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श्रीमदभागवत आदि सभी पुराणों में वेदों के अनुसार ही बारह आदित्यों के रूप में स्वयं भगवान विष्णु की स्थिति बताई गई है. भगवान ही अपने वेदमय विग्रह काल को बारह मासों में विभक्त वसंतादि छह ऋतुओं का विभाग करते हैं. पृथ्वी और द्यौ लोक के मध्य कालचक्र के भीतर स्थित होकर सूर्य देव बारह मासों को भोगते हैं जो सम्वत्सर का अवयव हैं. बारह आदित्य भगवान के कालचक्र का हिस्सा हैं, इन्ही के द्वारा भगवान सृष्टि , स्थिति और संहार करते हैं. सूर्य देव समय हैं, काल के नियामक हैं. सूर्य रूप नारायण का माया उपाधि के कारण देश, काल, क्रिया, कर्ता, करण , योगादि, वेदमन्त्र, द्रव्य और व्रीहि आदि फल रूप में नौ प्रकार का वर्णन किया गया है. संसारिक कर्म भगवान की इच्छानुसार धर्मानुकुल चलता रहे इसलिए सूर्य देव बारह महीनों में अपने गणों के साथ बारह राशियों में भ्रमण करते हैं. इनके साथ हर महीने में अलग अलग ऋषिगण, अप्सराएँ, गन्धर्व, यक्ष, नाग, राक्षस चलते हैं. ऋषि वैदिक ऋचाओं का गायन करते चलते हैं, अप्सराये नृत्य करती चलती हैं, गन्धर्व गायन करते हैं, यक्ष रथ की सजसज्जा करते हैं, नाग उसे बांधे रखते हैं, राक्षस रथ को धकेलते हुए चलते हैं और बालखिल्य ऋषि आगे आगे उनकी स्तुति करते चलते हैं. भगवान सूर्य लोक संरक्षक, लोक यात्रा के पालक, सबके प्राण स्वरूप हैं ‘आदित्यो वै प्राण:’, साधकों के मार्गदर्शक हैं. भागवत महापुराण के अनुसार भगवान सूर्य का रथ छत्तीस लाख योजन लम्बा और नौ लाख योजन चौड़ा है. इसका जुआ छत्तीस लाख योजन लम्बा है, उसमे अरुण नामक सारथि ने गायत्री, बृहती आदि छंदों के सात घोड़े जोत रखे हैं, वे ही भगवान सूर्य के रथ ले कर चलते हैं. सूर्य देव के आगे उन्ही की ओर मुंह करके अरुण बैठे रहते हैं.

भगवान सूर्य के आगे अंगूठे के पोर के बराबर आकार वाले वालखिल्यादि साठ हजार ऋषि स्वस्तिवाचन करते हुए चलते हैं इसके अतिरिक्त ऋषि, गन्धर्व, अप्सरा आदि चौदह हैं किन्तु जोड़े में रहने के कारण सात गण कहे जाते हैं -प्रत्येक महीने में भिन्न भिन्न नाम और कर्मों से प्रत्येक मास में भिन्न भिन्न नाम धारण करने वाले आत्म स्वरूप भगवान की उपासना करते हैं. प्रत्येक महीनों के आदित्य और उनके गणों के नाम निम्नलिखित हैं-

यह एक सूक्ष्म विभाजन है. मार्गशीर्ष मास (अग्रहायण) को लें, भगवान ने महीनों में मार्गशीर्ष को अपना स्वरूप बताया और ऋतुओं में वसंत को अपना स्वरूप कहा- मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः. मार्गशीर्ष का शुभत्व इस बात में निहित है कि यह सूर्य यहाँ से उत्तरायण की तरफ मुड़ता है. इस महीने के शासक आदित्य अंशुमान, ऋषि कश्यप, यक्ष- ताक्षर्य, गन्धर्व ऋतसेन, अप्सरा उर्वशी, राक्षस विद्युछत्र और सर्प महाशंख हैं अर्थात इन महीनों में पृथ्वी पर इनका अधिपत्य होता है. जिन बारह नागदेवताओं का वर्णन है वे उक्त महीनों में ही दिख सकते हैं. इस संयोजन से स्पष्ट है कि वैदिक काल में सूर्य धर्म के केंद्र में थे. द्वादश आदित्यों के इस स्वरूप के अनुसार यदि चिन्तन करें तो सूर्य का गोचर ही जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण मान्य है. कोई ऐसा ग्रह नहीं जिसके गोचर से ऋतुएं बदल जाती हों, सम्पूर्ण सृष्टि नया स्वरूप अख्तियार कर लेती हो ! इसकी इस बात से पुष्टि होती है कि प्रणव-गायत्री और आदित्य में एकत्व बताया गया. वेदों में सूर्य की उपासना की अनेकानेक विधियों का जिक्र है लेकिनं सबमें गायत्री द्वारा सूर्य की शक्ति सविता की उपासना की विशेषता बताई गई है. वैदिक काल से ही गायत्री प्रमुख रूप से सूर्य केन्द्रित साधना रही है इसलिए सूर्यास्त के बाद गायत्री की साधना और जप का सर्वत्र निषेध किया गया है. वेदों में सूर्य के साथ नारायण का अविच्छेद्य सम्बन्ध माना गया है. छान्दोग्योपनिषद् में सूर्य केन्द्रित अनेक गुह्य उपासनाओं का जिक्र है. वेदों में एक समय चक्षुषी विद्या प्रचलित थी जिसका आधार सूर्य देव ही थे. उपनिषदों, पुराणों, महाभारत, वाल्मीकि रामायण इत्यादि ग्रन्थों से हमे ज्ञात होता है कि पूर्व काल में सूर्य आधारित विद्याओं की साधना और आराधना विशेष रूप से प्रचलित थी. रामायण में वर्णन है कि रघुकुल के राजा राम प्रतिदिन सूर्योपासना करते थे और महल में सूर्य का भव्य मन्दिर था. प्रत्यक्ष देव के रूप में सूर्य की मान्यता अनादि काल से है.
भारतीय आध्यात्म विद्याओ के केंद्र में स्थित हैं सूर्य देव इसलिए श्रुतियों में कहा गया है “सूर्यद्वारेण ते विरजा प्रयान्ति” सूर्य ब्रह्म लोक का द्वार है.
तद यत्तत सत्यमसौ स आदित्यो य एष एतस्मिन मण्डले पुरुषो यश्चायं दक्षिणेSक्षन पुरुषस्तावेतावन्योन्यस्मिन प्रतिष्ठितौ रश्मिभिरेषोSस्मिन प्रतिष्ठित: .. इत्यादि वेद मन्त्र सूर्य को प्राणिमात्र के चक्षु में प्रतिष्ठित मानते हैं.
ज्योतिष में सूर्य को सभी योगों का आधार माना गया है, जन्म कुंडली में यदि सूर्य खराब हो तो कोई भी योग फलप्रद नहीं होता. सारावली में कहा गया है कि प्रत्येक ग्रह की दशा के फल को सूर्य भोग कराने वाला अर्थात देने वाला होता है और चन्द्रमा पोषण करने वाला होता है.
सविता दशाफलानां पाचयिता चन्द्रमा: प्रपोषयिता ।
राशिविशेषेणेन्दोरत:             फलोक्तिर्दशारम्भे ।।
वर्तमान में ज्यादातर ज्योतिष राहु-केतु-शनि चिल्लाते रहते हैं मानो सूर्य कोई ग्रह ही न हो. सूर्य न केवल आत्मकारक है बल्कि आत्मज्ञान का भी कारक है. सूर्य प्रमुख रूप से सभी प्राणियों का चक्षु कारक भी है. सूर्य के बल से प्राणों का बल होता है क्योंकि प्राणों पर सूर्य का अधिपत्य है. जिस जातक का सूर्य खराब होता है उसकी प्राण शक्ति कमजोर होती है, उसे कम उम्र में ही आंख पर चश्मा लगाना पड़ जाता है. सूर्य शक्तिशाली हो तो जातक वह भी देख पाता है जो अदृश्य है. मायावी शक्तियाँ अदृश्य होती हैं लेकिन सूर्य अच्छा हो तो इन्हें भी साक्षात् देखा जा सकता है. युद्ध भूमि में श्री राम को रावण की मायावी विद्याओं से लगातार पराजय मिल रही थी, उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. तब महर्षि अगस्त्य ने ब्रह्म मुहूर्त के बीतने के बाद सूर्योदय के क्षण में उन्हें आदित्य हृदय स्तोत्र कवच का उपदेश दिया था, जिसके प्रभाव से राम को मायावी शक्तियों को देखने की शक्ति प्राप्त हुई थी.
