झारखंड राज्य की राजधानी रांची से करीब 80 किलोमीटर और रामगढ़ से 28 किमी दूर दशमहाविद्याओं से सम्बन्धित स्थान रजरप्पा अवस्थित है. रजरप्पा में भैरवी-भेड़ा और दामोदर नामक नदी के संगम पर मौजूद देवी का यह मंदिर शक्तिपीठों में कामाख्या के बाद दूसरा सबसे बड़ा शक्तिपीठ माना जाता है. यह दशमहाविद्या की तांत्रिक परम्परा का शक्तिपीठ है, यह 51 शक्तिपीठों में शरीक नहीं है. देवी छिन्नमस्ता को छिन्नमस्तिका, वैरोचिनी, चिंतपुरणी और प्रचंड चंडिका के नाम से भी जाना जाता है. कांगड़ा के चित्तपुरनी मन्दिर को भी छिन्नमस्ता पीठ ही माना जाता है. शास्त्रों के अनुसार इस महाविद्या को सबसे पहले भगवान विष्णु ने प्राप्त किया था. छिन्नमस्ता महाविद्या के तीन प्रसिद्ध साधक ऋषि जमदग्नि, अथर्वाअंगिरस और रावण माने जाते हैं. ऐसा माना जाता है कि तथागत बुद्ध को भी जब सिद्धि नहीं मिल रही थी तो इस विद्या की उपासना उन्होंने की थी. यह बौध ग्रन्थों में आता है ” जिनो विरोचनो ख्यातो “. छिन्नमस्ता पुर्वाम्नाय की देवी कही गई हैं. परम्परानुसार सम्पूर्ण पुर्वाम्नाय गोवर्धनमठ के अंतर्गत आता है.

छिन्नमस्ता दस महाविद्याओं में से छठी देवी मानी जाती हैं. इन्हें सिद्ध विद्या कहा गया है. इन्हें वेदों में वैरोचिनी कहा गया है, अथर्ववेद के दुर्गा सूक्त में यह मन्त्र आता है-
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम्।
दुर्गां देवीँशरणमहं प्रपद्ये सुतरसि तरसे नमः॥
रजरप्पा का छिन्नमस्ता मदिर इस महाविद्या का सबसे बड़ा मंदिर है और विश्वप्रसिद्ध है. साल में आने वाले चैत्र और शारदीय नवरात्रों के दौरान यहां भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है. छिन्नमस्ता मंदिर को 6000 वर्ष प्राचीन माना जाता है, कुछ इतिहासकार इसे महाभारत काल का मंदिर बताते हैं. रजरप्पा में छिन्नमस्तिका मंदिर के अलावा महाकाली मंदिर, सूर्यदेव को समर्पित मंदिर, दस महाविद्या से जुड़ा मंदिर, बाबाधाम मंदिर, बजरंगबली मंदिर, शंकर मंदिर और विराट रूप मंदिर भी अवस्थित हैं.
छिन्नमस्ता की कथा –
कथा के अनुसार एक बार जब देवी अपनी परिचारिकाओं जया और विजया के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान के लिए गईं. स्नान करते समय देवी कामाग्नि से कृष्ण वर्ण की हो गईं. उस समय उनकी दोनों परिचारिकाएँ भूख से व्याकुल हो उठी. वे व्याकुल होकर भोजन की मांग करने लगीं. इसपर माता ने उन्हें धैर्य रखने के लिए कहा परंतु सहचरियां भूख से तड़प रही थी. उनमें धैर्य अब बिल्कुल भी नहीं रह गया था. उन्होंने कहा “माता, प्रार्थना करने पर आप अपने शिशुओं को भोजन अवश्य प्रदान करतीं हैं. हम भूख से व्याकुल हो रहीं हैं, आप हमें भोजन प्रदान करें.” माता ने अपनी सहेलियों का यह हाल देख अपने कराग्र से अपना सिर छेदन कर दिया. जब मां ने अपना सिर काटा तो उनका कटा हुआ उनके बाएं हाथ में आ गिरा और उनके कबंध से तीन धाराएँ निकल पड़ी. दो धाराएँ सहचरी डाकिनी और वर्णिनी के मुख में गिरीं और एक धारा से खुद रक्तपान करने लगीं. देवी का तभी से छिन्नमस्ता नाम पड़ा और इस रूप में देवी की पूजा होने लगी.
रजरप्पा मंदिर के भीतर माता छिन्नमस्ता की प्रतिमा कमलपुष्प पर विराजमान है, उनके तीन नेत्र हैं. उनके दाएं हाथ में तलवार व बाएं हाथ में देवी का अपना ही कटा हुआ सिर है जिसमें से तीन धाराओं में रक्त बह रहा है. साथ ही देवी के पांव के नीचे विपरीतरति में कामदेव और रति शयन अवस्था में विराजित हैं. मां छिन्नमस्तिका के केश खुले और बिखरे हैं और उन्होंने सर्पमाला तथा मुंडमाला धारण की हुई है. माता आभूषणों से सुसज्जित नग्नावस्था में अपने दिव्य रूप में यहाँ विराजमान हैं. छिन्नमस्ता के इसी रूप का ध्यान श्लोक भी है –
अस्थिमालाधरांदेवीं नागयज्ञोपवीतिनिम् ।
नागयज्ञोपवीतिनम् रतिकामोपविष्ठां च, सदा ध्यायन्ति मन्त्रिण: ।।
विपरीतरतासक्तौ, ध्यायेद्रति-मनोभुवौ।।
मां के उग्र रूप के कारण यह घोर तांत्रिक देवी हैं और इनकी उपासना तांत्रिक विधि से ही की जाती है. इन्हें बकरे की बलि चढ़ाकर और तंत्र साधना के माध्यम से भक्त अपनी मनोकामना को पूर्ण करते हैं. इनकी उपासना और पूजा बिना दीक्षा के नहीं की जाती है. जनवरी के महीने में मकर संक्रांति के पर्व पर यहां विशेष मेला लगता है और बहुत दूर दूर से लोग आते हैं. विजयादशमी , विजयादशमी के दौरान एक मेले का भी आयोजन किया जाता है और इसमें बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं.

