हनुमान चलीसा सिर्फ एक ही आथेंटिक है जिसमें तुलसी दास ने हनुमान जी की महिमा का गायन किया है. यह तुलसी दास की सिद्ध लेखनी के कारण शक्तिशाली चलीसा है और उसमें अद्भुत स्वर है. तुलसी चलीसा के प्रसिद्ध होने के बाद में पुजारियों ने सबके चलीसा गढ़ लिए. इन चलीसाओं के गढने वाले लालची पुजारी थे इसलिए उन चलीसाओं में स्वर नहीं है, उसके गायन से प्रभावोत्पादक माहौल नहीं बनता. उसी प्रकार मूल गायत्री एक ही है- ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्। जिसके द्रष्टा ऋषि विश्वामित्र हैं. गायत्री को भगवान ने छंदों में अपना स्वरूप कहा है. इसके चार पाद हैं और इसमें चौबीस वर्ण होते हैं. इसे गाया जा सकता है. इसमें “गाय” शब्द है जिसका अर्थ होता है वाक्. यह गाय चतुष्पदा है लेकिन इसका एक पाद अमृतमय लोकों में अवस्थित हैं. ऋक, यजु: और साम रूप में इसे त्रिपदी भी कहते हैं. मूल गायत्री के प्रभाव को समझने के बाद उपनिषद काल में अन्य प्रमुख देवताओं की गायत्री भी बनाई गई. लेकिन इसको बनाने वाले गायत्री के बड़े उपासक थे. उस समय गायत्री ही ऋषियों की सबसे प्रमुख उपासना थी. महानारायण उपनिषद में इन गायत्री मन्त्रों का संकलन किया गया था. सायणाचार्य ने इन गायत्रीयों में सिर्फ 6 को आथेंटिक माना है जबकि अन्य आचार्यों ने 5 को ही आथेंटिक माना है जो पंचदेवों से सम्बन्धित हैं. इससे समझ सकते हैं कि बाकी गायत्रियां उसी प्रकार से हैं जैसे अन्य चलीसायें . फिर भी ये गायत्रियां वैष्णव महानारायण उपनिषद में संकलित हैं तो इन्हें कमोवेश आथेंटिक माना जा सकता है…
तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि । तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ 1॥
तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि । तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् ॥ 2॥
तत्पुरुषाय विद्महे चक्रतुण्डाय धीमहि । तन्नो नन्दिः प्रचोदयात् ॥ 3॥
तत्पुरुषाय विद्महे महासेनाय धीमहि । तन्नः षण्मुखः प्रचोदयात् ॥ 4॥
तत्पुरुषाय विद्महे सुवर्णपक्षाय धीमहि । तन्नो गरुडः प्रचोदयात् ॥ 5॥
वेदात्मनाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि । तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् ॥ 7॥
नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि । तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥ 8॥
वज्रनखाय विद्महे तीक्ष्णदꣳष्ट्राय धीमहि । तन्नो नारसिꣳहः प्रचोदयात् ॥ 9॥
भास्कराय विद्महे महद्द्युतिकराय धीमहि । तन्नो आदित्य्यः प्रचोदयात् ॥ 10॥
वैश्वानरय विद्महे लालीलाय धीमहि । तन्नो अग्निः प्रचोदयात् ॥ 11॥
कात्यायनाय विद्महे कन्याकुमारि धीमहि । तन्नो दुर्गिः प्रचोदयात् ॥ 12॥

