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परीक्षित महाराज अर्जुन के पौत्र और वीर अभिमन्यु के पुत्र हैं. पाण्डवों के स्वर्ग जाने के पश्चात राजा परीक्षित ऋषि-मुनियों के आदेशानुसार धर्मपूर्वक शासन करने लगे. उनके जन्म के समय ज्योतिषियों ने जिन गुणों का वर्णन किया था, वे समस्त गुण उनमें विद्यमान थे. उनका विवाह राजा उत्तर की कन्या इरावती से हुआ. उससे उन्हें जनमेजय आदि चार पुत्र प्राप्त हुए. इस प्रकार वे समस्त ऐश्वर्य भोग रहे थे. आचार्य कृप को गुरु बना कर उन्होंने जाह्नवी के तट पर तीन अश्वमेघ यज्ञ किये. उन यज्ञों में अनन्त धन राशि ब्रह्मणों को दान में दी और दिग्विजय हेतु निकल गये. दिग्विजय करते हुए परीक्षित सरस्वती नदी के तट पर पहुंचे. वहां पर राजा ने एक बैल और गऊ को पुरुष भाषा में बात करते हुए सुना. वो बैल केवल एक पैर पर खड़ा था जबकि गाय की दशा जीर्ण-शीर्ण थी और आँखों में आंसू थ.. ये बैल साक्षात् धर्म है और गऊ धरती माता है. बैल केवल एक पाँव पर खड़ा है. जो सत्य है.  बैल के तीन पाँव नही है  दया, तप और पवित्रता. बैल केवल एक पाँव पर खड़ा है. कलयुग में ना दया होगी, ना तप होगा, ना पवित्रता होगी केवल सत्य होगा.

बैल गाय से पूछता है की – “हे देवि पृथ्वी! तुम्हारा मुख मलिन क्यों हो रहा है? किस बात की तुम्हें चिन्ता है? कहीं तुम मेरी चिन्ता तो नहीं कर रही हो कि अब मेरा केवल एक पैर ही रह गया है या फिर तुम्हें इस बात की चिन्ता है कि अब तुम पर शूद्र राज्य करेंगे?”

पृथ्वी बोली – “हे धर्म! तुम सब कुछ जानकार भी मुझ से मेरे दुःख का कारण पूछते हो! सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, सन्तोष, त्याग, शम, दम, तप, सरलता, क्षमता, शास्त्र विचार, उपरति, तितिक्षा, ज्ञान, वैराग्य, शौर्य, तेज, ऐश्वर्य, बल, स्मृति, कान्ति, कौशल, स्वतन्त्रता, निर्भीकता, कोमलता, धैर्य, साहस, शील, विनय, सौभाग्य, उत्साह, गम्भीरता, कीर्ति, आस्तिकता, स्थिरता, गौरव, अहंकारहीनता आदि गुणों से युक्त भगवान श्रीकृष्ण के अपने धाम चले जाना के कारण मुझे पर घोर कलियुग गया है.

मुझे तुम्हारे साथ ही साथ देव, पितृगण, ऋषि, साधु, सन्यासी आदि सभी के लिये महान शोक है. भगवान श्रीकृष्ण के जिन चरणों की सेवा लक्ष्मी जी करती हैं उनमें कमल, वज्र, अंकुश, ध्वजा आदि के चिह्न विराजमान हैं और वे ही चरण मुझ पर पड़ते थे जिससे मैं सौभाग्यवती थी. अब मेरा सौभाग्य समाप्त हो गया है.”

जब धर्म और पृथ्वी आपस में बात कर रहे थे तभी एक काला-काला व्यक्ति आया और गऊ को लात मारी बैल को डंडे से मारा. महाराज परीक्षित अपने धनुषवाण को चढ़ाकर मेघ के समान गम्भीर वाणी में ललकारे – “रे दुष्ट! पापी! नराधम! तू कौन है? इन निरीह गाय तथा बैल को क्यों सता रहा है? तू महान अपराधी है. तेरे अपराध का उचित दण्ड तेरा वध ही है.” मैं तुझे जीवित नही छोड़ूंगा. इतना कह कर राजा परीक्षीत ने उस पापी को मारने के लिये अपनी तीक्ष्ण धार वाली तलवार निकाली. वो पाप पुरुष डर गया और परीक्षित जी महाराज के चरणो में गिर गया और क्षमा मांगने लगा.

