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वैदिक काल से अब तक हिन्दू धर्म में पितृ या पितर पूजा की ही प्रधानता रही है. ये मरे हुए पितर ही ऋषि हैं और यही पितर देवता हैं. सप्तऋषि आदि पितर हैं. इन्हीं ऋषियों के लड़का, लडकी अनेक देवी देवता हैं. इन्ही के औरत अनेक देवी और पितरो की कन्या है. इनसे ही सारा पितर लोक का विस्तार है. अवतारवाद मूलभूत रूप से पितरवाद है और ज्यादातर मामले में वंशानुगत है. वैवस्वत मनु के बाद का क्रम देखने के बाद और पुरुरवा के बाद का क्रम देखने पर यह स्पष्ट होता है वैष्णव धर्म मूलभूत रूप से पितरवाद पर ही आधारित है. वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के वंश में वैष्णवों के भगवान राम जन्मे और चन्द्रमा और तारा के दुराचार से बुध का जन्म हुआ और बुध से राजा पुरुरवा का जन्म हुआ. इस वंश में ही ययाति, राजा सहस्रार्जुन और इसी के यदु वंश में राजा कृष्ण हुए. वैष्णवों ने इन्ही दो परिवारों के मृतकों को भगवान बनाया और पितर भगवान मान कर उनकी पूजा करते और करवाते हैं.

वैष्णवों के पौराणिक धर्म रूपी अविद्या और पाप के अंतर्गत राजा पृथु, मांधाता, दिलीप, सगर, भगीरथ, रघु, हरिश्चंद्र, नाभाग, अम्बरीष भी पूजनीय है. सभी राजा और पितृ पूजक बाबाओं को पौराणिक धूर्तों ने पुण्यश्लोक में लिख दिया है जिसे सुबह स्मरण करने से रूपये पैसे आते हैं और सफलता मिलती है. “पुन्यश्लोका वैदेही, पुण्यश्लोको युधिष्ठिर: ” सभी एक दूसरे से सम्बन्धित हैं. कोई किसी का पिता, माता, ससुर, पत्नी, पुत्री, पुत्र, बुआ, साला, मामा, भतीजी, भांजी इत्यादि सभी देवता हैं. सब मनुष्य थे और मरने के बाद पितृ लोक उन्हीं से भर गया. यदि आदि में चलें तो शिव भी पितर है जिनका जन्म हुआ था और प्रजापति दक्ष, जो प्रारम्भिक समय में राजा था उसकी पुत्री से शादी किया. उसकी सती नामक पत्नी ने यज्ञ कूद कर आत्महत्या कर लिया तो उसके 51 टुकड़े देश भर फैला कर उस पर मन्दिर बना कर उस सती के भूत की पूजा करने लगे. पितर पूजा का यह एक दूसरा रूप प्रचलित हुआ. पितर पूजा इस स्तर तक विस्तृत हुआ कि हर गाँव में एक डीह बन गया और वहां ब्रह्म रूपी प्रेत और भूत की पूजा होने लगी. प्रेत पूजा शैवों में भी व्यापक हो गई और इनके सम्प्रदाय ज्यादातर आत्महत्या केन्द्रित बन गये. अघोरी सम्प्रदाय वाले जिन्दा ही दफन होते है.

भूत-प्रेत की पूजा करने वाला भूत ही हो जाता है, इस न्याय से जितने सन्यासी है वे भी आत्महत्या करके जीवित भूत बनने लगे. सन्यासी, या डंडी स्वामी या वैष्णव डंडी बाबा और शैव बाबा जीवंत समाधि भी लेने लगे. सारे तीर्थ इन बाबाओ, सन्यासियों के भूतों से व्याप्त हो गये और उन तीर्थों में पाप का साम्राज्य फ़ैल गया. आत्महत्या को समाधि के तुल्य बताया गया और इस पर सिर्फ सन्यासी को ही अधिकार दिया गया. सिर्फ सन्यासी ही आत्महत्या कर भूत-प्रेत बन सकता है. इसके लिए विधिवत उपनिषद लिखी गई जिसमे आत्महत्या के प्रमुख माध्यम-विधि बताई गई. आत्महत्या के प्रमुख माध्यम में -अग्नि दाह, जल प्रवेश, उपवास पूर्वक देह त्याग, घने जंगल में विलुप्त हो जाना और पुन: वापस न आना, दो गज जमीन के नीचे जिन्दा दफन होना इत्यादि प्रमुख हैं. इसमें अग्नि दाह ब्राह्मण कुमारिल भट्ट ने किया था, जल प्रवेश राजा राम ने किया था, आदि शंकराचार्य जंगल में लुप्त हो गया था. जैन धर्म में संथारा उपवास से मरण को कहते हैं. इसको संलेखना, संन्यासमरण, और समाधिमरण भी कहते हैं. प्रेत पूजकों ने नियम बनाये कि गृहस्थ आत्महत्या नहीं कर सकता क्योकि पितृ लोक में प्रेत ज्यादा हो जायेंगे और पृथ्वी पर भी ज्यादा हो जायेंगे. गृहस्थ को जला देने का नियम बनाये और अपने लिए समाधि का नियम बनाये. सन्यासी को मुसलमानों और ईसाईयों कि तरह जमीन में गाड़ा जाता है.

यह पितर पूजा व्यापक है. बौध सभी मरे गुरुओं की ही पूजा करते हैं. रामकृष्ण मिशन के संस्थापक विवेकनन्द ने मृतक की पूजा का ही आयोजन किया था और मन्दिर में मृतक की ही पूजा होती है. उन्होंने अपनी किताब में लिखा भी है कि रामकृष्ण पितर थे अर्थात पहले मर गये किसी बाबा या ऋषि के अवतार थे. अवतार पितरो का ही होता है यह उनकी बायोग्राफी में लिखा गया है. भगवद्गीता में बाद में इसे हेय बताया गया लेकिन यही मूलभूत रूप से जारी है. तीर्थ भूत-प्रेत के निवास स्थल है. वृदावन धूर्त वैष्णवों का मरण स्थल है और देश भर के वैष्णव यही समाधि ले कर आत्महत्या करते है. वृदावन भूत नगरी है.

यह प्रेत पूजा सभी धर्मो के मूल में स्थित है. ईसाई धर्म जिसस और पोपों के प्रेत पर ही बैठा है. ईसाइयों ने विगत 100 साल में 10 करोड़ लोगो को मौत के घाट उतारा है. ईसाईयों ने जर्मनी को श्मसान में तब्दील कर दिया था. यह प्रेत पूजा के कारण ही सम्भव है. बौधों में भगवान है ही नहीं, वे सिर्फ मृत गुरु और मृत लामा इत्यादि की ही पूजा करते हैं. सबसे बड़े प्रेत पूजको में बौध हैं. इसी तरह मुस्लिम सिर्फ प्रेत की ही मजार में पूजा करते हैं. नेता भी मृतकों की ही पूजा करते हैं. बनिया ज्यादातर मृतक पितर की ही पूजा करता है. यह कारण है कि विश्व मानवता इतनी क्रिमिनल और हिंसा से भरी हुई है. प्रेत पूजा करने वाले कभी जीवन के पक्षधर नहीं हो सकते और आध्यात्मिक नहीं हो सकते. लौह या पाषाण युग के मनुष्य से ज्यादा क्रूरता आधुनिक मनुष्य में है, ज्यादा पशुता इनमें है. यह पशुता और क्रूरता इस प्रेत पूजा के कारण ही है. इस प्रेत पूजा के कारण ही बाबा, पादरी, मौलवी, धूर्त कथावाचक और पुजारी अआध्यात्मिक हैं और घृणा, विद्वेष और हिंसा के समर्थक हैं. यह पितर और भूत पूजा के कारण ही है.