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भागवत पुराण का प्रपंच वेद व्यास के परवर्जन से प्रारम्भ होता है. वेदव्यास को वेदांत का परमाचार्य माना जाता है और उन्हें ही ब्रह्मसूत्र का रचयिता भी माना जाता है जो वेदांतत्रयी का प्रमुख स्तम्भ है. भागवत पुराण की कथा वेदव्यास से शुरू होती है. वेदव्यास सरस्वती नदी के तट पर कुछ दुखी, उद्विग्न या खिन्न से बैठे हैं. उसी समय नारद का आगमन होता है. प्रकट होते ही नारद पूछते हैं –
पाराशर्य महाभाग भवत: कच्चिदात्मना ।
परितुष्यति शारीर आत्मा मानस एव वा ॥ २ ॥
महाभाग वेदव्यास ! आपके शरीर और मन दोनों ही अपने कर्म और चिन्तन से संतुष्ट हैं न ?
यहाँ प्रश्न पहले ही यह सोच कर किया गया है कि वेदव्यास देह और मन से संतुष्ट नहीं है क्योंकि संतुष्टि आत्मा से आत्मा में नहीं होती, इसके लिए कर्म से देह को भी सुखी होना चाहिए. जैसा भगवद्गीता में कहा गया है –
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।3.17।।
जो मनुष्य अपने-आपमें ही रमण करनेवाला और अपने-आपमें ही तृप्त तथा अपने-आपमें ही संतुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।
ब्रह्मज्ञानी कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता, ऐसे में कर्म से संतुष्ट होने का प्रश्न ही एक परवर्ट का प्रश्न है जो सांसारिक है. यदपि नारद सांसारिक नहीं थे लेकिन पौराणिक प्रपंचवादियों का यह विमर्श उनके नाम पर वेदांत के खिलाफ शुरू किया जा रहा है. प्रपंचवादी ब्रह्मज्ञानी वेदव्यास को अज्ञानी बता रहा है और उनसे कहता है –
जिज्ञासितमधीतं च ब्रह्म यत्तत्सनातनम् ।
तथापि शोचस्यात्मानमकृतार्थ इव प्रभो ॥ ४ ॥
प्रभु ! आपकी जिज्ञासा तो पूरी हो गई होगी; क्योंकि आपने महाभारत जैसे अद्भुत ग्रन्थ की रचना की, सनातन ब्रह्म तत्व को विचार और जान भी लिया है. लेकिन फिर भी आप अकृतार्थ पुरुष के समान अपने बारे में शोक क्यों कर रहे हैं?
प्रपंचवादी एक पौराणिक है, उसे वेदांत के परमाचार्य अज्ञानी और दुखी दिखते हैं, क्योंकि उसकी दृष्टि में वेदव्यास एक लेखक और विद्वान् व्यक्ति हैं. उन्होंने ग्रन्थों में सिर्फ जिज्ञासा की और ब्रह्म के बारे सिर्फ दार्शनिक चिन्तन किया है, ब्रह्मभाव की उपलब्धि नहीं की है. शायद उसे श्रुतियों का ज्ञान नहीं है. कठोपनिषद-2-12 में कहा गया है कि जो विवेकी पुरुष आत्मतत्व को जानता है, उन्ही को नित्यसुख प्राप्त होता है, अन्यों को नहीं.
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति।
मात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्‌ ॥
ब्रह्मज्ञानी वेदव्यास को ज्ञान प्राप्ति के बाद अब देह मन की संतुष्टि के लिए और कहाँ जाना है? दूसरी तरफ श्रुतियां यह भी कहती हैं- “विद्ययाऽमृतमश्नुते” विद्या से अमृत्व को प्राप्त कर लेता है-ईशावास्योपनिषद, “विद्यया विन्दतेsमृतं” विद्या से अमृत को पा लेता है -केन उपनिषद, “अमृतत्वं ही विन्दते” ज्ञान से अमृत ही प्राप्त कर लेता है- केन उपनिषद.
कठोपनिषद् में कहा गया है कि ज्ञान से इस जीवन में ही जिनके अविद्या जनित सम्पूर्ण ग्रन्थियों का छेदन हो जाता है, उस समय यह मरणधर्मा अमर हो जाता है. बस सम्पूर्ण वेदांत का इतना ही आदेश है.
यथा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः। अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येतावद्ध्यनुशासनम्‌ ॥ ||१५||

वेदव्यास पूर्ण ज्ञानी हैं, अद्वैत में प्रतिष्ठित हैं और माण्डुक्य श्रुति में अद्वैत को परमार्थ कहा गया है. ऐसे में वो किस कर खेद और दुःख में शोकान्वित रहेंगे? क्यों असंतुष्ट रहेंगे जब उन्हें अमृत और आनंद की प्राप्ति हो गई? मुण्डकोपनिषद कहती है –
स यो ह वै तत्‌ परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित् कुले भवति।
तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति ॥ ||९||
जो कोई उस परब्रह्म को जानलेता है, वह ब्रह्म हो जाता है. वह शोक को पार कर लेता है, पाप को पार कर लेता है और हृदयग्रंथियों से विमुक्त होकर अमरत्व प्राप्त कर लेता है.

