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वैदिक ज्योतिष वेदांत की ज्ञान और तत्वमीमांसा पर ही आधारित है. ज्योतिष में राशियों, ग्रहों और नक्षत्रों के स्वरूप का वर्णन को देखें या इसके कर्म सिद्धांत के स्वरूप को देखें, सब कुछ उपनिषदीय वेदांत दर्शन पर आधारित है और इसे भगवद्गीता में भी यथावत देखा जा सकता है. ज्योतिष में राशियाँ, ग्रह और नक्षत्र त्रिगुणात्मक माने गये हैं क्योंकि जिस मूल प्रकृति से इनका निर्माण होता है वह त्रिगुणात्मक है. इन गुणों से ही व्यक्ति के स्वभाव और चरित्र का निर्माण होता है. इनके गुणों के अनुसार ही जातक का औरा निर्मित होता है और इन गुणों के अनुसार ही वह अपने कर्मो में बरतता है. मूलप्रकृति ही त्रिगुणात्मक पंचभूतों का निर्माण करती है, सभी ग्रह पंचभूतात्मक है. इस कारण यह स्पष्ट कहा गया है “स्वदशायां ग्रहाश्छायां व्यंजयन्ति स्वभूतजाम्” अर्थात ग्रह अपनी दशा में पंचमहाभूतों से सम्बन्धित छाया या औरा का दर्शन कराते हैं. शनि की महादशा में धूम्र वर्ण, मलिनता, मूढ़ता, दीनता और वायु सम्बन्धी प्रकृति का दर्शन होता है. भगवद्गीता में दैवी सम्पत और आसुरी सम्पत के वर्णन का आधार भी वेदांत और सांख्य दर्शन है. भगवद्गीता में भगवान द्वारा दिए गये उपदेश को संक्षिप्त में देखते हैं. भगवान कहते हैं कि इस संसार में जो कोई भी योनि देव, मनुष्य, दानव, राक्षस आदि पैदा होते हैं वे सभी मूलप्रकृति से उत्पन्न होते हैं और मैं भगवान स्वयं इस चराचर जगत का बीज स्थापित करने वाला पिता हूँ.
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।14.4।।
 हे कौन्तेय ! समस्त योनियों में जितनी मूर्तियाँ (शरीर) उत्पन्न होती हैं, उन सबकी योनि अर्थात् गर्भ है महद्ब्रह्म और मैं बीज की स्थापना करने वाला पिता हूँ।।
मूल प्रकृति त्रिगुणात्मक है जिसके तीनों गुणों के सामजस्य से अनेकानेक प्रकृतियाँ प्रकट होती है. जहाँ ज्ञान का प्रकाश है, विद्या है, धर्म की वृद्धि है और सत्य की प्रतिष्ठा है वहां सत्व की वृद्धि हुई ऐसा समझना चाहिए. इसी सत्व गुण की प्रतिष्ठा से मनुष्य उच्चतर लोको को जाता है. जबकि रजोगुण की प्रवृत्ति से मनुष्य अपने शुभा-शुभ कर्मों के अनुसार पापमय मनुष्य लोक में बार बार गिरता रहता है और तदनुसार वह इस संसार में प्रवृत्त रहता है. जबकि तमोगुणी मनुष्य का अध:पतन हो जाता है और वह निंदनीय निम्नतर योनियों में प्रविष्ट होता है.
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।।14.18।। ·
जब इस देह के द्वारों अर्थात् समस्त इन्द्रियों में ज्ञानरूप प्रकाश उत्पन्न होता है, तब सत्त्वगुण को प्रवृद्ध हुआ जानो. हे भरतवंशमें श्रेष्ठ अर्जुन ! रजोगुणके बढ़नेपर लोभ, प्रवृत्ति, कर्मोंका आरम्भ, अशान्ति और स्पृहा — ये वृत्तियाँ पैदा होती हैं. हे कुरुनन्दन ! तमोगुणके बढ़नेपर अप्रकाश, अप्रवृत्ति, प्रमाद और मोह — ये वृत्तियाँ भी पैदा होती हैं। जब यह जीव (देहभृत्) सत्त्वगुण की प्रवृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल अर्थात् स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है. रजोगुण के प्रवृद्ध काल में मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मासक्ति वाले (मनुष्य) लोक में वह जन्म लेता है तथा तमोगुण के प्रवृद्धकाल में (मरण होने पर) मूढ़योनि में जन्म लेता है. शुभ कर्म का फल सात्विक और निर्मल कहा गया है; रजोगुण का फल दु;ख और तमोगुण का फल अज्ञान है. सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है। रजोगुण से लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद, मोह और अज्ञान उत्पन्न होता है.
