हम लोगों में धर्म करने की वृत्ति है. दान करने की वृत्ति भी है. यह बहुत अच्छी बात है. इस भूमि में अनेक साधु-सन्त पैदा हुए और उन्होंने भारतीय जीवन को दान भावना से भर दिया है. आप सब साल भर में कुछ न कुछ दान करते हैं, धर्म करते हैं, लेकिन दान करते समय आप कभी विचार भी करते हैं? आज व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी, सोशलमीडिया के कारण एक बड़ी जनसंख्या ने विचार/विवेक से तो पल्ला झाड लिया है. विवेक अब बड़ी जनसंख्या के पास रहा ही नहीं है. विचार का चिराग बुझ जाने से आचार अन्धा बन गया है. भारत की संस्कृति में यह बताया गया है कि बुद्धि या विचार की जितनी कीमत है उतनी तीनों लोकों में और किसी चीज की नहीं हैं. बुद्धि बहुत बड़ी चीज है. उदाहरण के लिए दान को लीजिये आप जब दान देते हैं तो क्या सोचते हैं? चाहे जिसको दान दे देने से क्या वह धर्म कार्य भली भाँति हो जाता है? दान और त्याग में भेद है. हम त्याग उस चीज का करते है जो बुरी होती है. अपनी पवित्रता को उत्तरोत्तर बढ़ाने के लिए हम उस पवित्रता में बाधा डालने वाली चीजों का त्याग करते हैं. घर को स्वच्छ करने के लिए कूड़े-कचरे का त्याग करते हैं, उसे फेंक देते हैं. त्याग का अर्थ है फेंक देना, लेकिन दान का मतलब फेंकना नहीं है. हमारे दरवाजे पर कोई भिखारी आ गया, कोई बाबा जी आ गये दे दी उसे एक मुट्ठी या एकाध पैसा-इतने से दान क्रिया नहीं होती. वह मुट्ठी भर अन्न फेंक दिया, वह पैसा फेंक दिया. उस कर्म में लापरवाही है. उसमें न तो हृदय है और न बुद्धि. बुद्धि और भावना के सहयोग से जो क्रिया होती है वही सुन्दर होती है. भगवद्गीता यही कहती है “जो दान बिना सत्कार किये, अथवा तिरस्कारपूर्वक किया जाता है वह तामसिक दान है. उससे कल्याण की सम्भावना नहीं है.” दान के माने ‘फेंकना’ नहीं बल्कि ‘बोना’ हैं. जब किसान धान लगाता है तो किसी मुहूर्त में लगाता है, उसकी विशेष ऋतू है, काल है और वह गीत गाते हुए उसे बोता है. भगवद्गीता में कहा गया है –
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्।।17.22।।
जो दान बिना सत्कार किये, अथवा तिरस्कारपूर्वक, अयोग्य देशकाल में, कुपात्रों के लिए दिया जाता है, वह दान तामस माना गया है.
इस पर जरा सोचिये. गीता कहती है कि कुपात्रो को दिया गया दान धर्म की वृद्धि नहीं करता. तमस सदैव तमस की वृद्धि करता है. गलत विधि से कमाए धन का दान धर्म की वृद्धि नहीं करता. भारत के बड़े बड़े बनिया काले धन का निवेश बाबाओ और स्वामियों में करते हैं. यह दान नहीं है, यह उनका राजनीतिक प्रोजेक्ट है जो लाभ के लिए है. उनका प्रयोजन इससे राजनीतिक लाभ लेना है. मसलन उदाहरण के लिए जब भारत के किसानों की जमीन हड़पने का बिल मोदी ले आया या कृषि हड़पने के लिए कृषि बिल मोदी ले आया, तो उसका विरोध देश भर के किसानों ने किया, बड़ा आन्दोलन किया और 300 किसान मरे. लेकिन एक भी बाबा या स्वामी किसानों के साथ खड़ा नहीं हुआ. क्यों? क्योकिं वह बनियों के काले धन के भार से दब गया है, वह स्वन्तन्त्र नहीं हैं. यह उनकी एक बड़ी गुलामी है. इससे धर्म की वृद्धि नहीं हुई, अधर्म की वृद्धि हुई.