लेकिन प्रपंचवादी जो विमर्श में नारद बना हुआ है, उससे वेदव्यास कहते हैं -आपने जो कहा वह ठीक है. मैं ब्रह्म तत्व को जानने वाला हूँ लेकिन फिर भी मैं संतुष्ट नहीं हूँ. (अर्थात वेदव्यास की बुद्धि प्रतिष्ठित नहीं है.) पता नहीं क्या कारण है? आप ही बुद्धिमान और ज्ञानी हैं, आप पुराण द्वारा उत्पन्न भगवान की पूजा करते हैं. आप ही मेरी कमी बताइये, कहाँ चूक हो गई जो मैं ब्रह्मज्ञानी होकर भी दुखी और शोकान्वित हूँ. इस प्रकार पूछने पर प्रपंचवादी कहता है कि आपने भगवान का यश गायन नहीं किया अर्थात प्रचार नहीं किया. भगवान शास्त्र ज्ञान से संतुष्ट नहीं होते, भगवान कोलाहल और प्रचार से प्रसन्न होते हैं, जिससे भगवान संतुष्ट नहीं होते वह ज्ञान अधुरा रहता है.
भवतानुदितप्रायं यशो भगवतोऽमलम् । येनैवासौ न तुष्येत मन्ये तद्दर्शनं खिलम् ॥1-5-8 ॥
यथा धर्मादयश्चार्था मुनिवर्यानुकीर्तिता: । न तथा वासुदेवस्य महिमा ह्यनुवर्णित: ॥ -1-5-8-9 ॥ -भागवत
प्रपंचवादी स्पष्ट रूप से वेदव्यास को ब्रह्मज्ञानी नहीं मानता बल्कि शास्त्र पंडित मानता है. शास्त्रपंडित वेदांती की असंतुष्टि तो समझी जा सकती है, वह वेदांत की किताबे लिखता है लेकिन उनसे संतुष्टि नहीं मिलती क्योंकि उसमें आनंद उच्छलित नहीं होता. लेकिन ब्रह्मवादी जिसने सच्चिदानंद ब्रह्म से एकत्व स्थापित कर लिया है, उसे आनंद की कौन सी कमी है? उसके शोक का कोई कारण नहीं है. तैत्तिरीयोपनिषद में कहा गया है -आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्. आनंद ब्रह्म है-ऐसा जाना. ब्रह्मानन्द में स्थित मुनि सभी शोक को पार कर जाता है “‘तरति शोकमात्मवित्” छान्दोग्योपनिषद् कहती है.

दूसरी तरफ सुख के लिए कर्म रूप कथा प्रचार इत्यादि तो अवर- बहुत निकृष्ट कोटि का बताये गये हैं. मुण्डकोपनिषद में इस तरह के अठारह यज्ञ रूप नाशवान बताये गये हैं. मुण्डक और तैतिरीय श्रुति यह भी स्पष्ट कहती ही है-
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। -मुन्डकोपनिषद 3-2-3 यह आत्मा प्रवचन से प्राप्त नहीं होती. यतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह। आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्। न बिभेति कुतश्चनेति।-तैतिरीय उपनिषद
वहां से वाणी मन सहित उसे बिना पाए लौट आती है. उस ब्रह्म के आनंद को जानने वाला किसी से भी भयभीत नहीं होता. जब सब उसका आत्मा ही हो गया तो उसे क्या मोह, क्या शोक ? ऐसा अद्वैत का उपदेश ईशावस्योपनिषद में किया गया है. “यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः। तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः”. इसके इतर प्रपंचवादी जिस कथाप्रपंच के लिए कहता है, उसे श्रुति नाम के अंतर्गत रखती हैं. इतिहास, पुराण आदि को अपरा विद्या के अंतर्गत रखा गया है. ये पुराण प्रपंच मात्र हैं. परवर्ट प्रपंचवादी वेदव्यास को ही परवर्ट करता है और कहता है कि उबाऊ किताब लिखने से बेहतर है, वह किताब लिखो जिसमे लौकिक आनंद है. जिस राजा की कहानी की पटकथा मैं दे रहा हूँ, उसकी जीवनी इंटरेस्टिंग है. उसमें सब लौकिक सुख मिलता है. तुम खुद को सांसारिक समझ कर उसका आनन्द उठा सकते हो. सांसारिक की तरह तुम बच्चा खेला सकते हो, खीरे से बच्चा पैदा करा सकते हो, सोहर गा सकते हो और सांसारिक की तरह ही सकते हो. राजा रासलीला में सम्भोगादि भी प्राप्त करता है. तुम उसका व्याख्यान और चिन्तन करके आनंदित हो सकते हो और जीवन को धन्य कर सकते हो. भागवत पुराण में ब्रह्मज्ञानी वेदव्यास का बहुत बड़ा अपमान किया गया है. ब्रह्मज्ञानी भी दु:खी और शोक में रहते हैं, यह बात भागवत पुराण में है. सारी श्रुति परम्परा जिसमे लिखा है – ब्रह्मवेत्ता शोक को पार कर जाता है, अमृतत्व को उपलब्ध होता है, निर्भय हो जाता है.. इस एक पुराण के गपोड़शंख में लिखी कहानी से निरस्त हो जाता है.
इति