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महाभारत में अंधभक्ति छोड़ कर पढ़ने पर ऐसा लगता कि इसमें कई अध्याय बाद में जोड़े गए हैं. पुस्तक में जहां युद्ध के दौरान ग्रहों के पारगमन (ट्रांजिट) का उल्लेख है, वहां हमें विरोधाभास मिलता है. कर्ण कहता है कि शनि रोहिणी को प्रभावित कर रहा है जो वह वृश्चिक से कर सकता है, मंगल ज्येष्ठा नक्षत्र में वृश्चिक में वक्री है अर्थात दोनों एक ही राशि में हैं. दूसरी तरफ भीष्म पर्व में वेद व्यास कन्फ्यूज हैं और अपने ही कथन का खंडन करते हैं. पहले वे श्लोक 14 में कहते हैं कि शनि पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में सिंह राशि में था और उसी वार्तालाप में श्लोक 25 में वे कहते हैं कि शनि तुला राशि में या वृश्चिक राशि में बृहस्पति के साथ विशाखा नक्षत्र में युति में था. वहाँ तक सिंह राशि से ट्रांजिट कर पहुँचने में शनि को 7 वर्ष लगेंगे जबकि यह वार्तालाप युद्ध प्रारम्भ होने के एक दो दिन पहले का है. वेदव्यास मंगल की स्थिति में भी कन्फ्यूज हैं कभी मघा में बताते हैं और उसी समय बताते हैं श्रवण नक्षत्र को दबा कर बैठ गया है. इसी दौरान वेदव्यास संजय को दिव्यदृष्टि प्रदान करते हैं जिससे अंधे राजा धृतराष्ट्र उसे लाईव देख सकें.

मुझे लगता महाभारत में शकुन वाला हिस्सा और ज्योतिष वाला हिस्सा बहुत बाद में वैष्णवों द्वारा जोड़ा गया होगा. ज्योतिष वर्णन के प्रसंग से यह भी स्पष्ट होता है कि उस दौर तक सम्भवत: ज्योतिष उन्नत नहीं रहा होगा. इतना ही सामान्य ज्ञान रहा होगा कि शनि-राहु-मंगल और धूमकेतु उपद्रव करते हैं. महाभारत में केतु का वर्णन धूमकेतु के रूप में किया गया है न कि आधुनिक ज्योतिष के केतु के रूप में है. एक ही समय में केतु कर्क राशि में बताया गया है और दूसरी जगह राहु-केतु तुला में भी बताया गया है. फिर वेदव्यास केतु को वृश्चिक राशि में ज्येष्ठा पर हमला करते हुए भी बताते हैं.

अन्य जगह यह भी कहा गया है कि राहु सूर्य की तरफ जा रहा है और सूर्य-चन्द्रमा वृषभ में गोचर हैं. स्पष्ट है 5वीं शताब्दी तक केतु एक नोड है यह ज्ञान बाबाओं को नहीं था. वराहमिहिर ने 1000 केतुओं का वर्णन किया है जो सूर्य और ग्रहों के इदगिर्द घूमते हैं. यह केतु Astoroid ही हैं न कि राहु की पूंछ. महाभारत में एक ही समय में तीन जगह केतु का वर्णन है. यह आधुनिक ज्योतिष वाला राहु की पूंछ केतु नहीं है. स्पष्ट है इसमें सत्य का अंश नहीं है, यह गपोड़शंख से ज्यादा नहीं है.

धृतराष्ट्र के साथ वेद व्यास की यह बातचीत हमें एक महत्वपूर्ण बात भी बताती है कि वेदव्यास त्रिकालदर्शी (भूत-वर्तमान-भविष्य का ज्ञाता) नहीं थे क्योंकि वे शनि की गोचर में ठीक ठीक स्थिति को नहीं देख पा रहे थे. यह लेखक के झूठ को भी उजागर करता है कि उन्होंने महाभारत को लाइव देखने के लिए संजय को दिव्य दृष्टि दी थी. जो व्यक्ति पारगमन में ग्रह और केतु को नहीं देख सकता, वह ऐसी दिव्य शक्ति को धारण करने वाला नहीं हो सकता.

तो क्या व्यास महाभारत के लेखक थे ? कम से कम इस प्रसंग से मुझे नहीं लगता. ऋषि थोड़ी ऊपर की चीज है, ऐसा उपनिषद से पता चलता है. वे त्रिकालदर्शी होते हैं. व्यास त्रिकालदर्शी थे. जबकि यह प्रकरण उन्हें त्रिकालदर्शी सिद्ध नहीं करता. शकुन वर्णन प्राचीन रामायण आदि ग्रंथो में खूब है, यह महाभारत में भी विस्तार से दिया गया है. कर्ण द्वारा वर्णन कराए गये शकुन या व्यास ने जो शकुन बताये हैं उससे भी लेखक के बौधिक स्तर का पता चलता है. लेखक का अतिरेक देखो – ब्रह्मवादियों की औरतें गरुण और मोर पैदा कर रहीं. राजाओ की लडकियाँ मांस खाने वाले सियार और भेडिये पैदा कर रही हैं. ऐसा बकलोली व्यास जैसे महर्षि तो नहीं कर सकते. इससे भी स्पष्ट होता है कि महाभारत के लेखक वेदव्यास नहीं हैं.
नीचे उद्योग पर्व में कर्ण द्वारा वर्णन किये गये ज्योतिष और भीष्म पर्व में वेदव्यास द्वारा किये गये ग्रह गोचर का वर्णन का स्निपेट दिया जा रहा है, पाठक खुद पढ़ कर तय करे –

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