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रामकृष्ण के प्रमुख शिष्यों ने रामकृष्ण के अवतार के लिए जो तर्क दिए और कथाएं लिखीं उससे कुछ और ही बातें सामने आती हैं. रामकृष्ण को अवतार बनाने के लिए  शिष्यों ने अवतारवाद की नई प्रस्थापना करने की कोशिस की थी. सारदानन्द ने लीलाप्रसंग में रामकृष्ण से यह कहलवाया कि रामकृष्ण ने समाधि में देखा था कि सप्तर्षिमंडल से वे किसी ऋषि  की देह से निकल कर अवतरित हुए और उनके कहने पर ‘तुम भी आना’ तब विवेकनन्द भी उसी मंडल में किसी ऋषि से निकल कर बाद में पृथ्वी लोक में जन्म लिए थे.

सारदानन्द के अनुसार -“वैदिकयुग के ऋषि ही, कालक्रम से पौराणिक युग में ईश्वरावतार के रूप में प्रख्यात हुए थे. वैदिक युग के लोग यह जान गये थे कि कुछ पुरुष इन्द्रियातीत पदार्थ समूहों का दर्शन करने में समर्थ हैं; किन्तु फिर भी उनके पारस्परिक शक्ति के तारतम्य की उपलब्धि उन्हें नहीं हुई थी; इस कारण उनमे प्रत्येक व्यक्ति को एकमात्र ‘ऋषि’ पर्याय से निर्देश कर ही वे संतुष्ट हुए. क्रमश: मानवों की बुद्धि और तुलना करने की शक्ति ज्यों ज्यों बढने लगी, उनका अनुभव भी तदनुरूप होने लगा और उन्हें ज्ञान हुआ कि ऋषियों में सभी एकसमान नहीं हैं- आध्यात्मिक जगत में कोई सूर्य सदृश है, कोई चन्द्र जैसा और कोई उज्ज्वल नक्षत्र की तरह, फिर कोई कोई सामान्य खद्योत की भांति दीप्ति प्रदान कर प्रकाशशील है. जब उन्हें यह अनुभव हुआ तब ऋषियों को श्रेणीबद्ध करने की चेष्टा हुई एवं इसी आधार पर कुछ ऋषियों को विशेष आध्यात्मिक शक्तिसम्पन्न अथवा उस शक्ति के विशेष अधिकारी रूप में स्वीकार किया.

इस प्रकार दार्शनिक युग में कुछ ऋषि ‘अधिकारी-पुरुष’ रूप से अभिहित हुए. ईश्वर के अस्तित्व पर संदेह करने वाले सांख्य के आचार्य कपिल मुनि को भी इस बारे में कोई संदेह नहीं था. उनके अनुयायियों ने अपने ग्रन्थों में ‘अधिकारी पुरुष’ को ‘प्रकृतिलीन’ रूप में अभिहित किया है. ऐसे असाधारण शक्तिशाली पुरुषों की उत्पत्ति के कारणों का निर्णय करते हुए वे कहते हैं-‘पवित्रता, संयमादि गुणों से विभूषित होकर पूर्ण ज्ञान को प्राप्त करने में समर्थ होते हुए भी ऐसे पुरुषों के हृदय में लोक कल्याण की वासना तीव्र रूप में जागृत रहती है, इसलिए वे अनंत महिमामंडित स्व-स्वरूप में कुछ काल तक लीन नहीं हो पाते हैं. किन्तु उस वासना के फलस्वरूप सर्वशक्तिसम्पन प्रकृति में लीन होकर उसकी शक्तियों को वे अपनी शक्तिरूप से प्रत्यक्ष करते रहते हैं और इस प्रकार षडऐश्वर्यसम्पन्न हो एक कल्प पर्यन्त अशेष रूप से जनकल्याण साधन करने के पश्चात अंत में अपने स्वरूप में अवस्थित होते हैं. प्रकृति-लीन पुरुषों की शक्ति के तारतम्य के अनुसार सांख्य आचार्य उन्हें ‘कल्प नियामक ईश्वर’ और ‘ईश्वर कोटि’ इन दो श्रेणियों में रखा है .”

इस तर्क का आधार दो है: पहला संख्यों के प्रकृति-लयों की शक्तियों का जो कुछ वर्णन शास्त्रों में मिलता है वह और दूसरा भगवद्गीता का यह श्लोक है जिसमे कहा गया है कि ‘अपनी योगमाया’ को वश में कर मैं जन्म लेता हूँ.
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।4.6।।
यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप हूँ और भूतमात्र का ईश्वर हूँ (तथापि) अपनी प्रकृति को अपने अधीन रखकर (अधिष्ठाय) मैं अपनी माया से जन्म लेता हूँ. प्रकृतिलय पुरुष अपनी स्वप्रकृति का पूर्ण स्वामी हो जाता है इसलिए हो सकता है वो अपने संकल्प से जन्म लेने की योग्यता रखता हो!  ब्रह्म सूत्र में भी इस पर चर्चा की गई है और बताया गया है कि ब्रह्मज्ञानी ब्रह्मलोक से अपनी इच्छा के अनुसार जन्म ले सकते हैं. कहने का अर्थ ये है कि जो अवतार हैं वो ईश्वर नहीं है, योगसिद्ध ऋषि-महर्षि हैं. वे ही संकल्प से किसी के गर्भ में प्रविष्ट हो जाते हैं और जन्मना योगसिद्ध होने से उनमे चमत्कार करने की क्षमता रहती है और वे किसी को योग मार्ग में ले जाने में सक्षम होते हैं.