भगवान के नेत्र स्वरूप सूर्य हैं क्योंकि इनकी उत्पत्ति उनके नेत्रों से ही हुई है, ऋग्वेद पुरुष सूक्त के अनुसार ‘चक्षो: सूर्यो अजायत:’. वैदिक ज्ञान और विज्ञानं पर भी सूर्य का ही पूर्ण अधिकार है. ऋग्वेद के प्रथम मंडल की यह ऋचा भी इसकी पुष्टि करती है –
सूर्यो॑ दे॒वीमु॒षसं॒ रोच॑मानां॒ मर्यो॒ न योषा॑म॒भ्ये॑ति प॒श्चात्।
यत्रा॒ नरो॑ देव॒यन्तो॑ यु॒गानि॑ वितन्व॒ते प्रति॑ भ॒द्राय॑ भ॒द्रम् ॥ -ऋग्वेद-१-११५-२।
भगवान सूर्य गणित, खगोल विज्ञानं और ज्योतिष विद्या के भी आचार्य हैं. गायत्री मन्त्र में उन्हीं से प्रार्थना की गई है ‘धियो यो नः प्रचोदयात;, सूर्य देव मनुष्य की बुद्धि को ज्ञान में प्रेरित करते हैं, महर्षि पतंजलि ने स्पष्ट लिखा है, “भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात्” अर्थात ब्रह्माण्ड का ज्ञान प्राप्त करने के लिए सूर्य मंडल में मन का संयम करना चाहिए. सूर्य की कृपा बिना खगोल और ज्योतिष विद्या का ज्ञान हो ही नहीं सकता. इस तरह जो भी सारभूत, सूक्ष्म, पवित्रतम, मौलिक, आधारभूत और महान मूल्यवान है उस पर सूर्य का अधिपत्य है.
सूर्य और चन्द्र दोनों आरोग्य के कारक हैं, महर्षि वेदव्यास ने आरोग्य के लिए भगवान भाष्कर की पूजा का निर्देश दिया है “आरोग्यं भास्करादिच्छेत्”. सूर्य को प्रतिदिन अर्घ्य देना चाहिए क्योंकि सूर्य की रश्मियों में अनेक रोगों और अब तरह की विपदाओं को नष्ट करने की शक्ति होती है. सूर्य की किरणों में मनुष्य के लिए उपयोगी सब कुछ विद्यमान है. सूर्य न केवल रोगों से मुक्त करते हैं बल्कि ये दीर्घायु भी करते हैं. वेदों और संहिताओं में इस सम्बन्ध में अनेक मन्त्र प्राप्त होते हैं। ऋग्वेद के मंडल १-५०-११ में हृदय रोग को ठीक करने के लिए निम्नलिखित ऋचा से प्रार्थना की गई है –
उ॒द्यन्न॒द्य मि॑त्रमह आ॒रोह॒न्नुत्त॑रां॒ दिव॑म् । हृ॒द्रो॒गं मम॑ सूर्य हरि॒माणं॑ च
हे हितकारी तेजोमय सूर्य देव् ! आज आप उदित होते समय और नभ में ऊँचे जाते समय मेरे हृदय रोग तथा पांडुरोग को ठीक कर दीजिये .
हिन्दू धर्म ग्रन्थों के अनुसार धन और सम्पत्ति पर भी सूर्य का अधिकार माना गया है. सूर्य की उपासना करने वाले का धन क्षीण नहीं होता. मार्कण्डेय पुराण के अनुसार प्रातःकालीन सूर्य जिस मनुष्य को शय्या पर नहीं देखते, जिस घर में नित्य अग्नि और जल वर्तमान रहता है और जिस घर में प्रतिदिन सूर्य को दीप दिखाया जाता है, उस घर में लक्ष्मी का निवास होता है. आदित्य हृदय स्तोत्र में कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन सूर्य को नमस्कार करता है, वह कभी दरिद्र नहीं होता.