Spread the love

देवी पूजा सबसे कठिन है. शक्ति की उपासना यदि ठीक से की जाय तो सर्वसिद्धिप्रद होती है. देवी उपासना की कुछ शर्ते हैं, जो इस प्रकार से हैं –

1- देवी में पूर्ण ब्रह्म भाव की प्रतिष्ठा करना और भाव को शुद्ध रखना. शक्ति की अद्वैत रूप में स्थिति है. भाव में किंचित भी व्यभिचार होने से पूर्ण पतन और विनाश होता है.

2-स्त्रियाँ देवी का स्वरूप हैं यह मन में दृढ़ता के साथ स्थापित करना और मनसा-वाचा-कर्मणा नारी का किसी भी रूप में अपमान न करना. स्त्री के लिए प्रतिबद्ध होकर लड़ना.

3-देवी पूजा की तिथियों और पर्वों में विशेष पूजा का आयोजन करना.

4-देवी पूजा के इतर अन्य किसी देवता को पूजा में प्रधानता न देना, स्मार्त अन्य देवोपासना कर सकते हैं परन्तु वे शाक्त तभी कहे जायेंगे जब अन्य विष्णु आदि देवताओं को गौड़ मानेंगे .

5-देवी के मन्त्र की किसी शास्त्रों के विद्वान् साधक आचार्य से विधिवत दीक्षा लेना और उस मन्त्र का ही यावज्जीवन सेवन करना. आचार्य शाक्त है या नहीं उसकी सम्यक परीक्षा लेना. यदि वह आचार्य पितृसत्तात्मक विचारधारा रखता है तो वह शाक्त नहीं है. यदि गुरु शास्त्रों में पारंगत है तब भी उससे दीक्षा ली जा सकती है क्योंकि जो शास्त्रों में पारंगत है उसको शक्ति का आशीर्वाद प्राप्त रहता है.

6- पूजा का समय निश्चित रखना और त्रिकाल पूजन करना आवश्यक है. यदि नौकरीपेशा हैं तो सुबह शाम पूजन में बैठे. मन्त्र का कमसे कम १००० जप करें.

7-कमसे कम एक समय देवी को अन्नभोग आवश्यक लगायें.

8- शक्ति साधना के तीर्थों का जब भी मौका मिले सेवन करना. ‘सर्व शक्तिमयं जगत ‘ ऐसा सर्वत्र देखना.

9-देवी के प्रति पूर्ण शरणागति आवश्यक है. देवी पर ही पूर्ण आश्रितता होनी चाहिए. जब अर्जुन ने कहा “शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्” तब कृष्ण के भीतर भी गुरु भाव आया और उन्होंने उसे गीता का उपदेश किया. कल की चिंता नहीं करनी चाहिए. कल को देवी पर छोड़ दो.

10-यह ध्यान रखना चाहिए कि देवी न स्त्री हैं, न पुरुष हैं और न तृतीय लिंग हैं- ‘नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः” वह ब्रह्ममयी हैं. स्त्री में ब्रह्ममयी के कुछ मातृत्व इत्यादि गुण अल्प मात्रा में मेनिफेस्ट रहते हैं इसलिए स्त्री रूप में कल्पित किया जाता है. वैष्णव नृसिंह विष्णु का वर्णन में उनके वात्सल्य का वैसे ही वर्णन है जब वे वात्सल्य से प्रहलाद को गोद में उठा कर सिर पर हाथ फेरते हैं. भगवद्गीता में भी नारी के कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा आदि गुणों को ब्रह्म भाव में अवस्थित कृष्ण ने अपना स्वरूप कहा है.