
कलकत्ता के काशीपुर में रामकृष्ण का देहावसान १६ अगस्त १८८६ को हुआ था। इसके चार महीने बाद दिसम्बर में बाबुराम के गाँव अंतपुर में बेरोजगार नवयुवक नरेंद्र, रखाल , शरत, शशि, काली इत्यादि ने स्वयं ही सन्यास वस्त्र धारण कर आजीवन सन्यासी रहने की प्रतिज्ञा ली थी। गौरतलब है इन नवयुवकों को सन्यास की परम्परा के अनुसार सन्यास प्राप्त नहीं हुआ था, हलांकि उन्हें गेरुआ वस्त्र रामकृष्ण से ही प्राप्त हुए थे। रामकृष्ण परमहंस के मरने के चार महीने पहले यही नरेंद्र गया में नौकरी करने जा रहे थे और कह रहे थे –ईश्वर -टीश्वर कुछ नहीं होता और अब विश्व कल्याण करने के लिए गैरिक वस्त्रधारी सन्यासी हो गये? इससे पहले ही इन बेरोजगार नवयुवकों ने ” कुछ करना है” ऐसा सोच कर किराये पर वारानगर मठ की स्थापना कर ली थी, उनका उद्देश्य निश्चित और स्पष्ट था।
वारानगर मठ नरेंद्र की सोच का परिणाम था। इन्होने वारानगर मठ में ‘दानवों का कमरा” बनाया था जिसमे इनकी बैठक होती थीं और आगे का कार्यक्रम तय किये जाते थे। रामकृष्ण की मृत्यु के बाद इन सन्यासी हुए नवयुवकों ने गुरु जी का पहला जन्मदिन वारानगर मठ में ही मनाया। वराहनगर में ही पहली शिवरात्रि २१ फरवरी १८८७ को मनाया गया- उस समय राखाल, नरेंद्र, निरंजन, शशी, काली, बाबूराम. तारक, हरीश, मास्टर, शारदा, गोपाल उपस्थित थे। सबने व्रत के साथ पूजा पाठ, धर्म चर्चा, नृत्यगीत किये और अंत में सुबह फल-फुल मिठाई इत्यादि से पारण करके प्रसाद के रूप में भांग (सिद्धि) ग्रहण किया। मठ में ही गुरु का कमरा बनाया गया था, वहां धुनी दी जाने लगी। इस वारानगर मठ से ही विवेकान्द की अपनी यात्रा का प्रारम्भ होता है।
सन 1888–1893 तक नरेंद्र ने सन्यासी वेश में भारत के धार्मिक स्थलों के साथ साथ हिमालय में स्थित आध्यात्मिक केन्द्रों हरिद्वार, ऋषिकेश में अपना समय व्यतीत किया। इस दौरान सन्यासी नरेंद्र अका स्वामी विवेकानंद (यह सन्यास का नाम किसी ने नहीं दिया यह स्वयं नरेंद्र ने ही चुना था) ने कामचलाऊं संस्कृत ग्रामर इत्यादि सीख कर वेदांत के ग्रन्थों को पढने का प्रयास किया, बाद में व्याकरण इत्यादि कुछ अच्छा भी कर पाए थे। लेकिन अंग्रेजी के उपनिवेशवादी अनुवादों पर उनकी ज्यादा आश्रितता थी; विशेषकर मैक्समुलर, पाँल डायसन इत्यादि पाश्चात्य विद्वानों के अनुवाद को उन्होंने खूब पढ़ा। पाश्चात्य दार्शनिको विशेषकर जर्मन दार्शनिकों के दर्शन में उनकी रूचि स्नातकीय शिक्षा के समय से ही खूब थी और अक्सर उनकी बौधिक दार्शनिक उड़ान की तुलना वेदांत से करने लगते थे, यहाँ तक कि बर्कले इत्यादि दार्शनिकों के दर्शन को ब्रह्मज्ञान ही कहने लगते थे। मैक्समुलर से मिलने के बाद पत्र में उन्होंने उसे वेदव्यास का अवतार बताया था जबकि यह उपनिवेशवादी हर अनुवाद में फुटनोट में वेदों-उपनिषदों की बाईबिल से तुलना करता दिखता है। इन पांच वर्षों में जो कुछ धर्म ग्रन्थों का अध्ययन हुआ था और जो कुछ गुरु के साथ सत्संग में उपदेशों में ज्ञान मिला था, वही जमा पूंजी लेकर विवेकानंद (सन 1893–1897 ) विदेश गये थे।
यहाँ बता देना जरूरी है कि रामकृष्ण से मिलने के पूर्व नरेंद्र दत्त केशव चन्द्र सेन के ‘नव विधान’ से जुड़े हुए थे जो एक बौधिक-सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चर्चा करने के लिए बना एक केंद्र या स्टडी सर्किल जैसा था। नरेंद्र के मनस पर ईसायत का गहरा प्रभाव स्कूली दिनों से ही था। अपने स्नातकीय दिनों में रामकृष्ण से जुड़ने के पूर्व वे केशव चन्द्र सेन के मिशनरी संगठन ‘बैंड ऑफ़ होप” के साथ साथ “फ्री मेशोंनरी” नामक इसाई संगठन से भी जुड़े थे। मध्ययुग में पश्चिम जगत में अनेक तरह के सीक्रेट सोसाइटीज कुकुरमुत्ते की तरह आस्तित्व में आई थीं, यह ‘फ्री मेंशोनरी” भी उसी तरह की एक सीक्रेट सोसाइटी थी। पश्चिम में नरेंद्र के साथ जितने भी नवयुवक थे वे सभी अग्रेजी माध्यम से ईसाई स्कूलों में पढ़े थे और सभी को बाईबिल और ईसाई धर्म की थोड़ी बहुत समझ थी। इन आधुनिक संगठनों में भी विवेकानंद को आधुनिक दर्शनों और विश्व की संस्कृतियों का थोड़ा बहुत ज्ञान अवश्य हुआ था। ये संगठन कलकत्ता के भद्रलोक द्वारा चलाये जा रहे थे और ईसाईयों द्वारा फंड किये जा रहे थे। इन संगठनों के कारण विवेकानंद को ईसाईयों ने हाथों हाथ ले लिया था। हम इसको यही विराम देकर आगे विषय पर आते हैं और देखते हैं कि दस वर्ष के इस सफर में विवेकानंद ने रामकृष्ण को कितना स्वीकार किया और उनका धर्म ज्ञान किस स्तर तक विकसित हुआ था।
