भारत के इतिहास में यह सर्वविदित है कि जगदगुरु आद्य शंकराचार्य ने अपने अद्वैत दर्शन से सनातन वैदिक धर्म की पुनः स्थापना की थी और उनके बाद भी अनेक वेदांत के दिग्गज आचार्य हुए जिन्होंने हिन्दू धर्म को अपने ज्ञान से संवारा और इसकी रक्षा की थी. उन्होंने जिस सन्यास और ज्ञान मार्ग की स्थापना की थी अब उसपर चलने वाले वर्तमान शंकराचार्य भी नहीं हैं. ऐसा नहीं है कि वे चाहते नहीं होंगे कि अद्वैत दर्शन और ज्ञान की परम्परा को आगे बढ़ाया जाय और जनता का पथप्रदर्शन किया जाय जिसमें पुराण की तरह कोई विकृति और मानसिक व्यभिचार नहीं है. लेकिन वो यह कर नहीं पा रहे हैं. इसकी कई वजहें है लेकिन प्रमुख वजह है मनोरंजन और धन.
आश्रम चलाने के लिए तथा कुछ मठ का काम आगे बढ़ाने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है. अद्वैत वेदांत के प्रवचन से पैसे नहीं मिलेंगे या मिलेंगे भी तो उसे दिग्गज प्रवक्ता होना चाहिए. विवेकानंद ने पुराण और रामायण का सहारा नहीं लिया और काफी रेशनल पश्चिमी जगत के लोगों को वेदांत पर प्रवचन दिया और काफी धन ले आये. यदि वेदांत का नीरस प्रवक्ता होगा तो कोई आयोजक ही नहीं मिलेगा और कोई इसे सुनना भी नहीं चाहता. आयोजक ज्यादातर बनिया होते हैं, उसको मनोरंजन चाहिए और भीड़ चाहिए. अब बनिया सिर्फ बनिया नहीं हैं, वह घोर राजनीतिक भी है और एक हिंदुत्व फासिस्ट पार्टी से जुड़ा हुआ है तो उसे ऐसा प्रवचन करने वाला चाहिए जो व्यास पीठ से पार्टी का प्रचार भी करे. उसकी रिक्वायरमेंट्स दो है – पहला भीड़ खींचने वाला, दूसरा उसका राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध करने वाला. इस कोटि में रामभद्राचार्य, देवकीनंदन ठाकुर, मोरारी बापू, आशाराम ऐसे ही कथावाचक हैं. बनिया ज्यादातर अपना काला धन इन्हें ही फंड करता है, मोरारी इत्यादि बहुत धनवान हैं. दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि पुराण सुनने वालों में ज्यादातर पुरुष- महिलाएं निपढ ही होते हैं तो उनको कथा वही चाहिए जिसमे कुछ मजा मिले, कुछ मनोरंजन हो अथवा पौराणिक कुछ उपाय बताये जिससे घर में बरक्कत हो, रुपया पैसा आये. वर्तमान में कथा एक पूर्ण मनोरंजन है, यहाँ संगीत की धुन पर महिलाएं कमर डोला कर नाचती हैं और भागवती ताल ठोकता है. यहाँ ज्ञान का कोई काम नहीं है और किसी सांसारिक को ज्ञान अथवा मुक्ति चाहिए भी नहीं.
