
महाभारत और पुराण दोनों में नहुष के इंद्र बनने और श्राप की कथा है. कथा के अनुसार पाण्डवों ने युद्ध का निमत्रण मद्रदेश के राजा शल्य के पास भी भेजा था. राजा शल्य पराक्रमी होने के साथ ही साथ नकुल और सहदेव के मामा भी थे. वे पाण्डवों के सहायतार्थ अपनी एक अक्षौहिणी सेना लेकर चले किन्तु दुष्ट दुर्योधन ने मार्ग में ही उनसे मिलकर उनकी अनेक प्रकार से सेवा करके तथा चिकनी-चुपड़ी बातें करके उन्हें अपनी ओर मिला लिया. जब बाद में विराट नगर के समीप जब युधिष्ठिर से उनकी भेंट हुई तो शल्य को दुर्योधन के साथ मिल जाने के अपने कृत्य पर पश्चाताप हुआ. किन्तु दुर्योधन को एक बार वचन दे देने के बाद वे अपना वचन तोड़ भी नहीं सकते थे इसलिये युधिष्ठिर से वे बोले, “धर्मराज! युद्ध में सहायता को छोड़कर तुम मुझसे कुछ और माँग लो.” इस पर युधिष्ठिर ने कहा, “मामाजी! जिस समय कर्ण और अर्जुन का युद्ध होगा उस समय आप हर प्रकार से कर्ण को हतोत्साहित करते रहिये.” शल्य बोले, “अच्छी बात है, मैं ऐसा ही करूँगा. साथ ही तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि विजय तुम्हारी ही होगी क्योंकि तुम धर्मात्मा हो और तुमने अनेक कष्ट सहे हैं. जिस प्रकार देवराज इन्द्र का कष्ट दूर हुआ था उसी प्रकार अब तुम्हारे भी कष्टों का अन्त होने वाला है.”
युधिष्ठिर ने पूछा, “तात्! इन्द्र को किस प्रकार का कष्ट हुआ था और कैसे उसका अन्त हुआ था?” शल्य ने उत्तर दिया, “हे युधिष्ठिर! बहुत पहले त्वष्टा नाम के एक प्रजापति थे. उनके त्रिशिरा नामक तीन सिर वाला एक पुत्र हुआ. वह तेजस्वी होने साथ बहुत बड़ा तपस्वी था. उसके उग्र तप से इन्द्र को अपने इन्द्रासन छिन जाने का भय हो गया और उसने अपने वज्र से त्रिशिरा का सिर काट डाला. त्रिशिरा का वध करने के कारण इन्द्र को ब्रह्महत्या का दोष लगा और वे इस महादोष के कारण स्वर्ग से पतित हो गये. इन्द्रासन खाली न रहने पाये इसलिये देवताओं ने मिलकर पृथ्वी के धर्मात्मा राजा नहुष को इन्द्र के पद पर आसीन कर दिया.
“नहुष अब समस्त देवता, ऋषि और गन्धर्वों से शक्ति प्राप्त कर स्वर्ग का भोग करने लगे. अकस्मात् एक दिन उनकी दृष्टि इन्द्र की पत्नी शची पर पड़ी. शची को देखते ही वे कामान्ध हो उठे और उसे प्राप्त करने का हर सम्भव प्रयत्न करने लगे. जब शची को नहुष की बुरी नीयत का आभास हुआ तो वह भयभीत होकर देव-गुरु की शरण में जा पहुँची और नहुष की कामेच्छा के विषय में बताते हुये कहा, “हे गुरुदेव! अब आप ही मेरी रक्षा करें.” गुरु बृहस्पति ने सान्त्वना दिया, “हे इन्द्राणी! तुम चिन्ता न करो. यहाँ मेरे पास रह कर तुम सभी प्रकार से सुरक्षित हो.” इस प्रकार शची गुरुदेव के पास रहने लगी और बृहस्पति इन्द्र की खोज करवाने लगे.
अग्निदेव ने एक कमल की नाल में सूक्ष्मरूप धारण करके छुपे हुये इन्द्र को खोज निकाला और उन्हें देवगुरु बृहस्पति के पास ले आये. इन्द्र पर लगे ब्रह्महत्या के दोष के निवारणार्थ देव-गुरु बृहस्पति ने उनसे अश्वमेघ यज्ञ करवाया. उस यज्ञ से इन्द्र पर लगा ब्रह्महत्या का दोष चार भागों मे बँट गया. एक भाग को वृक्ष को दिया गया जिसने गोंद का रूप धारण कर लिया. दूसरे भाग को नदियों को दिया गया जिसने फेन का रूप धारण कर लिया. तीसरे भाग को पृथ्वी को दिया गया जिसने पर्वतों का रूप धारण कर लिया. और चौथा भाग स्त्रियों को प्राप्त हुआ जिससे वे रजस्वला होने लगीं.
इस प्रकार इन्द्र का ब्रह्महत्या के दोष का निवारण हो जाने पर वे पुनः शक्ति सम्पन्न हो गये किन्तु इन्द्रासन पर नहुष के बैठे होने के कारण उनकी पूर्ण शक्ति वापस न मिल पाई. इसलिये उन्होंने अपनी पत्नी शची से कहा कि तुम नहुष को आज रात में मिलने का संकेत दे दो किन्तु यह कहना कि वह तुमसे मिलने के लिये सप्तर्षियों की पालकी पर बैठ कर आये. शची के संकेत के अनुसार रात्रि में नहुष सप्तर्षियों की पालकी पर बैठ कर शची से मिलने के लिये जाने लगा. सप्तर्षियों को धीरे-धीरे चलते देख कर उसने ‘सर्प-सर्प’ (शीघ्र चलो) कह कर अगस्त्य मुनि को एक लात मारी. इस पर अगस्त्य मुनि ने क्रोधित होकर उसे शाप दे दिया कि मूर्ख! तेरा धर्म नष्ट हो और तू दस हजार वर्षों तक सर्प योनि में पड़ा रहे. ऋषि के शाप देते ही नहुष सर्प बन कर पृथ्वी पर गिर पड़ा और देवराज इन्द्र को उनका इन्द्रासन पुनः प्राप्त हो गया. इसी प्रकार तुम भी अपना राज्य प्राप्त कर सुख भोगोगे.” इस प्रकार युधिष्ठिर को अनेक प्रकार से समझा-बुझा कर शल्य पुनः दुर्योधन के पास चले गये.