बीज बोते समय जिस तरह जमीन अच्छी है या नहीं, इसका विचार करते हैं, उसी तरह हम जिसे दान देते हैं वह भूमि, वह व्यक्ति किस प्रकार का है इसकी तरफ ध्यान देना चाहिये. किसान जब बीज बोता है, तो एक दाने के सौ दाने बनाने के खयाल से बोता है. वह उसे बड़ी सावधानी से बोता है घर के दाने खेत में बोता है. उन्हें चाहे जैसे बेतरतीब फेंक नहीं देता. घर के दाने तो कम हुए, लेकिन वहाँ खेत में सौ गुने बढ़ गये. दान क्रिया का भी यही हाल है. जिसे हमने मुट्ठी भर दाने दिये, क्या वह उनकी कीमत बढ़ायेगा? क्या वह उन दानों की अपेक्षा सौगुने मूल्य का कोई काम करेगा? दान करते समय लेने वाला ऐसा ढूँढ़ो जो उस दान की कीमत बढ़ावे. हम जो दान करें वह दान ऐसा हो कि जिससे समाज को सौगुना फायदा हो. वह दान ऐसा हो जो समाज को सफल बनावे. हमें यह विश्वास होना चाहिये कि उस दान की बदौलत समाज में आलस, व्यभिचार और अनीति नहीं बढ़ेंगे. यदि आप ऐसे कालनेमि रूप धारण किये भगवा पहने किसी को दान देते हैं जो आपके दमन, आपकी अस्वतंत्रता का हिमायती है तो आपने यह दान शैतान को दिया है. यदि आपकी बेटी का बलात्कार होता है और वह सड़क पर न्याय के लिए आन्दोलन करती है और जिसे आपने अपने समाज और धर्म के लिए दान दिया है, वह बलात्कारी के साथ खड़ा हो तो आपने शैतान को दान दिया है. आपने एक आदमी को पैसे दिये, दान दिया और उसने उनका दुरुपयोग किया, उस दान के बल पर अनीतिमय आचरण किया तो उस पाप की जिम्मेदारी आपकी भी है. उस पापमय मनुष्य से सहयोग करने के कारण आप भी दोषभागी’ बने. आपको यह देखना चाहिये कि हम असत्य, अनीति, आलस्य, अन्याय से सहयोग कर रहे हैं या सत्य, उद्योग, श्रम, लगन, नीति और धर्म से. आपको इस बात का विचार करना चाहिये कि आपके दिये हुए दान का उपयोग होता है या दुरुपयोग. अगर आप इसका खयाल नहीं रखेंगे तो आपकी दान क्रिया का अर्थ यही होगा कि किसी चीज को लापरवाही से फेंक दें. हम जो दान देते हैं, उसकी तरफ हमारा पूरा पूरा ध्यान होना चाहिये. दान का अर्थ है बीज बोना आपको यह देखना चाहिये कि यह बीज अंकुरित होकर उसका पौधा बढ़ता है या नहीं और वह पौधा फलता फूलता है या नहीं. तगड़े और और निरोगी आदमी को भीख देना, दान करना अन्याय है. कर्महीन मनुष्य भिक्षा का दान का अधिकारी नहीं हो सकता.
भगवान का यह कानून है कि हर एक मनुष्य अपनी मेंहनत से जीयें. दुनिया में बिना शारीरिक श्रम के भिक्षा माँगने का अधिकार केवल सच्चे संन्यासी को है. सच्चे संन्यासी का- जो ईश्वर भक्ति के रंग में रंगा हुआ है, ऐसे संन्यासी को ही यह अधिकार है, क्योंकि ऊपर से देखने में भले ही ऐसा मालूम पड़ता है कि वह कुछ नहीं करता तो भी दूसरी अनेक बातों से वह समाज की सेवा करता है, लेकिन ऐसे संन्यासी को छोड़कर और किसी को भी अकर्मण्य रहने का अधिकार नहीं है. दुनिया में आलस्य को पोसने जैसा दूसरा भयंकर पाप नहीं है.
आलस्य परमेश्वर के दिये हुए हाथ पैरों का अपमान है. अगर कोई अन्धा हो तो उसे रोटी तो दे देनी चाहिये लेकिन उसको भी सात आठ घण्टे काम तो दूँगा. उसे कुछ न कुछ काम दे दूँगा. जब एक हाथ थक जाए तो दूसरा हाथ काम कर सके, वह काम उससे कराकर उन्हें रोटी देना चाहिये. इससे श्रम की पूजा होती है. इसलिए जिसे आप दान देते हैं, वह कुछ समाज सेवा, कुछ उपयोगी काम करता है या नहीं, यह भी आपको देखना चाहिये, उस दान को बोया हुआ बीज समझिये. समाज को उसका पूरा पूरा मुआवज़ा मिले यह जरूरी है. अगर दाता अपने दान के विषय में ऐसी दृष्टि नहीं रखेगा तो वह दान के बदले अधर्म होगा. वह उपेक्षा या लापरवाही का काम होगा.
चाहे जिसे कुछ न कुछ देने से, भोजन कराने, बिना विचारे दान, धर्म करने से अनर्थ होता है. अगर कोई गोर क्षण या गोशाला को कुछ देना चाहता है, तो उसको यह देखना चाहिये कि क्या उस गोशाला से बड़ी ऐन वाली गायें निकलती दिखाई देती हैं? क्या वहाँ गायों की औलाद सुधारने की भी कोशिश होती है? क्या बच्चों को गाय का सुन्दर और स्वच्छ दूध मिलता है ? क्या वहाँ से अच्छे-अच्छे नटवे खेती के लिये मिलते है? क्या गो-रक्षण और गोवर्धन की वैज्ञानिक खोजबीन वहाँ होती हैं? जहाँ मरियल गायों की भरमार है, बेहद गन्दगी से सारी हवा बसा रखी है, इस तरह से पिंजरा पोल रखना दान धर्म नहीं है. यदि किसी बाबा को दान देते हैं तो देखिये कि क्या वह उससे धर्म वृद्धि करता है ? या आशाराम , श्री श्री रविशंकर, राधा स्वामी इत्यादि की तरह उससे बड़े फ़्लैट बनाकर बेचता है या उससे कम्पनी लगा रहा है? या क्या वह महंगी कार से चल रहा है ?
किसी संस्था या व्यक्ति को जो कुछ आप देते हैं, उसमें समाज को कहाँ तक लाभ होता है यह आपको देखना ही चाहिये. हिन्दुस्तान में दानवृत्ति में विचार न होने के कारण समाज, समृद्ध और सुन्दर दीखने के बजाय आज निस्तेज, और रोगी दिखाई देता है. बाबा कई करोड़ की कार पर चलते हैं, कारों का काफिला चलता है, उनके आश्रम भोग के बड़े ठिकाने हैं और वे झूठ तथा, अधर्म’ का प्रचार करते हैं. जन विरोधी-देशविरोधी गतिविधियों में संलग्न हैं. इस तरह आप पैसे फेंकते हैं, बोते नहीं है. इससे न इहलोक है न परलोक, यह आप न भूलें.

