Spread the love

भारतीय ज्योतिष शास्त्र भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा का प्रमुख अंग है. अथर्ववेद के अन्तर्गत आयुर्वेद में भी ज्योतिष एवं रत्नों के विषय में काफी प्रकाश डाला गया है. मानव शरीर में पंचतत्त्व से बना है जो सात ग्रहों से निर्मित होता है. इन सात ग्रहों की सात प्रकार की रश्मियाँ होती हैं इसलिए पंचतत्व के अलावा सात रंगों का भी समावेश है. सभी अन्न, औषधियां और मिनरल्स ग्रहों की उत्पत्ति होते हैं और उनसे सम्बन्धित होते हैं. प्राकृतिक बैलेंश के लिए रंगों को भी भोजन में महत्व देना चाहिए. यदि सात ग्रहों के रंगों में से किसी भी रंग की कमी हो जाती है, तो उससे सम्बन्धित तत्त्व के क्षय से तत्सम्बन्धी रोग हो जाता है. इसका पता हमें जातक की जन्मपत्रिका देखकर चलता है. जन्मपत्रिका में यदि योगकारक ग्रह पीड़ित अथवा अस्त हो, तो वह अपना निर्धारित शुभ फल देने से वंचित हो जाता है. ऐसे में हम उसके रत्न द्वारा शरीर में रश्मियाँ (Radiation) प्रदान कर उस ग्रह से सम्बन्धित तत्त्व को बल प्रदान कर सकते हैं. वर्तमान युग में डाईटीशियनों नें रंगीन भोजन पर काफी जोर दिया है. ऐसा इसलिए है क्योंकि पौधों के खाद्य पदार्थों में कैरोटीनॉयड और फ्लेवोनोइड सहित फाइटोन्यूट्रिएंट्स नामक हजारों प्राकृतिक यौगिक होते हैं, जिनमें रोगों को रोकने की क्षमता होती है. अलग-अलग रंग की शब्जियाँ अलग-अलग फायदे लेकर आती हैं. ब्लूबेरी सहित नीले और बैंगनी खाद्य पदार्थों में पादप वर्णक एंथोसायनिन की उच्च मात्रा होती है, जो हृदय रोग और टाइप दो मधुमेह के जोखिम को कम करता है. फ्लेवोन्स, जो खाद्य पदार्थों को पीला रंग देते हैं, हृदय रोग के खतरे को कम कर सकते हैं. रंग-बिरंगे पौधों में प्राण, हमारी जीवन शक्ति और स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक ऊर्जा होती है. यह एक कारण है कि फलों और सब्जियों के अलग-अलग, जीवंत रंग होते हैं. इनमें फाइटोन्यूट्रिएंट्स होते हैं, जो उन्हें रंग, स्वाद और सुगंध देते हैं. ये फाइटोन्यूट्रिएंट्स पौधों की प्रतिरक्षा प्रणाली को भी मजबूत करते हैं, उनके पर्यावरण और संभावित बीमारियों से बचाते हैं. फाइटोन्यूट्रिएंट्स पुरानी बीमारियों जैसे कैंसर, हृदय रोग, दृष्टि हानि आदि से बचाते हैं. ये रंग राधियों, ग्रहों और नक्षत्रों की उत्पत्ति होते हैं इसलिए इनकी प्राप्ति ग्रहों के रत्नों से भी की जा सकती है.

एक कथा के अनुसार प्राचीन काल में एक राजा हुए, जो लगभग नपुंसक थे. अपनी नुपंसकता के कारण वे अत्यंत दुखी थे. काफी दवा कराई लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. अंत में किसी पंडित से परामर्श लिया जिसने उन्हें नीलम धारण करने का सुझाव दिया. राजा ने शुभ दिन, शुभ समय देखकर नीलम धारण किया. कुछ ही दिनों में वे नपुंसकता से छुटकारा पा गए. नीलम के संदर्भ में यह लोकप्रिय है, इसलिए आज भी लोग नपुंसकता, वायु विकार, गुदा या योनि के अनेकानेक रोगों में इसका उपयोग करके लाभ उठाते हैं. आधुनिक काल में भी ऐसी एक घटना प्रसिद्ध है. रानी एलिजाबेथ ने रायल एक्सचेंज में सर थामस ग्रेशम से मुलाकात की. इस अवसर पर थामस ग्रेशम की स्वास्थ्य कामना के लिए उनके शराब के प्याले में 15000 पाउंड मूल्य का मोती पीसकर डाला गया था. इससे रत्न चिकित्सा का उपयोग और इसकी प्रमाणिकता का पता चलता है. आज भी तुर्क जाति के लोग अपने हुक्के की नली के अगले हिस्से में अंबर लगाते हैं, ताकि इससे रोग फैलाने वाले किटाणु तंग न करें. जर्मनवासी अपने शिशुओं के गले में अंबर की मणिमाला बांधते हैं. इससे दांत निकलते समय बच्चों को कष्ट नहीं होता. एक पश्चिम के रत्न चिकित्सा के विशेषज्ञ सरप्लेट ने लिखा है कि मूंगा पहनने वाला व्यक्ति जब बीमार होने वाला होता है तब मूंगे का रंग फीका पड़ जाता है तथा उसके निरोग हो जाने पर वह फिर अपने स्वाभाविक रंग में आ जाता है.

