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शुद्ध सत्वमय कथा में अनुराग भी भक्ति का लक्षण कहा गया है. श्रीमद्भागवत के माहात्म्य में कहा गया है- जब श्री शुकदेव जी परीक्षित को कथा सुनाने लगे तब देवता लोग आये। देवताओं ने कहा- ‘‘आप हम से अमृत ले लीजिये, राजा परीक्षित को पिला दीजिये। राजा परीक्षित अमर हो जायेंगे। यह कथासुधा हम को पिला दीजिये।’’

श्री शुकदेव जी ने कहा- ‘‘कहाँ कथा कहाँ सुधा? कहाँ मणि कहाँ काँच? मणि का मुकाबला काँच कर सकता है क्या? कथा का मुकाबला सुधा कर सकती है क्या?’’ अतः अनधिकारी समझकर देवताओं को कथामृत नहीं प्रदान किया, सुधा को ठुकरा दिया। ऐसा है सुरदुर्लभ यह श्रीमद्भागवत।

एवं विनिमये जाते सुधा राज्ञा प्रतीयताम् ।
प्रपास्यामो वयं सर्वे श्रीमद्भागवतामृतम् ।।
क्व सुधा क्व कथा लोके क्व काचः क्व मणिर्महान् ।
ब्रह्मरातो विचार्यैवं तदा देवांजहास ह ।।
अभक्तांस्ताश्च विज्ञाय न ददौ स कथामृतम् ।
श्रीमद्भागवती वार्ता सुराणामपि दुर्लभा ।।

भक्तों के हृदय में भगवान कैसे प्रवेश करते हैं, कहाँ से आते हैं?’ इस पर कहते हैं- ‘प्रविष्टः कर्णरन्ध्रेण’ कर्णरन्ध्र से ही सर्वान्तरात्मा सर्वेश्वर सर्वशक्ति सम्पन्न भगवान भक्तों के हृदय में प्रवेश करते है. स्वर्ग में देवताओं के पास अमृत तो है पर कथा रूपी अमृत नहीं है. महर्षि वेदव्यास ब्रह्मज्ञानी थे, तीनों लोकों में उनकी भगवान् की तरह पूजा होती थी. वेदों का विभाग करने, वेदांत ग्रन्थों कर भाष्य करने, महाभारत इत्यादि लिखने के बाद भी उन्हें अनुभव होता था कि किंचित कुछ न कुछ कमी रह गई है, मन को शांति नहीं मिलती. वेदव्यास को निर्विकल्प, निर्बीज समाधि से शांति नहीं हुई ? यह वैष्णव पुराणवाद में एक नई बात है. नारद के कहने पर उन्होंने आनंद की प्राप्ति के लिए भागवत पुराण लिखा. यह लेखन उनके लिए एक शांति कर्म की तरह ही था.

तो वैष्णव वेदान्तियों ने शांति कहाँ पाई ? कृष्ण कथा में, कथा के रोमांस में ! इसलिए भागवत पुराण का निकष इसका दशम स्कन्ध है. ईश्वर कृष्ण की राजनीतिक की कथा या युद्ध की कथा में उतना रस नहीं है. उसको सुनकर मन बहुत आह्लादित नहीं होता, चित्त में आनंद का स्रोत नहीं जगता. ईश्वर की जागतिक बाल्य लीला में सांसारिक लोग ज्यादा आनंदित होते हैं क्योंकि सबके कृष्ण कन्हैया पैदा होते हैं. दूसरा सबसे प्रमुख आनंद का स्रोत नैसर्गिक काम है या प्रेम है. मनुष्य इसे भगवान की प्रेम कथा में आरोपित करता है, इसलिए वह इसको सुनकर ज्यादा आनन्दित होता है. वेदव्यास का रस में डूबाने का एस्थेटिक का वादा, रास पंचाध्यायी में ही पूर्ण होता है. रास पंचाध्यायी नैसर्गिक आनंद की ही एक साहित्यिक कवित्वमय व्याख्या है जिसका आध्यात्मिकीकरण किया गया है. यह आनंद की प्राप्ति ही मूलभूत रूप से प्रयोजन है.

भागवत पुराण को वैष्णव वेदान्तियों का एस्थेटिक टर्न(aesthetic turn) कह सकते हैं. भागवत के प्रारम्भ में वेदव्यास यही वादा करते हैं कि यह ग्रन्थ श्रोताओं और पाठकों को रससिक्त कर देगा, आनन्द में डूबा देगा.

रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति।