Spread the love

जब भी कोई बड़ी परिघटना दुनिया में घटती है तब समष्टिगत ग्रहों का प्रभाव व्यष्टिगत ग्रहों को अपने अनुकूल चलने पर विवश कर देता है. ऐसे समय में महात्मा, आचार्य, बड़े बड़े प्रज्ञ, समाज के नेताओं का चित्त भी इतने गहरे प्रभाव में होता है कि उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है. यह बात हर बड़े अच्छे या बुरे परिवर्तन के समय देख सकते हो. जर्मनी में हिटलर की नाजी रिजीम के समय समष्टिगत ग्रहों का कुल टोटल प्रभाव ऐसा हुआ कि जर्मनी के बड़े बड़े प्रज्ञ जैसे आर्थर शोपेनहावर इत्यादि भी विवश हो मौन लगा गये और नाजिज्म को ही देश के हित में बताने लगे. इसका परिणाम बड़ा भयानक हुआ, 40 लाख लोग मारे गये और एक विश्वयुद्ध हो गया. द्वापर में भी ऐसी ही घटना घटी थी. इस समय यह कृष्ण के जन्म के साथ ही शुरु हुई और उनकी मृत्यु तक उसका गहरा प्रभाव रहा मानो सच में काल बन कर आये थे. महाभारत के युद्ध के  प्रारम्भ में ग्रहों की चाल का जो वर्णन हुआ है वह यूँ ही नहीं हुआ है. वेदव्यास ने यह बताने के लिए ही लिखा है कि विश्व की बड़ी घटनाओं में दैव प्रबल होता है और अधिदैव कुछ विशेष ग्रहीय संयोजन बनाते हैं. इस समय  न केवल धृतराष्ट्र, भीष्म इत्यादि भयभीत हैं बल्कि स्वयं कृष्ण भी ग्रहों की चाल से भयभीत हैं और वे कर्ण से पूछते हैं. कर्ण सूर्य का उपासक था और ज्योतिष का ज्ञानी था.
कर्ण ने कहा-
प्रजापत्यम हि नक्षत्रं ग्रहस्तिक्ष्णो महाद्युति :।
शनैश्चर: पीडयति पीडयन्न प्राणिनोधिकं ।।
-उद्योग पर्व
हे मधुसुदन ! भयंकर तीक्ष्ण महाद्युतिमान् शनैश्चर संसार को पीड़ित करने के लिए रोहिणी का भेदन करने की तरफ अग्रसर है, मंगल ज्येष्ठा में वक्री होकर अनुराधा की तरफ बढ़ रहा है जो प्रिय जनों, मित्रों के महाविनाश का द्योतक है ।
भीष्म धृतराष्ट्र से कहते हैं कि तीनों लोको में विख्यात और पूजनीय अरुंधती वशिष्ठ के पीछे चली गई है, रोहिणी नक्षत्र को शनि पीड़ित कर रहा है यह शुभ नहीं है-
ये चैषा विश्रुता राजस्त्रैलोक्ये साधु सम्मता।
अरुंधती तयाप्येष वशिष्ठ: पृष्ठत: कृत: ।।
रोहिणी पीड्यन्नेष स्थिति राजन्नशनैश्चर:।
व्यावृतं लक्ष्म सोमस्य भविष्यति महदभ्यम।।
-भीष्म पर्व
हे राजन ! शनि रोहिणी शकट की तरफ जा रहा है. चन्द्रमा मृग में अपने निश्चित पथ से मुड़ गया है, यह भविष्य में महान भय का कारण बन रहा है !

