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श्री वल्लभाचार्य का भारतीय दार्शनिक चिंतन में महत्वपूर्ण योगदान है. उन्होंने मध्ययुग में अपने शुद्धाद्वैत का डंका पीटा और पुष्टिमार्ग नाम से नये वैष्णव सम्प्रदाय की स्थापना की थी. उन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया और जगह जगह भागवत तथा वाल्मीकि रामायण का प्रवचन किया था. उनके प्रवचन में अद्भुत विद्वता झलकती थी जिसे सुनने बड़े बड़े प्रतिष्ठित विद्वान् आते थे. कभी नैमिषारण्य में उन्होंने भागवत का सप्ताह परायण किया, उस समय भागवत के एक इस श्लोक का –
नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं
न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।
कुत: पुन: शश्वदभद्रमीश्वरे
न चार्पितं कर्म यदप्यकारणम् ॥
तीन प्रहर प्रवचन कर बड़े बड़े दिग्गज विद्वानों को हतप्रभ कर दिया था. उनके प्रवचनों के 84 स्थल सम्प्रदाय में अभी भी मौजूद है और सभी स्थलों पर शमी वृक्ष पहचान स्वरूप है. शमी वृक्षं की आयु सैकड़ों साल होती है. एक रोचक तथ्य यह है कि बल्लभाचार्य अक्सर शमी वृक्ष के नीचे बैठ कर ही प्रवचन करते थे. उनका जन्म शमी वृक्ष के नीचे हुआ था और उनका जन्म नक्षत्र भी धनिष्ठा है. यह शनि का वृक्ष है और धनिष्ठा नक्षत्र का भी वृक्ष शमी ही माना गया है. ऐसा माना जाता है कि शमी से ही यज्ञ काष्ठ और अग्नि का उद्भव हुआ था. खैर बल्लभाचार्य की अनेक कहानियाँ प्रसिद्ध हैं. उनकी यह कहानी वर्तमान इंटरनेट ज्योतिषियों के लिए शिक्षाप्रद है.

एक बार वल्लभाचार्य तमिलनाडु में ताम्रपर्णी नदी के तट पर जिसे तामिरबरणी भी कहते हैं, शमी वृक्ष के नीचे भागवत सप्ताह कर रहे थे. वहां के राजा अपनी मृत्यु के निवारणार्थ स्वर्ण-पुरुष का तुला दान करना चाहते थे. उन्होंने अनेक ब्राह्मणों को तुला दान के लिए बुलाया लेकिन कोई ब्राह्मण नहीं गया. सबको यह पता था कि ऐसे दान ग्रहण करने से मृत्यु की सम्भावना रहती है. जब कोई भी ब्राह्मण प्रतिग्रह लेने के लिए तैयार नहीं हुआ तब राजा वल्लभाचार्य का नाम सुन उस स्थान पर आया. आचार्य को प्रणाम कर उसने तुला दान लेने की प्रार्थना की . वल्लभाचार्य ने वहां के ब्राह्मणों की लाज रखने के लिए प्रतिग्रह लेना स्वीकार किया.

जब स्वर्ण पुरुष का तुला दान हो रहा था, तब स्वर्णपुरुष ने आचार्य के सामने एक ऊँगली उठाई, जिसका उत्तर उन्होंने तीन ऊँगली दिखा कर दिया. तुलापुरुष यह देख कर हतप्रभ रह गया. जब तुला दान सम्पन्न हो गया, तब राजा ने पूछा आप तीन ऊँगली किसे दिखाते थे? वल्लभाचार्य ने कहा- राजन, तुला पुरुष ने यह जानना चाहा कि मैं एक बार भी संध्योपासन करता हूँ या नहीं ? मैंने उसे बताया कि त्रिकाल संध्योपासन करता हूँ और यह सामान्य संध्योपासन नहीं होता. उन्होंने स्वर्ण पुरुष के खंड खंड करवाए और वहीं ब्राह्मणों में वितरित कर दिया. उन्होंने कहा “जो ब्राह्मण एक बार भी विधिपूर्व वैदिक संध्योपासन नहीं करता, उसमें प्रतिग्रह की सामर्थ्य नहीं होती, उसे उसका फल भोगना पड़ता है.” उन्होंने राजा को भी फटकार लगाते हुए कहा – राजन ! इस तरह का क्रूर दान देकर तुम्हे ब्राह्मणों को कष्ट नहीं देना चाहिए. जो ब्राह्मण इस दान को लेता उसकी निश्चय ही मृत्यु हो जाती”

कथा यह कहती है कि दान वही ब्राह्मण पचा सकता है जिसमे थोडा तप का बल हो अन्यथा दान लेने वाला सदैव पीड़ित रहेगा और उसकी कभी उन्नति नहीं हो सकती.