आयुर्वेद शास्त्रानुसार गुण: माणिक्य कटु होने से कफशामक होता है, मोती कषाय रसात्मक होने से पित्त और कफ दोनों को शांत करता है. प्रवाल तिक्त होने से पित्त और कफ दोनों का शमन करता है. पन्ना छहों स्वाद युक्त होने से वात, पित्त, कफ तीनों का शामक है. श्वेत पुखराज मधुर होता है, इसलिए वात और पित्त को शांत करता है. हीरा अम्लीय होने से वात शामक है. नीलम लवण रसात्मक होने से वात शामक है.

रत्नों की किरणों के गुण धर्म: ज्योतिष शास्त्र के अनुसार वातनाड़ी संस्थान का अधिपति शनैश्चर है. वही नाड़ियों की क्रिया को अधिकार में रखता है. मज्जा धातु का अधिपति मंगल है। वह पित्त और ऋणात्मक शक्तियुक्त है. ज्योतिष शास्त्र में रस और रक्त संस्थान में विभेद नहीं माना गया है. उन दोनों के ऊपर चंद्र का अधिकार है जो धनात्मक शक्ति युक्त और शीतल गुण धर्म युक्त है. विविध रंग प्रधान रत्न किरणों का रक्त, मांस आदि संस्थानों पर भिन्न भिन्न प्रभाव पड़ता है. जैसे रस-रक्त संस्थान नारंगी रंग के अधिकार में है.

मांस संस्थान पर हरे रंग की किरणों का अधिकार है. मेद संस्थान और सब ग्रंथियों पर आसमानी रंग प्रधान किरणों का अधिकार है. अस्थि संस्थान पर रक्त वर्ण की किरणों का आधिपत्य है।.मज्जा पीत वर्ण की किरणों से तथा वात संस्थान बैंगनी किरणों से पुष्ट होते हैं. शुक्र संस्थान नील वर्ण की किरणों से पुष्ट होता है. इस विवेचन से निम्नलिखित निष्कर्ष निकलता है. बैंगनी वर्ण का ह्रास होने पर वात नाड़ियां पीड़ित होती हैं. नील वर्ण की न्यूनता होने से शुक्र विकृत होता है. आसमानी वर्ण की कमी होने से ग्रंथियां शिथिल हो जाती हैं. हरे रंग की न्यूनता होने से मांस संस्थान प्रभावित होता है.

पीत वर्ण की न्यूनता होने पर मज्जा धातु दूषित होती है. नारंगी रंग के कम होने पर रक्त में विकृति आती है. रक्त वर्ण के ह्रास होने से अस्थि संस्थान में विकार उत्पन्न होता है. सूर्य के ताप, विविध भोजन, पेय, विशुद्ध वायु आदि से जीवों को नियमित वर्ण प्राप्त होते हैं, किंतु जब नौसर्गिक रोग निरोधक शक्ति निर्बल हो जाए या कीटाणु या विष का देह में प्रवेश हो जाए, तब जीवों की उन वर्णों की किरणों की ग्रहण शक्ति शिथिल हो जाती है.

ऐसी परिस्थिति में रत्न अथवा अन्य औषधि, रोग शामक अथवा आहार विहार द्वारा रोग निवारण और स्वास्थ्य संरक्षण कर लेना चाहिए. आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा पद्धति में रत्नों का उपयोग पिष्टी और भस्म के रूप में होता है. रत्नों के भस्म की परम्परा बहुत पुरानी है. लेकिन इससे रत्नों का नाश होता है जबकि ज्योतिष शास्त्र में रत्नों के धारण करने से रोग निवारण और स्वास्थ्य रक्षा की बात कही गई है जिससे रत्न नष्ट नहीं होते. रत्नों से रोग निवारण और स्वास्थ्य रक्षा की एक और विधि है जो होमियोपैथी में काम आती है. इसके इतर नक्षत्रों के वृक्ष और औषधियां भी लाभकारी होती हैं. यदि इन औषधियों का सेवन किया जाय, उनसे स्नान किया जाय तो उससे ग्रह दोष दूर होते हैं.