विवेकानन्द अका नरेंद्र के लिए रामकृष्ण क्या थे? नरेंद्र की काली में आस्था कब हुई ? कैसे हुई ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर विवेकानंद ने स्वयं दिया है जिसे पाठकों के लिए क्रमश: उधृत किया जा रहा है – “How I used to hate Kâli!” he said, referring to his own days of doubts in accepting the Kali ideal, “And all Her ways! That was the ground of my six years’ Fought — that I would not accept Her. But I had to accept Her at last! Ramakrishna Paramahamsa dedicated me to Her, and now I believe that She guides me in everything I do, and does with me what She will… Yet I fought so long! I loved him, you see, and that was what held me. I saw his marvelous purity… . I felt his wonderful love… . His greatness had not dawned on me then. All that came afterwards when I had given in. At that time I thought him a brain-sick baby, always seeing visions and the rest. I hated it. And then I, too, had to accept Her! The future, you say, will call Ramakrishna Paramahamsa an Incarnation of Kali? Yes, I think there’s no doubt that She worked up the body of Ramakrishna for Her own ends. “You see, I cannot but believe that there is somewhere a great Power that thinks of Herself as feminine, and called Kali and Mother…And I believe in Brahman too…But is it not always like that? Is it not the multitude of cells in the body that make up the personality, the many brain-centers, not the one, that produce consciousness? Unity in complexity! Just so! And why should it be different with Brahman? It is Brahman. It is the One. And yet — and yet — it is the gods too!”
विवेकानंद का वेदांत इस जगह आकर भ्रमित हो जाता है और वे कहते हैं कि- “मैं यह विश्वास किये बिना नहीं रह सकता कि कोई शक्ति है जो खुद को स्त्री रूप में प्रकट करती है या खुद को स्त्री (फेमिनिन) समझती है अर्थात ब्रह्म के इतर एक देवी भी है! … और मैं ब्रह्म में विश्वास करता है .. और फिर देव वर्ग भी हैं।” उत्तरवेदांत के ग्रन्थ योगवशिष्ठ में वशिष्ठ राम को उपदेश करते हुए कहते हैं कि “हे राम ! यह भैरव जिसकी मैं उपासना करता हूँ वह मेरी निर्मिती है, इसका कोई अस्तित्व नहीं है।” ब्रह्म निराकार है, फिर सभी आकार उसके ही हैं चाहे प्रकट हों और मनुष्य की संकल्पना में हों। मनुष्य की जैसी संकल्पना होती है ईश्वर उसी अनुरूप प्रकट होने लगता है ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी” लेकिन वह ईश्वर उस संकल्पना से परे भी है, इसलिए उसके स्वरूप को पूर्णत: जान सकने में कोई सक्षम नहीं है। हिन्दू मूर्तिपूजा में देवताओं के स्वरूप का निरंतर विकास, हिन्दुओं के प्रस्थान और अवतारों के स्वरूप का क्रमश: उदात्त स्वरूप इस बात का साक्षी है। पूर्व में हिन्दुओं की संकल्पनाओं से उत्पन्न अवतारों, राम इत्यादि की अपेक्षा कृष्ण को पूर्ण कहने के पीछे कारण यही है।
मनुष्य की संकल्पना जितनी उदात्त होगी वह ईश्वर के उतने ही करीब होगा। दुर्गाशप्तशती में “सर्वेभ्यस्त्वति सुन्दरी” का तात्पर्य यही है कि देवी दुर्गा सुन्दरता की पराकाष्ठा हैं, उनसे सुंदर कोई नहीं .. इसलिए सुन्दरता की मनुष्य की संकल्पना जितनी उदात्त होगी उतना ही उसे दुर्गा के सुंदर स्वरूप का भान होगा। अविद्यारूप चित्त वृत्तियों से आत्मा का स्वरूप ढका हुआ है। उपनिषद में इसी बात को कहा गया है- “हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥” ज्योहिं इन वृत्तियों का निरोध होता है, चेतना परिष्कृत हो जाती है और आत्मा का निज स्वरूप प्रकट होने लगता है। कोई छवि (इमेज) चाहे वो पत्थर की हो या विचार या दर्शन की छवि हो वह मायिक ही है, वह ईश्वर नहीं है। कोई उदात्त इमेज देख कर मन निरुद्ध हो जाता है, मन करता है वहां बैठे ही रहें! कोई अद्भुत सौन्दर्य, एक अनोखा भूदृश्य या तारों भरी एक रात ईश्वर की खबर दे सकती है।
मेरी एक छोटी किताब रामकृष्ण परमहंस : आध्यात्म प्रसंग -१ से साभार