
राजकुमार सिद्धार्थ अपने तप से पहले गौतम बुद्ध बने और फिर भगवान बुद्ध हुए. गौतम बुद्ध का जब जन्म हुआ तो उन्होंने जन्म लेते ही सात कदम चलते हुए सात प्रतिज्ञायें की थी. उन प्रतिज्ञाओं में उनकी एक प्रतिज्ञा यह भी थी कि उनको दशो दिशाओं से मनुष्य, राजा, किन्नर , यक्ष, देव और दानव उपहार प्रदान करेंगे और उनके चरणों में शरण लेंगे. सिद्धार्थ जब पारिव्राजक और सन्यासी बने तो उन्होंने योगमार्ग को अपनाया. योग शिक्षा देने वाले उनके गुरु हुए अलार कालमा, ये कपिल मुनि के सांख्य दर्शन के आचार्य थे और योग के गुरु थे. अलार कालमा के आश्रम में रहते हुए गौतम बुद्ध ने 6 वर्ष बिताये और योग का अभ्यास किया जिसमे हठयोग भी सम्मिलित था. छह वर्ष बाद गौतम बुद्ध का गुरु से और उनके प्रमुख शिष्यों से मतभेद हुआ. उन्होंने कहा कि यह ज्ञान का मार्ग नहीं है, यह तो देह को स्वस्थ करने का उपाय मात्र है. उन्होंने अपने पहले गुरु का आश्रम छोड़ दिया और घोर तप में संलग्न हो गये. छह वर्षो के घोर तप के बाद गौतम बुद्ध को बोधि वृक्ष के नीचे चार याम में चार आर्यसत्यों का ज्ञान मिला. ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्हें परमआनंद की प्राप्ति हुई और वे कई दिन तक आनंद की स्थिति में कभी यहाँ, कभी वहां समाधिस्थ रहते थे. आनंद में इस प्रकार कई दिन बीत गये. एक दिन समाधि में उन्हें सभी 500 जन्मों का ज्ञान प्राप्त हुआ. उन्होंने समाधि में अपने पांच मित्रों को देखा, ये पांच अलार कालमा के यहाँ उनके साथ योग का अभ्यास करते थे. आश्रम छोड़ने से पूर्व इन पाँचों शिष्यों (कौण्डिन्य, अस्सजि, वप्प, महानाम, भद्दिय) के साथ उनकी गर्म बहस हुई थी और उन्होंने बुद्ध को अनापशनाप कहा था. उन्होंने बुद्ध को गुरुद्रोही और गुरु का अपमान करने वाला बताया था. उन्होंने समाधि में इन्हें ऋषिपत्तन मृगदाव अर्थात वर्तमान सारनाथ के करीब स्थित जंगल में योग साधना करते हुए देखा. भगवान बुद्ध आकाश मार्ग से वहां पहुंचे, उन्हें देख पांच भिक्षु समझ नहीं पाए. बुद्ध की काया स्वर्ण की तरह चमकती थी और उनके चारो तरफ प्रकाश का अद्भुत वर्तुल था. ये अद्भुत योगी कौन है? भगवान बुद्ध तथागत उनके करीब पहुंचे, आसन पर आसीन हुए और उनसे वार्तालाप शुरू किया. उस दिन आषाढ़ माह की पूर्णिमा थी अर्थात चातुर्मास्य चल रहा था. तथागत ने उन पांच शिष्यों से यह धर्मचक्र प्रवर्तन सुत्त कहा –
भिक्षुओ ! इन दो अन्तों (= चरम बातों ) को प्रव्रजितों को नहीं सेवन करना चाहिये। कौन से दो? (प्रथम) जो यह हीन, ग्राम्य, पृथक् जनों के योग्य, अनार्य ( सेवित ), अनर्थों से युक्त कामवासनाओं में अर्थात काम-सुख में लिप्त होना है, और (द्वितीय) जो यह दुःखमय, अनार्य ( सेवित), अनर्थों से युक्त श्रात्म-पीड़न (= कायक्लेश ) में लगना है। भिक्षुओ ! इन दोनों अन्तों (= चरम बातों) में न जाकर तथागत ने मध्यम मार्ग को जाना है, ( जो कि ) आँख देने- वाला, ज्ञान करने वाला, शान्ति के लिये, अभिज्ञा के लिये और सम्बोधि ( = परम ज्ञान ) के लिये, निर्वाण के लिये है।
धर्मचक्र प्रवर्तन सूत्र (धम्मचक्कप्पवत्तनसुत्त)–
