सनातन धर्म में सूर्य विद्या और कर्म दोनों के देवता और गुरु हैं. भगवान ने सृष्टि के प्रारम्भ में कर्मयोग का उपदेश भगवान सूर्य को ही प्रदान किया था. सूर्य से यही योग महाराज मनु, इक्ष्वाकु वंश के राजाओं जनक इत्यादि, ऋषियों और मनुष्यों को प्राप्त हुआ. सूर्य प्राकृतिक रूप से विद्या और सन्तति के कारण हैं. कालपुरुष की कुंडली में यह पंचम भाव के स्वामी हैं. सूर्य भगवान की कृपा के बगैर पुत्र रत्न की प्राप्ति सम्भव नहीं है. ब्रह्मांड के भुवन लोकों का ज्ञान भी सूर्य से प्राप्त होता है. सूर्य देव ज्योतिष विद्या के भी आदि गुरु हैं.
महर्षि पतंजलि के अनुसार- “भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात्” भुवनों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए सूर्य पर संयम करना चाहिए. रामायणी परम्परा में सूर्य अंजनिपुत्र हनुमान के गुरु हैं. बाल समय में हनुमान ने राहु से रक्षा करने के लिए सूर्य का भक्षण किया था.
जुग सहस्त्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।
यह कथा कई रूपों में प्रसिद्ध है और सभी जानते हैं. इसी कथा में उनके गुरु होने का रहस्य भी छिपा हुआ है. जिस समय हनुमान जी ने सूर्य को फल समझ कर निगल लिया था उस समय सूर्य ग्रहण था, राहु ने अपना आहार दूसरे द्वारा ग्रहण किये जाने के कारण देवराज इंद्र से इसकी शिकायत की थी. देवताओं के राजा देवराज इंद्र ऐरावत पर सवार हो राहु को उसका अधिकार दिलाने आये. राहू को देख हनुमान जी उसे ही बड़ा फल देख खाने दौड़े, तब वो ‘इंद्र इंद्र ‘ चिल्लाता भाग खड़ा हुआ. उसके भागते ही हनुमान जी की नजर ऐरावत पर पड़ी, उसे देख हनुमान उसे भी फल समझ उसकी तरफ लपके. यह देख भयभीत इंद्र देव ने वज्र से उन पर प्रहार किया जिससे उनकी ठुड्डी टूट गई. इससे दुखी वायुदेव ने वायु का सम्वरण कर लिया जिससे तीनो लोको में हाहाकार मच गया. सभी देवता ब्रह्मा जी को आगे कर वायु देव के पास गये और सबने हनुमान जी को अपने अपने अस्त्रों से अबध्य होने का आशीर्वाद दिया. सूर्य देव ने उन्हें अपने अंश का तेज प्रदान करते हुए उन्हें सम्पूर्ण विद्याओं को प्रदान करने का आशीर्वाद प्रदान किया था.
इस प्रकार सूर्य को लीलने की कथा में ही सूर्य देव हनुमान जी के गुरु बन गये. भगवान सूर्य की गति के साथ बिना विश्राम किये शिक्षा सिर्फ हनुमान जी ही प्राप्त कर सकते थे क्योकि वे रुद्रावतार थे. वेदों में सूर्य देव को भी रूद्र कहा गया है. वाल्मीकि रामायण में हनुमान जी द्वारा सूर्य से शिक्षा प्राप्ति का प्रसंग विस्तार में लिखा गया है.
असौ पुनर्व्याकरणं ग्रहीष्यन् सूर्योन्मुखः प्रष्टुमना कपीन्द्रः ।
उद्यद्गिरेरस्तगिरिं जगाम ग्रन्थं महद्धारयनप्रमेयः ॥
अप्रमेय वानरेन्द्र व्याकरण सीखने के लिए सूर्य के सम्मुख हो प्रश्न करते हुए, महाग्रंथ को याद करते हुए उदयांचल से अस्तांचल तक चले जाते थे. तुलसीदास ने भी लिखा है कि हनुमान जी ने भास्कर की ओर मुख करके पीठ की तरफ पैरों से प्रसन्न-मन आकाश-मार्ग में बालकों के खेल के समान गमन किया और उससे पाठ्यक्रम में किसी प्रकार का भ्रम नहीं हुआ-
भानुसों पढ़न हनुमान गए भानुमन,
अनुमानि सिसु केलि कियो फेर फारसो ।
पाछिले पगनि गम गगन मगन मन,
क्रम को न भ्रम कपि बालक बिहार सो ॥
कौतुक बिलोकि लोकपाल हरिहर विधि,
लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खबार सो।