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।9.7।।
हे कौन्तेय ! (एक) कल्प के अन्त में समस्त भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं; और (दूसरे) कल्प के प्रारम्भ में उनको मैं फिर रचता हूँ।।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।9.8।।
प्रकृति को अपने वश में करके (अर्थात् उसे चेतनता प्रदान कर) स्वभाव के वश से परतन्त्र (अवश) हुए इस सम्पूर्ण भूत समुदाय को मैं पुन:-पुन: रचता हूँ।।
यह रचने का काम कोई प्रकृतिलय पुरुष नहीं कर सकता..वह तो कर्मो से भयभीत रहता है. कर्मों का फल देना भी किसी पुरुष के अधिकार में नहीं है, यह ब्रह्मसूत्र में स्पष्ट किया गया है. भगवद्गीता में भी यही कहा गया है “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन.” रामकृष्ण किसी को भी उनकी पूजा, अनुष्ठान का फल प्रदान करने में सक्षम नहीं थे. वे तो स्वयं ही ईश्वर की इच्छा पर आश्रित होकर सभी कर्म करते थे.
इसका कोई उत्तर ये सम्प्रदाय नहीं दे पाते. यही तर्क वैष्णवों ने कृष्णादि के अवतार का भी दिया है. बाद के कृष्णिज्म वाले भागवती वैष्णवों ने भी चैतान्यदि के अवतार का ऐसा ही तर्क दिया है. चैतन्य महाप्रभु एक कीर्तनिया थे और कृष्ण की भक्ति करते करते खुद को कृष्ण बताने लगे. उनके मरने के बाद अनुयायियों ने चैतन्यभागवत आदि ग्रन्थ लिख कर कृष्ण जन्म और लीला की तर्ज पर चैतन्य की लीला बना कर भागवती पुराण वाचकों ने गपोड़शंख फैलाया है.

इस प्रकार देखते हैं कि ज्यादातर सम्प्रदाय इसी आधार पर अपने गुरु को भगवान बता कर जनता से पूजा करवाते हैं और उनका पतन करते हैं. कृष्ण, राम आदि अवतार भी बेचारे ही दिखते हैं, षडऐश्वर्य (अनंत वीर्य, बल, ज्ञान आदि ) इनमें नहीं था अन्यथा कृष्ण बच्चा पैदा करने के लिए अज्ञानियों की तरह व्रत- तपस्या तो नहीं करते? और राम वन वन नहीं भटकते और बाली का वध करके मिथ्या वचन नहीं बोलते. राम ने बाली से कहा “हम राजा महाराज भरत के आदेश से भारत वर्ष में घूम घूम कर धर्म का प्रचार करते हैं. मनुस्मृति के अनुसार धर्म का पालन करवाते हैं और पालन न करने वालों को दंड देते हैं”. राम बाली के बार बार कहने पर भी कि वह बानर जाति है, वह पशु है, उस पर मनुस्मृति के नैतिक नियम लागू नहीं हो सकते.” लेकिन राम उसकी एक नहीं सुनते. यह निकृष्टता भगवान के अवतार का गुण नहीं हैं.
इस सन्दर्भ में यह भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि जब जब भारत गुलाम हुआ या हिन्दू गुलाम हुआ ये ईश्वर कोटि के प्रकृतिलय सिद्ध गायब रहे थे. इन सिद्धों में हनुमान आदि चिरंजीवी भी हैं. उन्होंने ये नहीं किया कि चलो योगमाया को वश में कर के जन्म लेकर देश की जनता को गुलामी से छुटकारा दिलाएं और सनातन धर्म को दूषित होने से बचाएं, अपने मन्दिरों को लूटे जाने से बचाएं. इन सिद्धों का वश आततायियों पर नहीं चलता, इनका वश सिर्फ अज्ञानी, गरीब बेचारी जनता पर चलता है.

यह तर्क जायज है कि मनुष्य अपने कर्मों से जन्म लेता है, कोई जन्मना पूर्व जन्म के कर्मों से कुछ सिद्ध सा होता है, उसके कार्य सिद्ध पुरुष की तरह होते हैं. जन्म लेकर ये भी अपनी पूर्णता की तरफ ही आगे बढ़ते हैं. कोई कोई जन्म लेकर साधन करता है और फिर थोड़ा बहुत सिद्ध होता है. कोई ड्रग, औषधि से भी योगज चमत्कार कर देते हैं. क्या माइकल जैक्सन, मैडोना इत्यादि में चमत्कार नहीं था? उन्होंने लाखो लोगो को अपने गीतों, कार्यक्रम से उन्मादी बनाया. करोड़ो लोग स्टेडियम में एक अलग ही उन्माद में होते थे. कोई कोई जन्मना ही विशेष गुणों से युक्त होता है. इसकी बुद्धि जन्म से ही विकसित होती है, उसमे बल और बुद्धि का ज्यादा विकास होने से वह समाज में जल्दी ही प्रभुत्वशाली हो जाता है. कोई कोई तप आदि से भी बल-बुद्धि का विकास कर लेता है और समाज में प्रभावशाली हो जाता है. कई बार ऐसा देखा जाता है कि सामाजिक रूप से प्रभावशाली व्यक्ति बौधिक रूप से निपढ और अज्ञानी होता है. भारत में ऐसे लोग भी खुद को अवतार बताते रहे हैं. वास्तव में अवतारवाद की अवधारणा ही मिथ्या सिद्धांतों पर आधारित है.