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श्रीरंगम स्थित श्रीरंगनाथ स्वामी वैष्णव धर्म के मध्ययुग में प्रकट हुए सबसे बड़े वैष्णव आचार्य रामानुज के ईष्ट देवता हैं. रामानुजाचार्य ने यहीं रह कर अपने वैष्णव दर्शन विशिष्टाद्वैत का प्रतिपादन और प्रचार किया था. रामानुजाचार्य के गुरु यमुनाचार्य विशिष्टाद्वैत के प्रचारक थे और  इस मन्दिर के प्रमुख थे, उन्होंने ही रामानुजाचार्य को यहाँ बुलाया था. इस वैष्णव तीर्थ में ही रामानुजाचार्य वैष्णव धर्म में दीक्षित हुए. श्रीरंगनाथ स्वांमी शेषशायी विष्णु हैं. चतुर्भुज विष्णु का विग्रह बहुत विशाल है  और मुख दक्षिणाभिमुख है. मस्तक पर शेषनाग का पांच फणों का क्षत्र है. मूर्ति बहुमूल्य आभूषणों से सुसज्जित है. भगवान के समीप ही लक्ष्मी जी और विभीषण बैठे हैं. अन्य भूदेवी इत्यादि की मूर्ति भी है. श्रीरंगम कावेरी के द्वाब में सहित है. श्रीरंगम में कावेरी नदी दो भागों में विभाजित हो गई है और बीच में एक 17 मील लम्बा द्वीप का निर्माण हो गया है. इसी द्वीप पर 4 किलोमीटर में फैला श्रीरंगम का भव्य मन्दिर है. यह विष्णु के 108 दिव्यदेशम मन्दिरों में पहला और सबसे विशालतम मन्दिर है. धार्मिक गतिविधियों के बावत यह दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक स्थल है.

कथा के अनुसार भगवान नारायण ने अपना साक्षात् विग्रह ब्रह्मा जी को प्रदान किया था. वैवस्वत मनु ने कठोर तप से ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर यह विग्रह विमान सहित प्राप्त किया था. तभी से श्रीरंग नाथ जी अयोध्या में विराजमान हुए और इक्ष्वाकु वंश के राजाओं के अराध्य हुए. त्रेतायुग में जब अयोध्यानरेश महाराज दशरथ ने अश्वमेध यज्ञ किया तब तब चोल नरेश को उन्होंने आमंत्रित किया था और वे अयोध्या गये थे. उन्होंने श्रीरंग जी को देखा तो उनका चित्त उनमे रम गया और वापस आकर श्रीरंग जी की प्राप्त करने के लिए कठोर तप करने लगे. उनके तप को देख कर ऋषि-मुनियों ने उन्हें तप से यह कहकर निवृत्त किया कि ‘श्रीरंग जी स्वयं यहाँ पधारने वाले हैं”. जब लंका विजय कर श्री राम राजा बन गये तब उन्होंने सबको राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में मुंहमांगी वस्तुएं उपहार में प्रदान की. जब सुग्रीव आदि को उपहार दे चुके थे और विभिषण की बारी आई तो विभीषण ने श्रीरंग जी को मांग लिया. श्रीराम ने विभीषण को श्रीरंग जी की मूर्ति विमान सहित प्रदान कर दिया.

विभीषण इस दिव्य विग्रह को लेकर चले तो देवताओं को चिंता हुई कि विग्रह लंका नहीं जाना चाहिए. लंका जाने के मार्ग में यहाँ कावेरी द्वीप पर उन्होंने श्रीरंग जी को नित्य कर्म के लिए स्थापित किया. कर्म से निवृत्त होकर जब विभिषण मूर्ति को उठाने लगे तो वह उनसे नहीं उठी. उन्होंने बड़ा प्रयत्न किया लेकिन असफल रहे. उस समय श्रीरंग जी प्रकट हुए और कहा “विभीषण तुम खिन्न मत हो, यह कावेरी का द्वीप परम पवित्र है. राजा धर्मवर्मा ने मुझे पाने के लिए कठोर तप किया था और ऋषियों उन्हें आश्वासन दिया था कि मैं यहाँ पधारुंगा. मेरी ईच्छा यहाँ रहने की है. तुम यहीं आकर दर्शन पूजन कर जाया करो. मैं यहाँ लंका की तरफ मुख कर दक्षिणभिमुख रहूँगा. “

विभीषण लंका से नित्य पूजन और दर्शन आते थे. एकदिन रथ से दर्शन के लिए आ रहे थे, तब रस्ते में एक ब्राह्मण उनके रथ से कुचल कर मर गया. श्रीरंगम के ब्राह्मणों ने विभीषण को मार पीट कर बंदी बना लिया और एक तहखाने में बंद कर दिया. भगवान ने विभीषण को कल्पान्त तक अमर रहने का वरदान दिया था. इसलिए नारद के प्रयासों से उनकी मुक्ति हुई. नारद ने अयोध्या में सूचना पहुंचाई कि भक्त विभीषण  को बंदी बना लिया गया है. राम पुष्पक विमान से वहां पधारे और कहा “सेवक का अपराध तो स्वामी का ही अपराध माना जाता है. ये मेरे सेवक हैं. आप उन्हें छोड़ कर मुझे दंडित करें” ब्राह्मण द्रवित हो गये और उन्होंने विभीषण  को छोड़ दिया. विभीषण पुन: प्रतिदिन गुप्त रूप में दर्शन के लिए आने लगे.