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सबसे शुभ ग्रह वह होता है जो पापान्वित न हो अर्थात जिसमें पाप का लेशमात्र न हो. ऐसा कोई ग्रह नहीं है जिसमे पापत्व नहीं होता है लेकिन यदि वह ग्रह पंचम और नवम भाव का स्वामी है तो उसमे पापत्व मान्य नहीं है. यदि नवमेश और पंचमेश अनिष्टकारी होते हैं तो वह कर्मों के कारण ही होते हैं, वे पाप उत्पन्न नहीं करते सिर्फ पूर्वार्जित पापों का फल भोग कराते हैं. वैदिक ज्योतिष में तीसरे, छठवें और एकादश भाव के स्वामियों को पाप उत्पन्न करने में उत्तरोत्तर बलवान पाप ग्रह कहा गया है अर्थात तीसरे से छठवां और छठवें से एकादश भाव का स्वामी ज्यादा पापी होता है. ज्यादा लाभ प्राप्त करने की मानसिकता पाप को उत्पन्न करती है. भगवद्गीता में कहा गया है कि जो काम धर्मविरहित है वह पाप कर्म है “धर्माविरुद्धो कामोस्मि भरतर्षभ:”. मनुष्य में कामुकता का अतिरेक भी पाप को उत्पन्न करता है जिस कारण वह बहुस्त्रीगामी या बहु-पुरुषगामी हो जाता है और वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देने लगता है. नवमेश धर्म भाव का अधिपति है इसलिए वह कभी एकादशेश नहीं होता या तृतीयेश नहीं होता, उसी प्रकार पंचमेश ज्ञान और भक्ति का हॉउस है इसलिए वह भी इन दो भावों का स्वामी नहीं होता है. सभी कर्म संकल्प से किये जाते हैं, संसार में कोई कर्म बिना ईच्छा के नहीं किया जाता है लेकिन उदात्त धर्म का कार्य संकल्प विरहित होता है. “सर्व संकल्प परित्यागी” ही योगयुक्त होता है और “सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः” संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओंका सर्वथा त्याग करके” ऐसा भगवद्गीता में कहा गया है. यह कारण है कि पंचमेश और नवमेश यदि दो भावों के स्वामी हैं तो उनकी दूसरी राशि काम त्रिकोण के किसी भाव में नहीं पडती है. धर्म भाव से धर्म की उपलब्धि तभी हो सकती है जब जातक धन इत्यादि की ईच्छा से विनिर्मुक्त हो “अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते”. यदि धर्म गुरु लाभ के प्रयोजन से अपनी धर्म की गतिविधियों को सम्पादित करेगा तो वह पाप कर्म करेगा या विद्या प्रदान करने वाला गुरु यदि लाभ के उद्देश्य से शिक्षा देगा तो वह भी पाप उत्पन्न करेगा और इसलिए उनसे संसार का कोई कल्याण सम्भव नहीं है.

मनु ने ब्राह्मण के लिए सबसे कठिन नियम बनाये हैं और कहा है कि यदि ब्राह्मण गृहस्थ है तो भी उसे संग्रह उतना ही करना चाहिए जिससे जीवन का निर्वहन हो सके. ब्राह्मण धर्म और ऋत से स्वर्ग को विजित करने वाला होता है. प्रतिग्रह को ही सबसे प्रमुख स्थान दिया गया है अर्थात वेदाध्ययन, शिक्षा, धर्म-कर्म इत्यादि करने से जो उसे प्राप्त हो जाय और दान से जो उसे प्राप्त हो जाये उसी से जीवन का निर्वहन करे. संग्रह करने से पाप बढने लगता है. पूंजीवाद ने संग्रह के बाद एक क्रिमिनल रिजीम को जन्म दिया. पूंजीवाद को प्रारम्भ में जब सामन्तवाद से लड़ना था तब उसने स्वतन्त्रता, जनतंत्र और मानवतावाद के राजनीतिक विचार को प्रश्रय दिया लेकिन जब पूंजीपतियों ने अकूत धन सम्पदा का संग्रह कर लिया तो पापत्व ने सुरसा की तरह मुख खोला और वे अपनी सरकार बना कर दमन, लूटपाट, अत्याचार द्वारा आम जनता की सम्पत्ति का अपहरण करने लगे. प्राचीन पौराणिक काल में हिरण्याक्ष ने भी यही किया था और पृथ्वी ( भौतिक संसाधनों को ) को ही पाताल लोक में ले गया. इससे जनता त्राहित्राहि करने लगी थी, तब भगवान विष्णु का सूकर अवतार हुआ था. यह कारण है कि नवमेश या पंचमेश की कोई राशि एकादश लाभ भाव में नहीं पड़ती.

नवमेश और पंचमेश के षष्टेश होने में कोई दोष नहीं माना जाता है. कन्या लग्न में शनि पंचमेश और छठवें भाव का स्वामी होकर भी पाप ग्रह मान्य नहीं है “शनैश्चरोपि शुभदो तथा” लेकिन शनि काल पुरुष का दुःख है और उसे नौ ग्रहों में विशेष स्टेटस प्राप्त है इसलिए उसमे एक नौसर्गिक पापत्व माना जा सकता है. यह सिर्फ कन्या लग्न के लिए कहा जा सकता है. वहीं कर्क लग्न और मकर लग्न के लिए बृहस्पति और बुध में पापत्व मान्य नहीं है क्योंकि दोनों नैसर्गिक शुभ ग्रह हैं. पंचमेश और नवमेश में पापत्व नही होता लेकिन उनमे मारकत्व हो सकता है क्योंकि यह मनुष्य के पुण्य पर निर्भर करता है. यदि जातक का पुण्य शेष नहीं है तो पंचमेश और नवमेश भी अपनी दशा अन्तर्दशा में मारक का फल प्रदान करते हैं.