु को ग्रह नहीं माना जाता इसलिए सात ग्रहों के द्रेष्काण के अनुसार उपरोक्त चार गतियाँ ज्योतिष में बताई गई हैं. द्रेष्काण स्वामी बृहस्पति देवलोक का प्रतिनिधि है. द्रेष्काण के स्वामी यदि चन्द्रमा-शुक्र हों तो वे पितृलोक का प्रतिनिधि हैं, बुध-शनि नरक लोक के प्रतिनिधि हैं, मंगल-सूर्य तिर्यंग योनि में ले जाते हैं. ज्योतिष के सिद्धांत के अनुसार बली सूर्य या चन्द्रमा जिस ग्रह के द्रेष्काण में होते हैं तदनुसार ही जातक की गति होती है.
चन्द्रमा और सूर्य -इनमे से जो कुंडली में बलवान हो, वह जिस अन्य ग्रह के द्रेष्काण में स्थित हो तदनुसार लोक की प्राप्ति होती है. यदि वह ग्रह बृहस्पति है अर्थात यदि वह बृहस्पति के द्रेष्काण में हो तो देवलोक की प्राप्ति होती है. यदि वह चन्द्रमा के द्रेष्काण में हो तो पितृलोक की प्राप्ति होती है. यदि सूर्य-चन्द्रमा, शुक्र के द्रेष्काण में हो तो भी पितृलोक की प्राप्ति होती है. यदि मंगल या सूर्य के द्रेष्काण में हों तो तिर्यंक योनि की प्राप्ति होती है अर्थात गधा, घोडा, खच्चर, बैल, कोई पक्षी, कीड़े पतंगे बनता है. यदि वे बुध-शनि में से किसी के द्रेष्काण में हों तो नरक लोक की प्राप्ति होती है. यदि द्रेष्काण स्वामी लग्न कुंडली में उच्च का हो तो उच्च लोकों की प्राप्ति होती है और यदि नीच राशि में हो अधोगति होती है.
यदि द्वादश लार्ड क्रूर ग्रह की राशि, नवांश षष्ट्यंश में हो तो भी जातक नरक लोक को जाता है. यदि व्यय भाव में राहु-गुलिक हों और षष्टमेश दृष्ट हों या अष्टमेश से युत हों तो भी जातक नरक की प्राप्ति करता है.
ऐसे ही कुछ प्राचीन ग्रन्थों में और भी वर्णन मिलते हैं. यह वर्णन ग्रहों के स्वभाव के अनुसार ही किया गया है. शनि प्राकृतिक रूप से नरक प्रदान करने वाला ग्रह है. मंगल की क्रूरता भी ऐसी ही है.

