भारत के पितृ-सत्तात्मक समाज में पुरुषों ने महिलाओं को गुलाम बनाए रखने के लिए ही साल में कई सारे ऐसे पर्व बनाए, जिनमें धर्म व पाप-पुण्य की दुहाई देकर स्त्रियों को भूखे रहने के लिए विवश किया गया है, और जिनको पवित्र साबित करने के लिए उपवास का नाम दिया गया है। कोई-कोई व्यक्ति तो इसे बेहतर सेहत के लिए भी आवश्यक बताता है। साल का ऐसा कोई महीना और सप्ताह नहीं है, जब स्त्रियों को उपवास नहीं करना होता है। सप्ताह में मंगल, गुरुवार, शनिवार और रविवार, अमावस्या और पूर्णिमा, एकादशी, प्रदोष, छठ व्रत, जन्माष्टमी, बेटे के लिए जितिया, पति के लिए तीज और अब करवाचौथ… ऐसे अनगिनत अवसर आते हैं, जब स्त्रियों को उपवास करना होता है, और वे भूख को आसानी से सहन भी कर लेती हैं।
वैसे भी, जब घर-परिवार में अन्नाभाव की स्थिति होती है, तो सबसे पहले ये औरतें ही होती हैं, जिनको अपना पेट काटकर दूसरों को भोजन देना सिखाया गया है।
स्त्री के लिए मैंने किसी पुरुष को उपवास करते कभी नहीं देखा। क्या शरीर के शोधन और बेहतर स्वास्थ्य की जरूरत पुरुषों को नहीं? हमारे बचपन में तो गांव के अधिकतर घरों में पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग खाना बनता था। अगर कभी अच्छा खाना बना भी, तो पहले पुरुषों का पेट भरा जाता था, बाद में महिलाओं को खाने को मिलता था। बचपन से ही उन्हें दोयम दर्जे का समझा जाता था और उनके दिमाग में भी यह बात बैठा दी जाती थी कि वे ‘दूसरी’ हैं। समय के साथ वे खुद इस बात को मान भी लेती थीं। जीवन के लिए आवश्यक सुविधाओं और जरूरतों के मामले में उन्हें हमेशा दूसरी होने का भान कराया जाता था।
वर्तमान में कुछ सुधार तो जरूर हुआ है, पर इतना भी नहीं कि वे पुरुषों से बराबरी की स्थिति में आ गईं। आज भी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक स्तर पर वे पुरुषों की बराबरी के स्तर पर नहीं पहुंच पाई हैं। आज भी किसी न किसी रूप में वे भेदभाव का शिकार हो रही हैं। हालांकि, आर्थिक संपन्नता, शिक्षा और रोजगार के कारण उनकी स्थिति में काफी सुधार हुआ है, लेकिन अब भी निर्णय-प्रक्रिया में वे बराबरी का हक नहीं रखतीं।
दरअसल, अशिक्षा और रूढ़िवादिता का सबसे बुरा प्रभाव हमारे देश की महिलाओं पर ही पड़ता है। धर्म की जकड़न से भी महिलाएं ही सबसे अधिक त्रस्त हैं। इसके समाधान के लिए सिर्फ एक उपाय है, और वह यह कि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक स्तर पर उन्हें भी अवसर की समानता प्रदान की जाए।