एकं समयं भगवा बाराणसियं विहरति इसिपतने मिगदाये। तत्र खो भगवा पञ्चवग्गिये भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘द्वेमे, भिक्खवे, अन्ता पब्बजितेन न सेवितब्बा। कतमे द्वे? यो चायं कामेसु कामसुखल्लिकानुयोगो हीनो गम्मो पोथुज्जनिको अनरियो अनत्थसंहितो, यो चायं अत्तकिलमथानुयोगो दुक्खो अनरियो अनत्थसंहितो । एते खो, भिक्खवे, उभो अन्ते अनुपगम्म मज्झिमा पटिपदा तथागतेन अभिसम्बुद्धा चक्खुकरणी ञाणकरणी उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति’’।
‘‘कतमा च सा, भिक्खवे, मज्झिमा पटिपदा तथागतेन अभिसम्बुद्धा चक्खुकरणी ञाणकरणी उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति? अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा सम्माकम्मन्तो सम्माआजीवो सम्मावायामो सम्मासति सम्मासमाधि। अयं खो सा, भिक्खवे, मज्झिमा पटिपदा तथागतेन अभिसम्बुद्धा चक्खुकरणी ञाणकरणी उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति।
‘‘इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खं अरियसच्चं – जातिपि दुक्खा, जरापि दुक्खा, ब्याधिपि दुक्खो, मरणम्पि दुक्खं, अप्पियेहि सम्पयोगो दुक्खो, पियेहि विप्पयोगो दुक्खो, यम्पिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं – संखित्तेन पञ्चुपादानक्खन्धा [पञ्चुपादानक्खन्धापि (पी॰ क॰)] दुक्खा। इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खसमुदयं अरियसच्चं – यायं तण्हा पोनोब्भविका [पोनोभविका (सी॰ पी॰)] नन्दिरागसहगता तत्रतत्राभिनन्दिनी, सेय्यथिदं [सेय्यथीदं (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] – कामतण्हा, भवतण्हा, विभवतण्हा। इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खनिरोधं अरियसच्चं – यो तस्सायेव तण्हाय असेसविरागनिरोधो चागो पटिनिस्सग्गो मुत्ति अनालयो। इदं खो पन, भिक्खवे, दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्चं – अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि…पे॰… सम्मासमाधि।
‘‘‘इदं दुक्खं अरियसच्च’न्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि । ‘तं खो पनिदं दुक्खं अरियसच्चं परिञ्ञेय्य’न्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे…पे॰… उदपादि । ‘तं खो पनिदं दुक्खं अरियसच्चं परिञ्ञात’न्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि।
‘‘‘इदं दुक्खसमुदयं अरियसच्च’न्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि। ‘तं खो पनिदं दुक्खसमुदयं अरियसच्चं पहातब्ब’न्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे…पे॰… उदपादि। ‘तं खो पनिदं दुक्खसमुदयं अरियसच्चं पहीन’न्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि।
‘‘‘इदं दुक्खनिरोधं अरियसच्च’न्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि। ‘तं खो पनिदं दुक्खनिरोधं अरियसच्चं सच्छिकातब्ब’न्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे…पे॰… उदपादि। ‘तं खो पनिदं दुक्खनिरोधं अरियसच्चं सच्छिकत’न्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि।