उपरोक्त दोनों ही बातें हैं, जिसके कारण ज्यादातर शंकराचार्य पुराण वाचन करने को बाध्य हैं. अब शंकराचार्य कोई विमर्श नहीं करते, पुराण पर कुछ टीका टिप्पणी लिखते रहते हैं और जीवन बीत जाता है. चार मठों में पीठ पर विराजमान शंकराचार्य वेदांतअध्ययन करके ट्रेंड हुए हैं जिसमें तर्क-वितर्क की प्रमुखता रहती है, उन्होंने क्लासिकल संगीत नहीं सीखा क्योंकि यह सन्यास धर्म के खिलाफ है, तो उनका भागवत प्रवचन नीरस रहता है. कुछ अद्वैत वेदांती जैसे करपात्री जी, अखंडानन्द, मधुसूदन सरस्वती इत्यादि भी काफी अच्छे पुराण प्रवचनकर्ता हुए थे. इन वेदान्तियों ने जब अपनी प्रगल्भ वाणी और वेदांत की विद्वता का भागवत, अन्यान्य पुराणों और भक्त कवियों की कविताओं से सम्पुट किया तो श्रोताओं के चित्त पर कुछ चमत्कारिक प्रभाव पैदा किया. यह वाग्विलास भी कोई कम मनोरंजक नहीं है. इन वेदांत प्रवचनकर्ताओं के ज्यादातर श्रोता पढ़े लिखे लोग ही होते थे. यदपि के वे बहुत विद्वान् थे फिर भी मैं उन्हें परवर्ट मानता हूँ और उनकी चेतना का पतन ही मानता हूँ. प्रवचन एक कला है और यह भागवत में भी लिखा हुआ है. भागवत कथा सात्विक, राजसिक, तामसिक तीन प्रकार की बताई गई है. ज्यादातर राजसिक-तामसिक मिश्र कथा करने वाले हैं जो बहुत सांसारिक हैं, मायावी हैं और धन अर्जन के लिए कथा करते हैं. सात्विक कथा मधुसूदन सरस्वती इत्यादि विद्वान करते थे लेकिन उनमें भी राजसिक वृत्ति का समावेश था. श्रोताओं की कोटि भी भागवत माहात्म्य खंड में भागवतियों ने बताये हैं, जिनमें कलियुग के गहरे प्रभाव में चातक, हंस आदि कोटि के श्रोता तो कम ही हैं, ज्यादातर श्रोता बैल, ऊंट या गर्दभ कोटि के ही होते हैं, इसलिए इनके कथावाचक भी वैसे ही भौंडे होते हैं. आजकल जो शंकराचार्य हैं, उन लोगों के प्रवचन में पुराण प्रवचन के दो महत्वपूर्ण तत्व- रसिकता और परवर्जन का आभाव है.
कथा में चित्त विकृत होता है क्योंकि कथा एक इमेज है, जो फिल्म की रील की तरह चलती है. कथावाचक प्रोजेक्टर है जो इमेज को प्रोजेक्ट करता है और दर्शक उसको देखता है, यह फिल्म की रील दोनों में ही साथ साथ चल रही होती है. अब इस स्क्रिप्ट को अच्छी फिल्म में तब्दील करने के लिए डायरेक्टर को परवर्ट होना ही पड़ेगा. जब तक वो विकृति नहीं लायेगा तब तक स्क्रिप्ट में रंग नहीं आएगा. उदाहरण के लिए बलात्कार का सीन है, यदि इसमें रंग भरना है तो कुछ विशेष करना पड़ेगा. अनेक फिल्मों में डायरेक्टरों ने बलात्कार के सीन को क्लासिक बना दिया है. 
सिद्धांतत: बिना विकृति के कला नहीं होती. कला मूलभूत रूप से एक विकृति है. पुराण वाचक एक कलाकार होता है, वह एंटरटेन्मेंट करता है और उसके भीतर कथा के कारण एक विकृति होती है(परवर्जन). जितना परवर्ट कथा वाचक, उतनी ही भीड़, क्योंकि भीड़ के ऊपर यह परवर्जन ही काम करता है.
 सिनेमा की हिरोइन परवर्ट होती है, उसका परवर्जन ही जनता पर काम करता है. इसको इस तरह समझें- वेदांती एक गृहणी की तरह है और पुराणवादी एक कोठे की नर्तकी की तरह है. भारत के सभी राजा कोठे में बर्बाद हो गये, उसी तरह जनता पुराण कथा से परवर्ट होकर परलोक से च्यूत हो गई. पुराण वाचकों में ज्ञान का भी सर्वथा आभाव रहता है लेकिन उनमें रंडियों की तरह रसिकता है, सुरीली आवाज में गाते हैं और अच्छा बोलते हैं. आजकल तो गधे भी बहुत अच्छा बोलते हैं तो ज्ञानी समझे जाते हैं. 

