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सनातन धर्म में हर सम्प्रदाय के ईश्वर के सहस्रों नाम हैं. सभी सम्प्रदायों ने अपने देवताओं के सहस्रनाम लिखे है जैसे विष्णु सहस्रनाम, शिव सहस्रनाम, दुर्गा सहस्रनाम, ललिता सहस्रनाम, बाला सहस्रनाम, भैरव सहस्रनाम, राधा सहस्रनाम इत्यादि. यहाँ तक कि अनेक छोटे देवी देवताओं के भी सहस्रनाम है. जो नाम सम्भव हैं और संहिता, पुराण, लोक वेद में प्रसिद्ध हैं वे सभी नाम सम्मिलित किये हैं. सबसे पहले विष्णु सहस्रनाम ही लिखा गया था जिस पर आदि शंकराचार्य ने भाष्य किया. उन्होंने भाष्य क्यों किया ? इसलिए किया क्योंकि जितने नाम लिखे गये हैं वो सभी श्रुतियों में वर्णित ईश्वर के स्वरूप को कम या ज्यादा परिभाषित करते हैं. सभी नाम एक ही ईश्वर के नाम हैं.  उदाहरण के लिए विष्णु सहस्रनाम के कुछ नाम लेते हैं .
26 शर्वः – सारी प्रजा का प्रलयकाल में संहार करने वाले,
27 शिवः – तीनों गुणों से परे कल्याण स्वरुप,
28 स्थाणुः-स्थिर
38 शम्भुः – भक्तों के लिये सुख उत्पन्न करने वाले
114 रुद्रः – दुःख या दुःख के कारण को दूर भगा देने वाले

ये सभी नाम शैव धर्म के ईश्वर शिव के हैं. क्या इन नामों से ईश्वर की प्राप्ति नहीं होगी ? कृष्ण या राम में इन नामों से क्या विशेषता है ?  दूसरी तरफ यदि शिव सहस्रनाम लें तो उन सहस्रनामों में लिखे नाम पूर्णत: साम्प्रदायिक हैं, उन नामों से सिर्फ शिव का ही स्वरूप सामने दिखेगा यदपि कि कुछ नाम दोनों सहस्रनाम में मिलते हैं. शिव सहस्रनाम के ज्यादातर नामों में विष्णु सहस्रनाम के नामों की तरह सार्वभौमिकता नहीं है. यदि दुर्गा सहस्रनाम लें तो बहुत से नाम ललिता सहस्रनाम और लक्ष्मी सहस्रनाम में मिल जायेंगे. सभी नाम की अपनी गति है लेकिन सभी नाम ईश्वर के वाचक नहीं हैं. यदि राम को पुकारेंगे तो राम नाम का व्यक्ति आएगा, ईश्वर नहीं आएगा क्योंकि इस  नाम की वहां तक गति नहीं है.

जो ग्रन्थ हम पढ़ते हैं वो भी नाम ही है- वेद, उपनिषद, पुराण और इतिहास ये सब नाम ही है. छान्दोग्योपनिषद् में यह सनतकुमार ने नारद को उपदेश किया है कि सभी शास्त्र नाम ही हैं “नाम वा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेद आथर्वणश्चतुर्थ इतिहासपुराणः”. उपनिषद में वेद पुराण नाम के अंतर्गत बताये गये हैं, यह माया के अंतर्गत ही हैं. उसी प्रकार ज्योतिष, सर्प विद्या, संगीत, तर्क, विज्ञान ये भी नाम के अंतर्गत ही है. पुराणवादी जो कुछ प्राप्त कर सकता है, वह एक संगीतकार भी प्राप्त कर सकता है.  उस विमर्श में यह भी उपदेश किया गया है कि इन नामों की जहाँ तक गति है, वहीं तक इन नामों के स्मरणकर्ता की गति है. नाम की जितनी गति है उसके अनुसार नाम की उपासना करने वाला कुछ चीजे प्राप्त कर लेगा. (यावन्नाम्नो गतं तत्रास्य यथाकामचारो भवति). मुक्ति भांति भांति के नाम में भटने से नहीं हो सकती है और गौडीय सम्प्रदाय के पौराणिकों की तरह कोलाहल करने से तो एकदम नहीं हो सकती है. इन नामों से ऊपर उठने पर कुछ और भी सूक्ष्म विज्ञान की प्राप्ति होती है.

एक चिन्तन करने वाले दार्शनिक की जहाँ तक गति है वहां तक पुराण गाने वाले की गति नहीं है. वह पुराण गपोड़शंखी सृष्टि के उस सौन्दर्य को नहीं देख सकता है जो वह दार्शनिक देखता है, क्योंकि चिन्तन नाम से ऊपर अवस्थित है. आज जो एस्ट्रोनोमी देख पा रहा है वह चिन्तन का परिणाम है. सृष्टि की वो छवियाँ पुराण गपोड़शंख नहीं देख सकता. ब्रह्म विद्या के अंतर्गत नाम से ऊपर ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ का उपदेश किया गया है.

वैदिक धर्म में ईश्वर का सिर्फ एक ही नाम है जिसका उपदेश सभी वेदों, उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता में किया गया है. ईश्वर का सिर्फ यही नाम मुक्तिकारक है इसलिए भगवद्गीता में उपदेश किया गया है कि प्राण का उत्क्रमण करते समय इस एक अक्षर ॐ का ही स्मरण करें-
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।
प्रणव को अक्षर कहा गया है क्योंकि इसका नाश नहीं होता. अन्य जो भी नाम हैं वो क्षर हैं, उनका नाश होता है. यही सभी श्रुतियां कहती हैं.