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 मत्स्य पुराण की एक कथा के अनुसार किसी काल में पितरों ने ‘आच्छोद’ नामक एक सरोवर का निर्माण किया था. देवताओं के पितरों की एक मानसी कन्या थी, जिसका नाम था ‘अच्छोदा’. अच्छोदा ने एक बार एक सहस्त्र दिव्य वर्षों तक कठिन तप किया. तप से प्रसन्न होकर उसे वर देने के लिए पितरगण पधारे. उनमें से ‘अमावसु’ नामक पितर को देखकर ‘अच्छोदा’ उन पर अनुरक्त हो गई और अमावसु से प्रणय याचना करने लगी. किंतु अमावसु इसके लिए तैयार नहीं हुए और इंकार कर दिया. अमावसु के धैर्य के कारण उस दिन की तिथि पितरों को अतिशय प्रिय हुई. उस दिन कृष्ण पक्ष की पंचदशी तिथि थी, जो ‘अमावसु’ के नाम पर ‘अमावस्या’ कहलाने लगी.

अमावस्या के स्वामी ‘पितर’ हैं. इस तिथि में चंद्रमा की सोलहवीं अमा कला जल में प्रविष्ट हो जाती है. चंद्रमा का वास अमावस्या के दिन औषधियों में रहता है, अत: जल और औषधियों में प्रविष्ट उस अमृत का ग्रहण गाय, बैल, भैंस आदि पशुचारे एवं पानी के द्वारा करते हैं. वही अमृत मनुष्यों को दूध, घी आदि के रूप में प्राप्त होता है. इसी घृत की आहुति ऋषिगण यज्ञ के माध्यम से पुन: चंद्रादि देवताओं तक पहुंचाते हैं. वही अमृत एक एक कला बढ़ते हुए पूर्णिमा तक पहुंचाता है जिसका पान देवगण करते हैं. इस कारण अमावस्या के दिन सरोवर या नदी में स्नान बताया गया है. यदपि कि यह वैज्ञानिक रूप से असंगत लगता है लेकिन यह एक प्राचीन रहस्य है जिसे विज्ञान नहीं जान सकता है.

पितृपूजा प्राचीन काल से चली आ रही है, यह सबसे प्राचीन धर्म है. जब कोई धर्म नहीं था तब भी पितृपूजा थी. वैदिक काल में पितृपूजा की प्रधानता थी जिसे उत्तर वैदिक काल में ज्ञान मार्ग के प्रवर्तन के बाद हेय बताया गया. भगवद्गीता में पितृपूजा को हेय बताया गया है. पितरो की पूजा करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं ऐसा कह कर श्री कृष्ण ने इसे प्रेतपूजा की कोटि में ही माना है. पितृपूजा को ज्यादा महत्व अज्ञानी पुजारी और कथावाचक देते हैं जिनके लिए यह जीवन ही अंतिम सत्य है. धर्म के गढ़ में, आश्रमों में, बाबाओ और कथाकारों का जो लावलश्कर है, उससे लगता है कि वे मुक्ति इत्यादि को नहीं मानते, इसी जीवन में भोग को अंतिम सत्य मानते हैं. इसके लिए वे धर्म के द्वारा ही जनता को बरगलाते हैं और असत्य, अधर्म और अज्ञानता का विस्तार करते हैं. जिसके भीतर धर्म जिज्ञासा हो, मुक्ति की कामना हो उसे भला कुछ और कैसे दिखाई पड़ सकता है ? भागवत पुराण के प्रथम कथा वाचक कौपीन पहनते थे. यह पुजारी वर्ग जो पांच पांच छह छह बच्चे पैदा करता है वह पितृपूजा करता है. बाबा मरने के बाद अपनी समाधि बना कर पितृपूजा को मजबूत कर अज्ञानता की वृद्धि करते हैं. पितृ पूजा वस्तुत: अज्ञानता ही है क्योंकि आत्मा का न जन्म होता है, न मृत्यु होती है. .