हिन्दू धर्म में उच्छिष्ट की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। उच्छिष्ट ही सबसे पवित्र होता है यह कर्मयोगी भगवान कृष्ण का सबसे बड़ा उपदेश है। श्री कृष्ण ने वेद विहित मार्ग का उपदेश किया और कहा कि कोई भी कर्म यदि लोकार्थ और ईश्वररार्थ नहीं किया जाता है तो वो कर्म बंधन का कारण बनता है, क्योंकि वो कर्म अहम के केंद्र पर किया जाता है, स्वार्थपरता से किया जाता है। ऐसे कर्म में दिव्यता का आधान नहीं होता।
यज्ञार्थ कर्मणो अन्यत्र लोकोअयम् कर्मबन्धनः।
तदर्थम कर्म कौन्तेय मुक्त संगह: समाचर ।।
यह अवधारणा ऋषियों ने last man के लिए बनाई थी । सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी ने यज्ञ सहित प्रजा और कर्म को प्रकट किया था। उन्होंने कहा था कि तुम यज्ञ द्वारा देवताओं को पूजो , इससे संतुष्ट हो देवता तुम्हारी सभी इच्छित वस्तुओं को देने वाले होंगे। इसतरह परस्पर एक दूसरे को संतुष्ट करते हुए तुम वृद्धि को प्राप्त होंगे। लोकार्थ मतलब यज्ञार्थ -लोक ही यज्ञ है। यज्ञ में उस अंतिम व्यक्ति को तुम क्या दे रहे हो इस पर निर्भर करता है तुम्हारे यज्ञ की सफलता। ईश्वरीय न्याय की यह अवधारणा, न्याय की यह बात दुनिया की किसी सँस्कृति में नहीं पाई जाती । मार्क्स या किसी समाजवादी से बहुत पहले भगवान कृष्ण ने उन्हें चोर कहा जो स्वार्थी हैं , खुद पकाते हैं और खाते हैं। हिन्दू संस्कृति व्यक्तिवादी नहीं है इसलिए हिन्दू कोई भी कर्म स्वार्थपरता के केंद्र पर नहीं करता। हिन्दू संस्कृति त्याग पूर्वक भोग का उपदेश देती है।
भगवान शिव ने जब प्रजापति के यज्ञ का विध्वंश किया था तब प्रजापति लोकार्थ और ईश्वरार्थ यज्ञ नहीं कर रहे थे। उस यज्ञ में तो द्वेषवश उन्होंने आदि देव भगवान शिव को बलि प्रदान नहीं की। शिव ने वीरभद्र को भेज कर यज्ञ का विध्वंश करवाया और शिक्षा दी कि कोई भी कर्म और यज्ञ से यदि लोक संतुष्ट नहीं होता तो वो बेईमानी है। भगवान श्री कृष्ण ने स्पष्ट कहा है :
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्म-कारणात्।।
यज्ञ के बाद जो शेष बच गया उस पर ही तुम्हारा अधिकार है। वही यज्ञ का उच्छिष्ट पवित्र प्रसाद है। भगवान ने कहा जो पापी हैं वो सिर्फ अपने लिए पकाते हैं। यह समाजवाद दुनिया के किसी समाजवाद से श्रेष्ठ है क्योंकि इसका आधार लौकिक नियम नहीं है, यह वैदिक ऋत के नियमों का अनुगमन करता है।
किसी हिन्दू की मृत्यु के बाद जो संस्कार औऱ कर्मकांड किये जाते हैं उसमें विकरा को बलि दिए बिना यज्ञ पूर्ण नहीं माना जाता है। जो शेष रह गए उन्हें उच्छिष्ट दिये बिना कोई यज्ञ पूरा नहीं होता। हिन्दू धर्म में मरनी के समय जब भोज किया जाता है तो जब सब भोजन करके जा चुके होते हैं। तब last man आता है, उसे निमंत्रण देकर बुलाने की प्रथा है। वह डोम जाति के होते हैं। उन्हें भोजन परोसा जाता है। वो खाने से मना कर देते हैं। इस यज्ञ की सफलता उनके भोजन करने, उनकी सन्तुष्टि पर निर्भर होता है। तब वो जिद्द करके मांगते है। अपनी भूमि सारी दे दो, घर लिख दो इत्यादि बड़ी बड़ी मांगे रखते, इसे पूरी करने के बाद ही तब खाएंगे। आप तो मानो फंस गये। उनके प्रसन्न हुए बिना तुम्हारा सब यज्ञ कर्म चौपट ही समझो ? प्राचीन समय में वो जो कुछ मांगते थे लोग उन्हें देते थे। यह उन्हें परम्परा से पता रहता है की उनके पुरखे किस तरह दान लेते थे ? आज के समय में दो बोतल