Spread the love

पुजारी-बनिया गठ्बन्धन का श्रेष्ठ उदाहरण मिश्रा जी संस्कृतं की ये बात है जिसका मैं जिक्र करता रहता हूँ. जो कुछ पुराणिक पूजा-पाठ व्रत बनाये गये वो बाजार के मद्देनजर ही बनाये गये. यह बाजार का मामला था जिस कारण पौराणिकों ने हर तिथि में व्रत-पर्व बना दिए. इससे प्रमुख रूप से सिर्फ दो जाति को ही लाभ था- बनिया और पुजारी वर्ग. काशी विद्वत परिषद के अधिकारी कह रहे हैं तो बात में दम है.

धर्म के इस बाजारीकरण में धर्म हो ही कैसे सकता है ? यह तो जनता की जेब खाली करने के लिए एकतरह से दो वर्गों का षड्यंत्र ही हुआ ? यह प्रमुख रूप से बनियों का ही षड्यंत्र है जैसा कि सत्यार्थ प्रकाश में दयानन्द सरस्वती ने जिक्र किया है. इस धर्म के बाजारीकरण से जो बड़ी पूंजी बनिया बनाता है उसका कुछ हिस्सा पुजारियों को देता है जिससे उनके आजकल 1200 करोड़ के मन्दिर, मठ बन रहे हैं.

आधुनिक पूजीवाद के दौर में धर्म के इस बाजारीकरण में बाबा, पुजारी, फैशन इंडस्ट्री, फिल्म की हीरोइने तक शामिल है. करवाचौथ का उदाहरण ही ले लीजिये. यह व्रत फैशन उद्योग, पुराणवादी पुजारी-बाबा वर्ग और बनिया की मिलीभगत से अस्तित्व में आया और यह एक दिन में हजारों करोड़ का बिजनेस बन गया है. सिनेमा और सीरियलों में हिरोइनों ने इसे प्रचारित किया. हिरोइने धर्म से सम्बन्धित प्रोडक्ट के प्रचार के लिए करोड़ों चार्ज करती हैं. उदाहरण के लिए हिंदुत्व जो नो बिंदी-नो बिजनेस मुहीम चला रहे वो भी इसमें से कुछ कमाने के लिए ही चला रहे. फैब इंडिया से कुछ झींटने की मुहीम है. हो सकता है बिंदी बनाने वाली कम्पनी से उनका कांट्रेक्ट हो कि तुम महीम चलाओ कि त्यौहार पर बिंदी लगाना अनिवार्य है. बिंदी आजकल कम बिकती है.

मिश्रा जी की बात एकदम सही है पौराणिक धर्म का पूरा आयोजन लूटपाट है. इसमें कोई धर्म नहीं होने से भारत में धर्म सिरे से नदारद है और बाबा बलात्कार करते हुए पाए जाते हैं. देश भर में अनेक हिंदी प्रदेशों में बलात्कार और जुर्म अपने चरम पर हैं. मिश्रा जी को समझना चाहिए डुकृञ् करण का पौराणिक युग खत्म है. इसे खत्म करने से ही धर्म पुन: अस्तित्व में आएगा.

धर्म होने की स्थिति में जुर्म नहीं होता और न ही लोग जुर्म को प्रश्रय देते हैं अथवा उसका समर्थन करते हैं.