
श्री कृष्ण के जीवन में उनका अभिषेक करने का सौभाग्य न तो किसी ऋषि महर्षि को प्राप्त हुआ और न ही गोपियों को ही प्राप्त हुआ. उनकी प्रिय पटरानियों रुक्मिणी और सत्यभामा को भी कहाँ प्राप्त हुआ था ? यह सौभाग्य दो ही देवों को मिला था एक इन्द्र को मिला और दुसरे गौ को मिला था. कथा का प्रसंग ही ऐसा है कि इन्द्र अभिषेक करने के लिए कामधेनु के साथ ही ब्रज पधारते हैं ! श्री कृष्ण नें गोरक्षा के लिए ही इन्द्र निवारण किया था . कृष्ण को यह ज्ञात था की गौएँ ही मानव के सबसे बड़ी देवता हैं, गौएँ ही समस्त मनोवांछित वस्तुओं को देने वाली है अतः गौओं से बढ़कर कोई श्रेष्ट वस्तु नहीं है. गौएँ और ब्राह्मण में एकत्व है इसलिये गिरिराज का यजन के अवसर पर उन्होंने दोनों का एक साथ पूजन का प्रावधान किया. गौ आत्मार्थक है और गौ के उत्थान के साथ ही आत्मकल्याण भी जुडा़ हुआ है. दूसरी तरफ यह भी श्रुतियों से सिद्ध है कि इन्द्र भी गौओं के सोम से ही जीवन धारण करता है और अपने इन्द्रत्व को सुरक्षित रखता है. इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण बात यह है कि इन्द्र निवारण से पूर्व श्री कृष्ण यदुवंशियों को पहले उनका धर्म समझाते हैं. उन्हें यह बतलाते हैं वे किस वर्ग से सम्बंधित रहे हैं और क्यों उन्हें गो-पूजन करना चाहिए. बाबा लोग वर्तमान शहरी वाणिज्य करने वाले वैश्यों की चाटुकारिता में यह बात छुपाते हैं कि श्री कृष्ण नें यादवों को ही वैश्य ही कहा है क्यों सनातन काल से उनका काम गोचारण ही रहा है.
कृषि वाणिज्य गोरक्षा कुसीद तुर्यमुच्च्य्ते .
वैस्यस्तु वार्तया जिवेच्छूद्रस्तु द्विजसेवया.-भागवत १०-२४-२१
वैश्यों की चार प्रकार की वृत्ति है –कृषि, वाणिज्य , गो-रक्षा और व्याज लेना. हम लोग (यदुवंशी) इन चारों में केवल एक गो पालन ही सदा करते आये हैं. कृष्ण स्वयम को वैश्य समुदाय का ही बतलाते हैं, वे पैदा भी वृष्णि वंश की देवकी के गर्भ से ही हुए थे.
यह समझाकर वे गो और ब्राह्मण पूजन करवाते हैं और फिर गोवर्धन की प्रदक्षिणा करवाते हैं. वो अंत में कहते हैं “ अयं गो ब्रह्मणाद्रीणाम मह्यं च द्यियो मखः” गौ, ब्राह्मण और गोवर्धन को जो प्रिय होगा वही मुझे भी प्रिय होगा. उन्होंने गोवर्धन की परिक्रमा लगवाई अर्थात वह क्षेत्र जहाँ गायों का वर्धन होता है. इस तरह भगवत का यह प्रसंग गाय को केन्द्र में रख कर ही होता है. श्रीकृष्ण का हर कुछ गौ और कृषि से सम्बन्धित है. गोवर्धन धारणकर उन्होंने इन्द्र का मद चूर कर दिया था, मद चूर हो जाने के बाद इन्द्र नें उनसे क्षमा याचना मांगी थी और गौलोक से कामधेनु श्री कृष्ण को बधाई देने के लिए ब्रज आई थी. इस प्रसंग में सुरभि की यह कृष्ण वंदना गौरतलब है :
कृष्ण कृष्ण महायोगिन विश्वात्मन विश्वसंभव !
भवता लोकनाथेन सनाथा वयमच्च्युत!!
हे कृष्ण, हे महायोगी –आप योगेश्वर हैं ! आप स्वयम विश्व हैं, आप ही विश्व के परम कारण हैं. हे लोकनाथ, हे अच्च्युत हम आपको अपना रक्षक पाकर अब सनाथ हो गईं हैं .
त्वं न: परमकं दैव त्वं न इन्द्रो जगत्पते ।
भवाय भव गोविप्रदेवानां ये च साधवः।।
आप जगत के स्वामी हैं, परन्तु हमारे तो आराध्यदेव ही हैं. प्रभो! इन्द्र त्रिलोकी के इन्द्र हुआ करें, परन्तु हमारे इन्द्र तो आप ही हैं ! अतः आप ही गौ, ब्राह्मण, देवता और साधुजनों की रक्षा के लिए हमारे इन्द्र बन जाइए.
इन्द्रं नस्त्वाभिषेक्ष्यामो ब्रह्मणा नोदिता वयम्।
अवतीर्णोंSसि विश्वात्मन् भूमेर्भारापनुत्तये ।।
हम गौएँ ब्रह्मा जी की प्रेरणा से आपको अपना इन्द्र मान कर अभिषेक करेंगीं. विश्वात्मन ! आपने पृथ्वी का भार उतारने के लिए ही अवतार धारण किया है.
इस प्रकार स्तुति के बाद कामधेनु नें भगवान् श्री कृष्ण का अपने दूध से अभिषेक किया था. देव माताओं की प्रेरणा से इन्द्र नें भी ऐरावत की सूंढ़ द्वारा लाये आकाश गंगा के जल से देवर्षियों के साथ यदुनाथ का अभिषेक किया था और उन्हें “गोविन्द” नाम से संबोधित किया गया. उनका यह नाम उनके गोमय जीवन को देखते हुए सार्थक ही है. वो गोविन्द थे, वे गो-बिन्द थे. बचपन से लेकर युवावस्था तक वे गायों के बीच ही रहे .
उत्तकं भागवतं नित्यं कृत च हरिचिंतन् |
तुलसीपोषणं चैव धेनूनां सेवनं समम्