
पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान सूर्य और उनकी पत्नी छाया से शनि का भी जन्म हुआ और भद्रा का भी जन्म हुआ था. भद्रा शनि की सगी बहिन हैं. भद्रा यमराज , यमुना, अश्विनी कुमारों, रेवन्त, वैवस्वत मनु, सवर्णि मनु और तपती की भी बहन है. विश्वकर्मा के पुत्र विश्वस्वरूप भद्रा के पति हैं. शनि की तरह ही भद्रा का रूप भयानक है, यह काले वर्ण, लंबे केश, बड़े दांत वाली तथा भयंकर रूप वाली मानी गई है. पौराणिक कथा के अनुसार जन्म लेते ही भद्रा यज्ञों में विघ्न-बाधा पहुंचाने लगी और मंगल कार्यों में उपद्रव करने लगी तथा सारे जगत को पीड़ा पहुंचाने लगी. उसके दुष्ट और उत्पाती स्वभाव को देखकर सूर्यदेव को उसके विवाह की चिंता होने लगी और वे सोचने लगे कि इस दुष्ट कुरूपा कन्या का विवाह कैसे होगा? तब सूर्यदेव ने उसके स्वभाव को शांत करने के लिए ब्रह्माजी से उचित परामर्श मांगा.
ब्रह्माजी ने तब विष्टि को शांत करने के लिए उसे करण में स्थान देने का विचार करके, विष्टि से कहा – ‘भद्रे! बव, बालव, कौलव आदि करणों के अंत में तुम निवास करो तथा जो व्यक्ति तुम्हारे समय में गृह प्रवेश तथा अन्य मांगलिक कार्य करे, तो तुम उन्हीं में विघ्न डालो. जो तुम्हारा आदर न करे, उनका कार्य तुम बिगाड़ देना.” इस प्रकार उपदेश देकर ब्रह्माजी अपने लोक चले गए. तब से भद्रा अपने समय में ही देव-दानव-मानव समस्त प्राणियों को कष्ट देती हुई घूमने लगी. इस प्रकार भद्रा की करण के रूप में उत्पत्ति हुई. भद्रा इन बारह नामों से भी जानी जाती है -धन्या, दधिमुखी, कुलपुत्रिका, भैरवी, महाकाली, असुराणा, महामारी, विष्टि, खरानना, कालरात्रि, महारुद्र और क्षयंकरी. ये सभी नाम भद्रा के स्वभाव और चरित्र के अनुसार ही रखे गये हैं. इन नामों से भद्रा की अशुभता की कल्पना की जा सकती है.
वैदिक ज्योतिष में ११ करण होते हैं इनमें से बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि करण ये करण चर करण कहलाते हैं. और अन्य शकुनि, चतुष्पाद, नाग और किस्तुघ्न स्थिर या ध्रुव करण कहलाते हैं। विष्टि को ही भद्रा के नाम से भी जाना गया है. करण तिथि का आधा भाग होता है. ये चर और स्थित करण में विभाजित हैं. विष्टि 7वें भाग में आने वाला करण है जिसको भद्रा कहते हैं. भद्रा पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल में निवास करती है और उसी के अनुसार शुभाशुभ फल कहा गया है. कृष्ण पक्ष की प्रारम्भिक पांच घड़ी की भद्रा सर्पिणी होती है, शुक्ल पक्ष की अंतिम पांच घड़ी की भद्रा वृश्चिक होती है, इसमें जन्म बहुत अशुभ होता. वृश्चिक भद्रा के पुच्छ भाग में एवं सर्पिणी भद्रा के मुख भाग में किसी प्रकार का मंगल कार्य नहीं करना चाहिए. भृगु संहिता में कहा गया है कि सोमवार और शुक्रवार की भद्रा कल्याणकारी, गुरूवार की पुण्यकारी, शनिवार की बृश्चिकी और मंगलवार, बुधवार तथा रविवार की भद्रा भद्रिका होती है. इसलिए अगर सोमवार, गुरूवार एवं शुक्रवार के दिन भद्रा हो तो उसका दोष नहीं होता है.
भद्रा वास –
भद्रा इन चार स्थानों में अलग अलग समय में निवास करती है. चार चार राशियों के क्रमम से भद्रा स्वर्ग लोक, पाताल लोक तथा पृथ्वी लोक में रहकर अलग अलग फल देती है. जब चंद्रमा मेष, वृष, मिथुन और वृश्चिक राशि में होता हैं तब भद्रा स्वर्ग लोक में रहती है. चंद्रमा के कुंभ, मीन, कर्क और सिंह राशि में होने पर भद्रा पृथ्वी लोक में तथा चंद्रमा के कन्या, तुला, धनु एवं मकर राशि में होने पर भद्रा पाताल लोक में निवास करती है.
किसी भी मुहूर्त काल में भद्रा का वास पांच घटी मुख में, दो घटी कंठ में, ग्यारह घटी ह्रदय में, चार घटी नाभि में, पांच घटी कमर में तथा तीन घटी पुच्छ में होता है. इस स्थिति में भद्रा क्रमशः कार्य, धन, प्राण आदि को नुकसान पहुंचाती है परंतु पुच्छ में भद्रा का प्रभाव मंगलकारी होने से विजय और कार्यसिद्धि दायक होता है. शुक्ल पक्ष की अष्टमी, पूर्णिमा के पूर्वार्ध, चतुर्थी एवं एकादशी के उत्तरार्ध में तथा कृष्ण पक्ष की तृतीया, दशमी के उत्तरार्ध, सप्तमी और चतुर्थी के पूर्वार्ध में भद्रा का वास रहता है.