महाभारत का युद्ध सम्पन्न हुआ और कुछ लोग ही बच पाए. जो बच गये उनमे भी ज्यादातर शांति से नहीं मर पाए. महाभारत के दिग्गज आचार्य जो सिद्ध थे उनकी बुद्धि क्यों कुंद हो गई ? दुर्योधन का नमक खाने के कारण, दुर्योधन से आर्थिक लाभ लेते रहे इसलिए इसके लिए खड़ा होना मजबूरी हो गया. यह कुछ वर्तमान समय की तरह ही है जब अनेक बाबा/स्वामी एक आततायी के साथ खड़े है. जब किसी समय किसी देश का नाश होना होता है तब उस समय समाज के धार्मिक, बौधिक नेताओं की बुद्धि खराब हो जाती है. उन्हें सत्य बोलने का साहस नहीं रह जाता.
लेकिन महत्वपूर्ण बात ये है स्वयं कृष्ण भी इस महाविनाशकारी समय से नहीं बच पाए. उनके समक्ष ही उनका यदुकुल आपस में लड़मर गया और विनाश को प्राप्त हुआ. कृष्ण की मृत्यु के बाद जो घटनाएँ घटी वो उस पुरे समय चक्र का पटाक्षेप की तरह थीं. शनि-बृहस्पति-राहु इत्यादि युति वक्री अवस्था में किसी राशि में चार-छह महीने तो रहती ही है. यह लम्बा समय होता है जब ग्रहों का कोई मारक योग बना हो विशेषकर शनि-बृहस्पति के कमोवेश 900 साल में होने वाली मेष या वृष में युति से प्रारम्भ नये चक्र के समय यदि बन रहे हों. कृष्ण के प्रस्थान के बाद अर्जुन के गांडीव में जंग लग गया और वह एक तुच्छ जंगली लुटेरो से भी नहीं लड़ पाए. अर्जुन वृष्णि वंश की स्त्रियों को नहीं बचा पाए और लुटेरे उन्हें लूट ले गये. अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान लुप्त हो गया. भुजाओंका बल भी घट गया. धनुष भी काबूके बाहर हो गया और अक्षयबाणोंका भी क्षय हो गया. इन सब बातोंसे अर्जुन इन सब घटनाओंको दैवका विधान मानने लगे”बभूव विमनाः पार्थो दैवमित्यनुचिन्तयन् ।” अर्जुन के ईश्वर दर्शन के बाद भी यह दैव प्रभावी रहा. दैव ही प्रबल था. भगवद्गीता में है – कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो/लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः। मैं सम्पूर्ण लोकोंका क्षय करनेवाला बढ़ा हुआ काल हूँ और इस समय मैं इन सब लोगोंका संहार करनेके लिये यहाँ आया हूँ।
अर्जुन ने यह सवाल पूछा था कि पुरुषों के मर जाने के बाद स्त्रियों का क्या होगा ? स्त्रियों को डाकू लूट ले गये. कृष्ण की 16 हजार रानियों मे ज्यादातर तो बिला गईं, दैव ने उनको कहीं का नहीं छोड़ा. लेकिन बाकि कुछ प्रमुख स्त्रियों का क्या हुआ ? 

यौयुधानिं सरस्वत्यां पुत्रं सात्यकिनः प्रियम् ।
न्यवेशयत धर्मात्मा वृद्धबालपुरस्कृतम् ॥ ७१ ॥
इन्द्रप्रस्थे ददौ राज्यं वज्राय परवीरहा ।
वज्रेणाक्रूरदारास्तु वार्यमाणाः प्रवव्रजुः ॥ ७२ ॥
अर्जुनने सात्यकिके प्रिय पुत्र यौयुधानिको सरस्वतीके तटवर्ती देशका अधिकारी एवं निवासी बना दिया और वृद्धों तथा बालकोंको उसके साथ कर दिया ॥ इसके बाद शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अर्जुनने व्रजको इन्द्रप्रस्थका राज्य दे दिया।  अक्रूरजीकी स्त्रियाँ वज्रके बहुत रोकनेपर भी वनमें तपस्या करनेके लिये चली गयीं ॥

रुक्मिणी त्वथ गान्धारी शैव्या हैमवतीत्यपि ।
सत्यभामा तथैवान्या देव्यः कृष्णस्य सम्मताः ।
वनं प्रविविशू राजंस्तापस्ये कृतनिश्चयाः ॥ ७४ ॥

धर्मात्मा अर्जुनने सात्यकिके प्रिय पुत्र यौयुधानिको सरस्वतीके तटवर्ती देशका अधिकारी एवं निवासी बना दिया और वृद्धों तथा बालकोंको उसके साथ कर दिया ॥
इसके बाद शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अर्जुनने व्रजको इन्द्रप्रस्थका राज्य दे दिया।
देवी जाम्बवती चैव विविशुर्जातवेदसम् ॥ ७३ ॥
रुक्मिणी, गान्धारी, शैव्या, हैमवती तथा जाम्बवती देवी ने विधि से अग्निमें प्रवेश किया ॥
राजन्! श्रीकृष्णप्रिया सत्यभामा तथा अन्य देवियाँ तपस्याका निश्चय करके वनमें चलीं गयीं ॥ ७४ ॥

शास्त्रों में बताये मुक्ति का यही मार्ग है इसलिए कोई अग्नि में प्रवेश कर गया, कोई वन में गईं और कभी नहीं लौटीं..