Spread the love

भगवद्गीता सनातन वैदिक हिन्दू धर्म का एक सबसे प्रमुख ग्रन्थ है. इस ग्रन्थ को प्रस्थानत्रयी में स्थान प्राप्त है. भगवद्गीता वैदिक धर्म में लुप्त हो गई आध्यात्म विद्या का उद्धार करने वाला ग्रन्थ भी है. इस ग्रन्थ में कर्मयोग का उद्धार किया गया है. विस्मृत हो गये ऋषियों के मन्त्रों का जिस प्रकार किसी काल में कोई साधक ईश्वर के आशीर्वाद से उद्धार करता है उसी प्रकार इस ग्रन्थ में श्री कृष्ण ने कर्मयोग का उद्धार किया है. भगवद्गीता को स्मृति ग्रन्थ के अंतर्गत माना गया है. हिन्दू धर्म में श्रुति और स्मृति ही एकमात्र प्रमाण माने गये हैं. भगवद्गीता आध्यात्म के बावत एक प्रामाणिक ग्रन्थ है. इस छोटे लेख में भगवद्गीता के छठवें अध्याय का एक प्रसंग लिया गया है जिसमे अर्जुन यह शंका करता है कि जिन्होंने धर्म का साधन किया लेकिन उन्हें कुछ सिद्धि प्राप्त नहीं हुई, उन लोगों का क्या होता है?
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।।6.37।।
जिसकी साधन में श्रद्धा है, पर जिसका प्रयत्न शिथिल है, वह अन्त समय में अगर योगसे विचलित हो जाय, तो वह योगसिद्धि को प्राप्त न करके किस गतिको प्राप्त करता है?
यहाँ स्पष्ट है, यह प्रश्न उनके बावत पूछा गया है जो भगवान की उपासना और साधना में संलग्न रहते हैं. ईश्वर के मार्ग पर चलने वाला कोई साधक यदि किसी समय विचलित हो जाय या उसका प्रयत्न शिथिल हो जाय और उसे कुछ भी हासिल न हो तथा वह मृत्यु को प्राप्त हो जाये, तो ऐसे श्रधावान लोगों की क्या गति होती है?
अर्जुन पूछता है –
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।6.38।।
संसार के आश्रयसे रहित और परमात्म प्राप्ति के मार्गमें मोहित अर्थात् विचलित – इस तरह दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ साधक क्या छिन्न-भिन्न बादल की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता ?
ऐसे साधक जिन्होंने साधना के इतर सांसारिक वासनाओं की पूर्ति के लिए कोई कर्म नहीं किये, उन्होंने आश्रय भी नहीं बनाया और उसे भगवान की प्राप्ति भी नहीं हुई, ऐसे लोग जिनको “माया मिली न राम”. उनका क्या होता है? क्या दोनों ही प्रकार से हानि को प्राप्त हुए अर्थात दोनों ही ओर से भ्रष्ट हुए ये साधक छिन्न-भिन्न बादल की तरह नष्ट तो नहीं हो जाते?

यह प्रश्न उन सभी साधकों के लिए है जिन्होंने सांसारिक जीवन को तरजीह नहीं दिया. उन्होंने ज्ञान, भक्ति और साधना को ही जीवन में सबसे महत्वपूर्ण माना. उन्होंने साधना किया लेकिन योगयुक्त नहीं हो पाए और इसलिए उन्हें न योगजन्य सिद्धि मिली और न ही ईश्वर की सिद्धि हुई. साधक तीन स्तर के होते हैं – अधम,माध्यम और उत्तम. इन तीन प्रकार के साधको की मृत्यु होने के बाद इनका क्या होता है?

भगवान इसका उत्तर देते हैं और कहते हैं –
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
 न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति ।6.40।।
हे पार्थ ! उस पुरुष का, न तो इस लोक में और न ही परलोक में ही नाश होता है; हे तात ! कोई भी कल्याणकारी कर्म करने वाला दुर्गति को नहीं प्राप्त होता है।।

