
हिन्दू धर्म में सभी कर्मों का आधार श्रुतियां और स्मृतियाँ हैं. जहाँ जहाँ स्मृतियों में भेद होता है या उनमे कोई मतवैभिन्यता आती है तो श्रुति ही अंतिम निर्णायक होती है. धर्म के सन्दर्भ में पुराण अथोरिटी नहीं है क्योकि पुराण धर्म के एक अत्यंत विकृत रूप को प्रचारित करता है हलांकि कुछ पुराण जैसे विष्णु पुराण या मत्स्य पुराण काफी ठीक हैं. आदि शंकराचार्य ने अनुवाद कहा है अर्थात किसी शब्द का मूल अर्थ जिस प्रकार अनुवाद में विकृत हो जाता है, उसी प्रकार पुराण आदि में धर्म विकृत हो गया है. यहाँ प्रसंग है कि हिन्दू धर्म में सभी धार्मिक कर्म के प्रारम्भ में आचमन क्यों करते हैं? आचमन वैदिक गायत्री संध्या के अनुसार ही किया जाता था लेकिन अब सम्प्रदाय के अनुसार किया जाने लगा है. जल भरे हुए पात्र में से दाहिने हाथ की हथेली पर जल लेकर उसका तीन बार आचमन करना चाहिए. वैदिक संध्या के अनुसार आचमन का विधान है. बायें हाथ से पात्र को उठाकर हथेली में थोड़ा गड्ढा- सा करके उसमें जल भरें और तीन बार वाणी, मन व अंतः करण की शुद्धि के लिए जल से आचमन करें. निम्नलिखित वैदिक मन्त्र बोलते हुए तीन बार आचमन करना चाहिए.
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ॥ १॥
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा ॥ २॥
ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा ॥ ३॥
आचमन त्रिगुणमयी शक्ति की त्रिविधि शक्तियों को अपने अन्दर धारण करने के लिए है. लोक तीन हैं, वेद तीन हैं, देव तीन हैं और अग्नियाँ भी तीन हैं. तांत्रिक संध्या में तीन शक्तियों के बीज मन्त्र से आचमन किया जाता है. वैष्णव विष्णु के नाम से आचमन करते हैं जैसे ॐ केशवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः, ॐ माधवाय नमः. यह एक साम्प्रदायिक आचमन है, वैदिक आचमन नहीं है. शाक्त आचमन उन बीज मन्त्रों से किया जाता जो वैदिक हैं जैसे ऐं आत्म तत्वं शोधयामि नमः स्वाहा, ह्रीं विद्या तत्वं शोधयामि नमः स्वाहा, क्लीं शिव तत्वं शोधयामि नमः स्वाहा. सभी बीज मन्त्र वेदों में प्राप्त हैं. वैष्णव आचमन पांचरात्र आगमिक है.
इतना जान लेने के बाद अब यह जानना जरूरी है कि क्या आचमन जरूरी है? और यह कहाँ से आया ? इसका स्रोत क्या है ? आचमन कर्म वेदों से आया. वेद में कहा गया है कि जल प्राण का वस्त्र है. प्राण को नग्न नहीं रहना चाहिए इससे उसकी हानि होती है. प्राण को आचमन से शुद्ध किया जाता है और अनग्न किया जाता है अर्थात उसे उसके वस्त्र से अच्छादित किया जाता है. यह सिर्फ पूजा में नहीं बल्कि भोजन करते समय भी प्रारम्भ और अंत में आचमन की परम्परा है. लेकिन यह सिर्फ रिचुअल नहीं है, आचमन करते समय यह ध्यान करना चाहिए कि मैंने अन्न और प्राण को इस वस्त्र से अच्छादित किया है. वैदिक धर्म पर चलने वाले लोग यह आज भी करते हैं. इसलिए कहा जाता है कि बिना पानी लिए भोजन के लिए नहीं बैठना चाहिए. जल न केवल प्राण का वस्त्र है अपितु इसे वित्त भी कहा गया है. लक्ष्मी की उत्पत्ति जल में हुई और वे जल में ही रहती हैं. ऐसा कहा गया है कि ब्रह्मविद्या के सन्दर्भ में यह आचमन कर्म त्याज्य है, ज्ञानी के लिए यह आवश्यक नहीं है.