‘‘‘इदं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्च’न्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि । तं खो पनिदं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्चं भावेतब्ब’न्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे…पे॰… उदपादि। ‘तं खो पनिदं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा अरियसच्चं भावित’न्ति मे, भिक्खवे, पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु चक्खुं उदपादि, ञाणं उदपादि, पञ्ञा उदपादि, विज्जा उदपादि, आलोको उदपादि।
‘‘यावकीवञ्च मे, भिक्खवे, इमेसु चतूसु अरियसच्चेसु एवं तिपरिवट्टं द्वादसाकारं यथाभूतं ञाणदस्सनं न सुविसुद्धं अहोसि, नेव तावाहं, भिक्खवे , सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय ‘अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धो’ति पच्चञ्ञासिं [अभिसम्बुद्धो पच्चञ्ञासिं (सी॰ स्या॰ कं॰)]।
‘‘यतो च खो मे, भिक्खवे, इमेसु चतूसु अरियसच्चेसु एवं तिपरिवट्टं द्वादसाकारं यथाभूतं ञाणदस्सनं सुविसुद्धं अहोसि, अथाहं, भिक्खवे, सदेवके लोके समारके सब्रह्मके सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय ‘अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुद्धो’ति पच्चञ्ञासिं। ञाणञ्च पन मे दस्सनं उदपादि – ‘अकुप्पा मे विमुत्ति [चेतोविमुत्ति (सी॰ पी॰)], अयमन्तिमा जाति, नत्थिदानि[नत्थि+इदानि] पुनब्भवो’’’ति। इदमवोच भगवा । अत्तमना पञ्चवग्गिया भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति ।
इमस्मिञ्च पन वेय्याकरणस्मिं भञ्ञमाने आयस्मतो कोण्डञ्ञस्स विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – ‘‘यं किञ्चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्म’’न्ति ।
पवत्तिते च पन भगवता धम्मचक्के भुम्मा देवा सद्दमनुस्सावेसुं – ‘‘एतं भगवता बाराणसियं इसिपतने मिगदाये अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तितं अप्पटिवत्तियं समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मुना वा केनचि वा लोकस्मि’’न्ति । भुम्मानं देवानं सद्दं सुत्वा चातुमहाराजिका देवा सद्दमनुस्सावेसुं – ‘‘एतं भगवता बाराणसियं इसिपतने मिगदाये अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तितं, अप्पटिवत्तियं समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मुना वा केनचि वा लोकस्मि’’न्ति। चातुमहाराजिकानं देवानं सद्दं सुत्वा तावतिंसा देवा…पे॰… यामा देवा…पे॰… तुसिता देवा…पे॰… निम्मानरती देवा…पे॰… परनिम्मितवसवत्ती देवा…पे॰… ब्रह्मकायिका देवा सद्दमनुस्सावेसुं – ‘‘एतं भगवता बाराणसियं इसिपतने मिगदाये अनुत्तरं धम्मचक्कं पवत्तितं अप्पटिवत्तियं समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मुना वा केनचि वा लोकस्मि’’न्ति ।
इतिह तेन खणेन (तेन लयेन) [( ) नत्थि (सी॰ स्या॰ कं॰)] तेन मुहुत्तेन याव ब्रह्मलोका सद्दो अब्भुग्गच्छि । अयञ्च दससहस्सिलोकधातु सङ्कम्पि सम्पकम्पि सम्पवेधि, अप्पमाणो च उळारो ओभासो लोके पातुरहोसि अतिक्कम्म देवानं देवानुभावन्ति ।
अथ खो भगवा इमं उदानं उदानेसि – ‘‘अञ्ञासि वत, भो, कोण्डञ्ञो, अञ्ञासि वत, भो, कोण्डञ्ञो’’ति! इति हिदं आयस्मतो कोण्डञ्ञस्स ‘अञ्ञासिकोण्डञ्ञो’ त्वेव नामं अहोसीति।
सूत्र का अंग्रेजी अनुवाद यहाँ पढ़ें ->> धर्मचक्र प्रवर्तन सुत्त