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हिन्दू धर्म में तिब्बती गाय का स्थान कोई कम नहीं है। यह गाय भी देववर्ग द्वारा पूजित है। चवँरीगाय (चामरीगो) अर्थात याक भी अन्य गायों की तरह ही बोलती है और उसी तरह दूध देती है। चँवरी गाय को पहाड़ी क्षेत्रों में अन्य नामों जैसे  सुरागाय, गिरिप्रिया, ग्याक (तिब्बती), चमरी गाय, चौँरी, तिब्बती गवय, बनचौरी, वालप्रिय, व्यजनी, सुरही  इत्यादि नामों से भी पुकार जाता है। तिब्बती बौद्ध धर्म में इस गाय के बगैर कुछ भी संभव नहीं है। तिब्बतियों के पूजापाठ और यज्ञ कर्मों का भी आधार यह गाय है।

चँवर की कथा कुछ बदरीनाथ भगवान से जुडी हुई है। बदरीनाथ भगवान नर-नारायण रूप में एक बार तपस्या से उठे और घूमते हुए सुदूर तिब्बत की तरफ निकल गए।जब तिब्बतियों नें उन्हें देखा तो वे उनकी तरफ ” भगवान आये,भगवान आये ” कहते हुए दौड़े। गंदे चाण्डालों के वेश में रहने वाले तिब्बती उन्हें छूना चाहते थे। यह जान कर भगवन बद्री नारायण वहॉं से भागे, वे आगे आगे और तिब्बती पीछे पीछे। भगवांन को छिपने के लिए कोई जगह नहीं मिली तो उन्होंने चँवरी गाय से कहा “देवी ! मुझे अपवित्र होने से बचाओ! ये चांडाल छुएंगे तो मेरा तप भंग हो जायेगा।”  चवँरी गाय ने तब भगवांन विष्णु को अपनी पूँछ के निचे छुप जाने के लिए कहा। भगवान चँवरी गाय के पूंछ के निचे छिप गए। तिब्बतियों नें उन्हें खोजा लेकिन वे उन्हें कहीं भी नहीं दिखे। इस तरह भगवान नें खुद को बचाया। भगवांन  विष्णु ने प्रसन्न होकर चँवरी गाय को वरदान दिया ” हे देवी आज से बगैर तुम्हारे चँवर के मेरी पूजा अधूरी मानी जाएगी। मेरे मंदिर में तुम्हारा चँवर भी मेरे जितना ही पवित्र माना जायेगा”। उस दिन से हिन्दू धर्म में भगवांन को चँवर डुलाकर भी प्रसन्न किया जाता है। सफेद चंवर सर्वोत्तम माना जाता है। उत्तरखंड में मान्यता है कि वह गाय याक नहीं, सुरागाय थी।  इस गाय के पूंछ के मुलायम बालों को हिन्दू मुठिया कर सोने या चाँदी का मुठ्ठा चढ़ा देते हैं, जो देवस्थल तथा उत्सवों की शोभा बढ़ाने के लिए हिलाया-डुलाया जाता है, यह कमोवेश विष्णु पूजन का अनिवार्य अंग है।