यहाँ शुभ कर्म या कल्याणकारी कर्म करने वालों का प्रसंग है. जो कल्याणकारी काम करनेवाला है अर्थात् किसी भी साधन से सच्चे हृदयसे परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति करना चाहता है, ऐसे किसी भी साधककी दुर्गति नहीं होती. इसमें वे कर्मयोगी भी हैं जो सिर्फ यज्ञार्थ कर्म करते हैं. जो मनुष्य शुभ कर्म नहीं करता उसका तो नाश अवश्यम्भावी ही है. कृष्ण कहते हैं उसका किसी काल में नाश नहीं होता अर्थात जिसके भीतर एक बार साधन के संस्कार पड़ गये हैं, वे संस्कार फिर कभी नष्ट नहीं होते. “ॐ ततसत” की व्याख्या करते हुए कृष्ण यही बात कहते हैं-
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।।17.27।।
यज्ञ, तप और दानरूप क्रिया में जो स्थिति (निष्ठा) है, वह भी ‘सत्’ — ऐसे कही जाती है और उस परमात्माके निमित्त किया जानेवाला कर्म भी ‘सत्’ — ऐसा ही कहा जाता है।
ईश्वर की प्राप्ति के लिए जो साधना की जाती है, वह “सत” हो जाता है इसलिए उसका किसी काल में नाश नहीं होता. सच्चा ईश्वर के उपासक की दुर्गति नहीं होती. साधना द्वारा जो भी सद्भाव उसके चित्त पर बने हैं, जैसा स्वभाव बना है, वह प्राणी किसी कारणवशात् किसी भी योनिमें चला जाय तो भी वे सद्भाव उसका कल्याण करके ही छोड़ेंगे. वह उसे प्रेरित करता रहता है. ऐसे साधक एक प्रकार से पूर्व जन्म से ही अभिशप्त होते हैं. जब इनका जन्म होता है तो संसार सागर को देख कर चीत्कार कर उठते है. भयभीत ये ईश्वर की शरण में चले जाते हैं. भगवान इन्हें कुछ सांसारिक कर्म नहीं करने देता या संग्रह करने देता है इसलिए ये संसार में नहीं बंधते और अनेक जन्मों में चक्कर काटते हुए अंत में एक दिन भगवान का दर्शन कर मुक्त हो जाते हैं. ऐसे साधक अक्सर निकम्मा होते हैं, वह कोई कर्म नहीं करना चाहते. रामकृष्ण परमहंस या चैतन्य की तरह वे कहते हैं कि मुझे वह सब पढ़ाई नहीं पढ़नी जिससे रोजी रोटी चलती है अर्थात पेट के लिए विद्या नहीं पढनी है. वह आदि शंकर या रामकृष्ण परमहंस या चैतन्य की तरह धर्म में रम जायेगा और कर्म सन्यास लेकर जीवन जियेगा. यहाँ प्रसंग मैं धार्मिक बिजनेस करने वालों का नहीं हो रहा है. पुजारी और बाजार में बैठे बनिया में कोई अंतर नहीं है. इसलिए दोनों में बड़ी मित्रता रहती है, दोनों एक साथ षडयंत्र करते है. ये खेत में मूर्ति रिकवर करते हैं, मन्दिर बनाकर बिजनेस करते हैं. यही दोनों मिलकर इस समय मस्जिद के नीचे मूर्ति रिकवर रहे. ये पिछले 1500 साल से कर रहे हैं.

भगवद्गीता में जिन योगभ्रष्टों की बात हो रही है वे वास्तविक रूप से धार्मिक हैं. इन योगभ्रष्टों में जो परमहंस बंनते हैं उनकी उपमा ही ईरानी पक्षी होमा से दी जाती है जिसके बच्चे आकाश में ही पैदा होते हैं. जब वे जमीन पर गिरने लगते हैं तो भय से चीत्कार करते हैं “हाय , हम इस भयंकर नर्क में गिर रहे हैं?” और जितनी तेजी से वे नीचे गिरते हैं उतनी ही तेजी फिर ऊपर की तरफ उड़ जाते हैं. सभी योगभ्रष्ट एकदिन होमा पक्षी की तरह हो जाते हैं. इन योगभ्रष्टों के पुनर्जन्म के बारे में ही भगवद्गीता का ये श्लोक कहा गया है –
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।6.41।।
वह योगभ्रष्ट पुण्यकर्म करने वालों के लोकों को प्राप्त होकर और वहाँ बहुत वर्षों तक रहकर फिर यहाँ शुद्ध  श्रीमानों के घरमें जन्म लेता है. अथवा योगभ्रष्ट ज्ञानवान् योगियोंके कुलमें ही जन्म लेता है. इस प्रकार का जो यह जन्म है, यह संसारमें बहुत ही दुर्लभ है.
इसमें दोनों प्रकार के योगभ्रष्ट हैं- एक निवृत्त मार्गी और दूसरा प्रवृत्तिमार्गी

गीता कहती है योगभ्रष्ट मरने के बाद पुण्यमय लोको को जाते हैं. पुण्यमय लोग भक्ति, ज्ञान, दान, धर्म, यज्ञ इत्यादि पुण्य से जीता जाता है. ये ज्ञान योगी, भक्त या भगवदगीता में यज्ञ करने वालों के जितने स्वरूप बताये गये हैं वे सभी पुण्यमय लोकों को जाते हैं और वहां अनंत काल तक रहते हैं. वहां भी उनकी भोगों में प्रवृत्ति नहीं होती. उन्होंने जो साधना की थी उसका एकमात्र उद्देश्य मुक्ति या ईशसिद्धि थी, इसलिए पूर्वजन्म का अभ्यास इनको जबर्दस्ती खींच लाता है और वे श्रीमान के घरों में पुन: साधना के लिए उत्पन्न होते हैं. भगवान ही इन्हें उनके अनुकूल गर्भों में डालते हैं. जन्म लेजर पुन: वे पूर्णता के लिए आगे बढ़ते हैं. वे जन्म लेने के बाद संसार की सांसारिकता थोड़ी भी बर्दाश्त नहीं कर पाते. संसार में थोड़ी भी चोट लगते ही ये ईश्वर की शरण लेते है. रामानुजाचार्य की पत्नी थोड़ी क्रूर और जातिवादी थी. रामानुजाचार्य बर्दाश्त नहीं कर पाए, डंडी स्वामी बन गए. ये बहुत संवेदनशील इलेक्ट्रॉन होते हैं, ये दुःख से जल्द घबरा जाते हैं और इन्हें जल्दी चोट लगती है. चोट लगने से जब इनका मर्म’ आहत होता है तो ये चीत्कार कर उठते हैं “हाय, इस संसार में दु:खों से मुक्त करने वाला ईश्वर जरुर होगा, उसी की शरण जाते हैं”. भारत के ज्यादातर संत ऐसे ही हुए, सब होम पक्षी की तरह थे.