अंग्रेजी दारू, 5-10 हजार रुपये में वो संतुष्ट हो जाते हैं। फिर भोजन करते हैं, घर के लिए भोजन ले जाते है और दोनों हाथ जोर से उठाकर बोलते है ” आपका यज्ञ सफल हो ।” तब जाकर आपका यज्ञ सफल माना जाता है। यह परंपरा सब हमारे यहां है। ऐसी श्रेष्ठ आध्यात्मिक संस्कृति दुनिया में कौन सी है ? हिन्दू संस्कृति में व्यक्तिवाद का कोई स्थान नहीं है। हिन्दू संस्कृति समष्टि और व्यष्टि के अन्तर्सम्बन्ध को ध्यान में रख कर विकसित हुई थी। हिन्दू धर्म में हर कर्मकांड वैज्ञानिक है और उसका उद्देश्य लोकहित है। भगवद्गीता का “यज्ञार्थ कर्मणो अन्यत्र लोकोअयम् कर्मबन्धनः !” इस मूल मन्त्र को अभिव्यक्त करता है। सभी यज्ञ कर्म लोकहितार्थ होने चाहिए, यह भगवान का आदेश है। हिन्दू हरएक पूजा पाठ में “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः.।
सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े । यह भाव लेकर वो सभी कर्म करता है।
सनातन हिन्दू धर्म संस्कृति सिखाती है कि सबको देने के बाद जो शेष बचा उसी पर तुम्हारा अधिकार है। यह भगवदगीता के आध्यात्मिक जीवन दर्शन के मूल में स्थित है। यदि यज्ञ की अवधारणा को गहराई से देखें तो उच्छिष्ट की अवधारणा पर्यावरण से भी बहुत गहरे जुड़ा हुआ है | वैदिक पंचमहायज्ञ के अंतर्गत जो भूतयज्ञ हैं, वे धर्मशास्त्र में बलि या बलिहरण या भूतबलि कहा गया हैं। विश्वदेव कर्म करने के समय जो अन्नभाग अलग रख लिया जाता है, वह प्रथम बलि है। यह अन्न भाग देवयज्ञ के उद्देश्य से देव के प्रति एवं जल , वृक्ष , गृहपशु तथा इंद्र आदि देवताओं के प्रति उत्सृष्ट (समर्पित) होता है। गृह्यसूत्रों में इस कर्म का सविस्तार प्रतिपादन है। बलि रूप अन्नभाग अग्नि में छोड़ा नहीं जाता, बल्कि भूमि में फेंक दिया जाता है जिससे की वह पंच भूतों को प्राप्त हो जाय। हिन्दू के घर में अन्न के पञ्च कौर निकाले जाने की परम्परा प्राचीन समय से ही है। पंच कौर या ग्रास में पहला ग्रास गाय को देने का विधान है। एक ग्रास देवताओं को , एक पक्षियों, चींटियों इत्यादि को दिया जाता है ।वृक्षों को जल प्प्राप्त हो इसके लिए जल से सिंचन करते हैं । इस तरह इसे भी यज्ञ बनाया गया है, सृष्टि में सभी भूत तृप्त हों ऐसी कामना से हिन्दू भोजन करता है । यह हिन्दू संस्कृति का दिव्य भाव है जो दुनिया की किसी संस्कृति में नहीं पाया जाता है। कालिदास के शाकुंतलम में शकुन्तला की विदाई के मौके पर ऐसा वर्णन मिलता है जिसमे वृक्ष कहते हैं “ देखो देखो ! वही शाकुंतला पति के घर जा रही है जो हमें जल दिए बगैर कभी स्वयं जल ग्रहण नहीं करती थी। चलो सभी मिलकर उसे न जाने के लिए कहें- ” वृक्ष भी रोने लगते हैं । तब कण्व ऋषि शाकुन्तला से कहते हैं “ पुत्री ! उन दरख्तों से भी विदा लो जिनकी गोद में तुम पली बढ़ी और खेली हो। जाओ पुत्री उनका जल से अभिसिंचन करो, वे तुम्हारी प्रतीक्षा करते हैं। शाकुन्तला लोटे में जल ले जाती है और उन्हें जल देती है। शाकुन्तला को इजाजद वृक्षों से और पशु पक्षियों से ही प्राप्त होती है। कालिदास में यह सौन्दर्य दृष्टि कहाँ से आई ? यह हमारी संस्कृति की जीवन दृष्टि है जिसको उन्होंने काव्य में अभिव्यक्त किया।
इस तरह हमने देखा कि हिन्दू संस्कृति कितनी श्रेष्ठ और आध्यात्मिक है, किस तरह यह समष्टि से जुडी हुई है और ईश्वरीय नियमों का पालन करती है। सबसे आधुनिक और प्रोग्रेसिव हमारी संस्कृति है।

