
ऋग्वेद का रचना काल 10000 से 12000 BC माना जाता है. कुछ के अनुसार यह 24000 BC है. वैदिक धर्म और संस्कृति के प्रारम्भिक स्वरूप को समझने के लिए ऋग्वेद का अध्ययन करना चाहिए. ऋग्वेद शक्तिशाली वैदिक मन्त्रों का घर भी है, इसी वेद में गायत्री मन्त्र का वर्णन है. भारत में प्रसिद्ध इक्ष्वाकु वंश वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु से उत्पन्न हुआ था. इक्ष्वाकु और उनके पुत्रों की कथा त्रेतायुग से पूर्व की हैं और ऋग्वेद में इनका जिक्र है. ऋग्वेद में “इक्ष्वाकुओं” करके वर्णन मिलता है अर्थात यह पूर्व ऋग्वैदिक काल में एक शक्तिशाली कबीला था. इक्ष्वाकुओं का वर्णन वैसे ही है जैसे शक्तिशाली ब्राह्मण कुलों में जमदग्नियों का वर्णन है या अत्रियों का वर्णन है. इसी इक्ष्वाकु वंश में राजा राम हुए थे. विवस्वान् (सूर्य) के पुत्र वैवस्वत मनु ने मन्वन्तर के प्रारम्भ में ही जिन पुत्रों की उत्पत्ति की थी, उनसे सूर्य और चन्द्र वंश का विस्तार हुआ. इनका जिक्र भगवद्गीता में भी कर्मयोग के उपदेश में हुआ है –
इमां विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राहा मनुरिक्ष्वाकवे.ब्रवित्৷৷
भगवान् ने कहा कि मैंने इस अविनाशी योग का उपदेश विवस्वान (सूर्य) को किया था, उन्होंने इसे मनु को बताया, तथा मनु ने इसे इक्ष्वाकु को उपदेश किया था.
वैवस्वत मनु के नौ पुत्र हुए – इक्ष्वाकु, नभग ,धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, प्रांशु, अरिष्ट, करूष और पृषध्र . वैवस्वत मनु की एक पुत्री भी हुई, पुत्री का नाम इला था. यह इला ही सुद्युम्न बन गई थी जिससे चन्द्रवंश का विस्तार हुआ इक्ष्वाकु कोसल राज्य के राजा थे. राजा इक्ष्वाकु को ही जिनको जैन लोग भगवान ऋषभदेव मानते हैं जो कि गलत है. भरत वंश में ऋषभदेव हुए लेकिन वे सन्यासी परमहंस हो गये थे इसलिए उनसे कोई वंश नहीं चला. राजा इक्ष्वाकु के राज्य की राजधानी अयोध्या थी. उनके १०० पुत्र बताए जाते हैं जिनमें ज्येष्ठ विकुक्षि था. विकुक्षि का वर्णन वाल्मीकि रामायण में आता है. इक्ष्वाकु ने पितरों को पिंडदान करने के लिए उसे खरगोश मार कर लाने के लिए भेजा था. उसने शिकार किया और भूख लगने के कारण उसने कुछ खरगोश भून कर खा लिए थे.

इक्ष्वाकु वंश में एक राजा हुआ त्रैवृण्ण. उसका एक पुत्र हुआ राजा त्र्यवरुण. इस राजा की कथा ऋग्वेद के पांचवें मंडल में आती है. त्र्यवरुण एक बार किसी जन नाम के ब्राह्मण के पुत्र ऋषि वृष के साथ रथ पर कहीं जा रहा था. उस ब्राह्मण वृष ने ही रथ के घोड़ों की वल्गा अपने हाथ में थाम रखी थी. रास्ते में रथ से एक ब्राह्मण का सिर कट गया. त्र्यवरुण ने उस ब्राह्मण को कहा कि ‘तुम हत्यारे हो’. उस ब्राह्मण ने अर्थवेद के मन्त्रों द्वारा उसे पुनर्जीवित कर दिया और राजा का त्याग कर कहीं चला गया. उस ऋषि कुमार के जाते ही राजा त्र्यवरुण की अग्नि ने साथ छोड़ दिया और उसका ताप जाता रहा. उसकी अग्नियों में डाली कोई हवि पकती नहीं थी. अत्यंत व्यथित और दुखी राजा त्र्यवरुण ने उस ब्राह्मण को पुन: खोजा और उसे मना कर वापस ले आये. उस ऋषि वृष ने राजा के घर में अग्नि ताप को उसकी रानी के भीतर पिसाची के रूप में छुपा पाया. वृष उसके विस्तर पर आसीन हुआ और उसने पूछा “कम एतं त्वं ” तुम कौन हो? वह पिसाची एक पुरुष था जिसने उसकी रानी का अधिग्रहण किया था. ऋषि वृष ने मन्त्रो का आह्वान किया जिससे अग्नि प्रकट हुई और उसके भीतर स्थित पिसाची को भस्म कर डाला.
इस प्रकार के अभिचार, मारण कर्म, पिसाच विद्या ऋग्वेद में भी प्राप्त है. मन्त्र प्रयोग ऋचाओं के रूप में ही हैं, उनका सस्वर पाठ या गायन उसी प्रकार किया जाता था जैसे तंत्र में मन्त्रों का किया जाता है.