भगवद्गीता की यही बात महर्षि पराशर ने होराशास्त्र में भी कहा है –

अथो गुणवशेनाहं कथयामि फलं द्विज ।
सत्त्वग्रहोदये जातो भवेत्सत्त्वाधिकः सुधीः ॥ १॥
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
अलोभः सत्यवादित्वं जने सत्त्वाधिके गुणाः ॥ ५॥
हे विप्र! अब मैं ग्रहों के गुणों सत्व, रज , तम के अनुसार उनके फलों को कहता हूँ. जन्म कुंडली में जब सत्व गुण वाले ग्रहों और नक्षत्रों की प्रबलता रहती है तो उस समय पैदा हुआ जातक सत्वगुणी और सुंदर बुद्धि वाला होता है. उसमे तपस्या, पवित्रता, क्षमा, सरलता, लोभ रहित, सत्यवादिता इत्यादि दैवी गुण होते हैं. यह पुरुष उत्तम गुणों से युक्त सरस और कोमल होता है.
रजःखेटोदये विज्ञो रजोगुणसमन्वितः ।
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाऽप्यपलायनम् ।
साधूनां रक्षणं चेति गुणा ज्ञेया रजोऽधिके ॥ ६॥
रजो गुणी ग्रहों और नक्षत्रों के प्रभाव में उत्पन्न जातक रजोगुण की प्रबलता से युक्त घोर तृष्णा के कारण सतत संसारिकता में रहते हुए कर्मशील होता है. इस जातक में आसक्ति, शूरता, तेजस्विता, चतुरता, युद्ध में पीछे न हटने वाला, सत्व मिश्रित रजोगुण होने पर साधुओं की रक्षा करने वाले गुण होते हैं.
तमःखेटोदये मूर्खो भवेज्जातस्तमोऽधिकः ॥ २॥
लोभश्चासत्यवादित्वं जाड्यमालस्यमेव च ।
सेवाकर्मपटुत्वंच गुणा एते तमोऽधिके ॥ ७॥
तमोगुणी ग्रहों के प्रभाव में उत्पन्न जातक विवेकशून्य, लोभी, झूठ बोलने वाला, मूर्ख, आलसी और सेवा कार्य में चतुर होता है. जन्म काल में जिस गुण का प्राबल्य रहता है वही गुण जातक में प्राप्त होता है. अत: जन्म कुंडली की सम्यक परीक्षा करके ही फलादेश करना चाहिए. जन्म के बाद मनुष्य के गुणों पर वाह्य प्रभाव भी पड़ता है अर्थात देश-काल, संसर्ग इत्यादि जिससे उनमे किंचित परिवर्तन देखा जाता है. तुलसीदास कहते हैं –
ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग।।
इस पृथ्वी पर जल, वायु, वस्त्र, औषधि, ग्रह इन सब पर संगत कुसंगत का प्रभाव पड़ता है. यह सारे पदार्थ भी कुसंगति से बुरे और अच्छी संगति से भले हो जाते हैं.

एक अच्छा व्यक्ति भी देश-काल और संसर्ग से बुरा व्यक्ति हो जाता है क्योंकि किसी देश-काल में फासिज्म जैसे किसी घोर राजनीतिक प्रभाव में मिथ्यात्व, झूठ, वैमनस्य इत्यादि के कारण उसके व्यक्तिगत शुभ ग्रहों का प्रभाव दब जाता है और कलेक्टिव चेतना में अशुभ-क्रूर ग्रहों के प्रभाव में वह तदनुसार बर्ताव करने लगता है. किसी किसी काल खंड में समष्टिगत प्रभाव, व्यष्टिगत प्रभाव को निरस्त कर देता है. इसे भी किसी देश की जनता के शुभाशुभ कर्मों से निर्मित कलेक्टिव चेतना के प्रभाव के अनुसार बखूबी व्याख्यायित किया जा सकता है. यदि किसी काल में किसी देश का अध:पतन होता है या वह गुलाम बनता है या वह दासता पसंद करने लगता है और स्वतन्त्रता का विरोधी हो जाता है तो उस देश में तमोगुण का प्राबल्य कहा जायेगा. तमोगुण के प्रबल होने पर अज्ञानता और अधर्म की वृद्धि होती है जो विनाश का कारण बनती है.