चवँरीगाय अर्थात याक उच्च हिमालयी क्षेत्रों पर ही पायी जाती है अर्थात आठ-दस हज़ार फीट की ऊँचाई पर ही पायी जाती है। यह तिब्बत के ठंडे तथा वीरान पठार, नेपाल,भूटान और सिक्किम , अरुणांचल प्रदेश और पूर्वोत्तर के अन्य उच्च क्षेत्रों में पाया जाता है। याक  काला, भूरा, सफ़ेद या धब्बेदार तथा भारी भरकम होता है। वयस्क याक ६ फुट तक ऊँचा होता है और उसका वज़न एक टन तक हो सकता है। इसका शरीर घने, लम्बे और खुरदरे बालों से ढका रहता है। जाड़े के मौसम में ये बाल और अधिक घने तथा लम्बे हो जाते हैं, इस कारण वह तिब्बत के विषम जाड़े में, शून्य से चालीस डिग्री से भी कम तापमान में, आराम के साथ बाहर रह जाता है। याक उस घास पर जीवित रहता हैं, और बड़े चाव से खाते हैं, जिसे अन्य पशु देखना तक नहीं चाहते हैं। जब पहाड़ी ढ़ाल पर घनी बर्फ़ जमी होती है, तो वह अपने नुकीले सींगों से दबी घास के ऊपर की बर्फ़ को हटाकर घास खोज लेता है। और जाड़े के मौसम में जब पानी जम जाता है तो वह बर्फ़ खाकर अपनी प्यास बुझाता है। इस प्रकार कठिन परिस्थितियों में भी वह मज़े से जीवन निर्वाह करता है। याक बैल और चंवरी गाय तिब्बत निवासियों का जीवन आधार है।  तिब्बती लोग बगैर चाय के नहीं रह सकते, काली हर्बल चाय तो पीते ही हैं लेकिन भारत की दूध की चाय की तरह  मक्खन की चाय (बटर टी) भी पीते हैं। तिब्बती मक्खन की चाय (बटर टी) को“पो चा” और “चा सूमो” कहते हैं। बटर टी बंनाने की उनकी अपनी पद्धति है और पीने का एक विशेष निश्चित ठंग है। बटर टीको एक रिचुअल की तरह ही पिया जाता है। उनके चाय पर उनकी तरह ही चाय  पीना चाहिए अन्यथा वे बुरा तो मानते ही हैं असभ्य भी समझते हैं। एक तिब्बती औसतन चालीस से पचास कप चाय प्रतिदिन पीता है। तिब्बती मक्खन की चाय तो अब दुनिया भर में प्रसिद्द हो चुकी है। चंवरी गाय के बगैर  मक्खन की चाय (बटर टी) तिब्बतियों को कहाँ नसीब हो सकती थी। बौद्ध मठों का तो यह एक प्रमुख पेय है जिससे बौद्ध भिक्षु अपने दिन की शुरुआत करता है। मंदिर में भी देवता को बटर टी का प्रसाद लगाया जाता है। चँवरी गाय का घी का दीपक ही बौद्ध मंदिरों में देव प्रतिमाओं के सामने जलाया जाता है और इसी से हवन भी किया जाता है ! याक के घी का दीपक जलाना बौद्ध लोगों की पूजा का एक आवश्यक अंग है, बौद्ध मठों में दीपमाला इसी घी के दीप से की जाती है। याक बैल और चंवरी गाय को प्रकृति ने यह जानने की शक्ति दी है कि किसी बर्फ़ की जमी हुई सतह उसके भार को सहन कर सकेगी या नहीं। शंकित यात्री ऐसे स्थल के विषय में निश्चिंत होने के लिए याक को ही अपने आगे रखते हैं। घोड़े के समान याक भी कभी रास्ता नहीं भूलता है, उसे उत्तम दिशा का ज्ञान होता है। यदि हम चवँरी  गाय और याक बैल को तिब्बती बौध धर्म और  तिब्बतियों के जीवन से निकाल दें तो उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा ! कश्मीर के लद्दाख, भूटान और सिक्किम में भी चंवरी गाय का दूध और घी बौध मठों और मन्दिरों में इस्तेमाल किया जाता है।

हिन्दू धर्म में तो चंवरी गाय को बहुत पवित्र माना जाता है लेकिन तिब्बती बौध लोगों और जनता की अपनी समस्याएं हैं । किसी भी संस्कृति में पर्यावरण और वहां उत्पादों पर ही वहां का खानपान आधारित होता है। तिब्बत के पठारों में खाने के लिए मांस प्रमुख भोजन है, शून्य डिग्री से नीचे के तापमान में वो अन्न नहीं होते जो भारत की तराई में होते हैं इसलिए देह को अवश्यक तत्व प्राप्त हों इसलिए मांस इनके खानपान में प्रमुख रूप से सम्मिलित रहता है। तिब्बत में बौधों को भी इसे अपनाना पड़ा जबकि बैध धर्म में यह हिन्दू धर्म की तरह ही सख्ती से वर्जित है। याक , बकरी , भेड़ ये तीनों भोजन  के प्रमुख स्रोत हैं इसलिए कह सकते हैं की यह उनके जीवन और उनकी अर्थव्यस्था का प्रमुख आधार भी है ।