वो बोला- हे राजन! मैं कलयुग हूँ. श्री कृष्ण के जाने के बाद अब द्वापर युग खत्म हो गया है और कलयुग का आगमन हो गया है. अब मेरा राज चलेगा. राजा परीक्षित बोले की अधर्म, पाप, झूठ, चोरी, कपट, दरिद्रता आदि अनेक उपद्रवों का मूल कारण केवल तू ही है. अतः तू मेरे राज्य से तुरन्त निकल जा और लौट कर फिर कभी मत आना.” यह सुनकर कलयुग बोला- मैं कहाँ जाऊं? जहाँ तक सूर्य और चन्द्रमा का प्रकाश है मुझे आप धनुष बाण लिए दिखाई देते हो? अब मुझ पर दया करके मेरे लिए कोई तो स्थान बताइये?

परीक्षित बोले की आपके अंदर केवल और केवल अवगुण है अगर एक भी गुण तेरे अंदर है तो बता? मैं फिर तुझे कोई स्थान अवश्य दूंगा. इस पर कलयुग बोला हे महात्मन! आप बड़े दयालु है। माना की मेरे अंदर अवगुण ही अवगुण है लेकिन एक सबसे बड़ा गुण है. कलियुग में केवल भगवान नाम, हरी नाम से ही मुक्ति संभव है. भगवान को पाने के लिए कोई लम्बे चौड़े यज्ञ, हवन, पूजा और विधि विधान की जरुरत नही पड़ेगी. कलियुग इस तरह कहने पर राजा परीक्षित सोच में पड़ गये. फिर विचार कर के उन्होंने कहा – “हे कलियुग! द्यूत(जुआखाना), मद्यपान(मदिरालय), परस्त्रीगमन(वैश्यालय) और हिंसा(कसाईखाना) इन चार स्थानों में असत्य, मद, काम और क्रोध का निवास होता है. इन चार स्थानों में निवास करने की मैं तुझे छूट देता हूँ.” यदि व्यक्ति अपना भला चाहे तो इन चारों से दूर रहना चाहिए.

कलयुग ने राजा का बहुत धन्यवाद किया और बोला- हे राजन आपने चारों स्थान अपनी मर्जी से दिए है एक स्थान में भी आपसे मांगता हूँ, आप देने की कृपा करे. कृपा करके मुझे स्वर्ण(सोने) में भी स्थान दे दें. तब परीक्षित महाराज ने उसे सोने में भी स्थान दें दिया. कलयुग को वचन देकर जब राजा परीक्षित अपने महल में लौटे तो अचानक अपने कोषागार में चले गए. जहां एक संदूक देखकर ठिठक गए. संदूक खोला तो उसमें चमचमाता हुआ सोने का मुकुट देखा. इतना सुंदर मुकुट देखकर राजा की आंखें चौधियां गई और उस मुकुट को राजा परीक्षित ने अपने सिर पर धारण किया, वह मुकुट पांडव जरासंघ को मार कर लाए थे और कोषागार में जमा कर दिया. किसी भी पांडव ने उसे धारण नहीं किया. कलियुग के प्रभाव से ही राजा परीक्षित ने मुकुट सिर पर धारण किया. क्योंकि सोने में कलयुग को स्थान दे दिया था, इस कारण राजा परीक्षित की बुद्धि फिर गई. उसी दिन उनका मन शिकार करने के लिए हुआ. परीक्षित जी महाराज ने अपने धनुष बाण उठाये और वन में शिकार करने के लिए चल दिए.राजा वन में शिकार करते करते बहुत आगे निकल गए. इनका सैनिक समुदाय काफी पीछे रह गया. काफी आगे जाने के बाद इन्हे प्यास लगी है. थोड़ी दूर पर इन्हे एक कुटिया दिखाई दी. जिसमे एक संत शमीक ऋषि जी आँखे बंद करके भगवान का ध्यान कर रहा था. राजा ने सोचा की ये संत ढोंग कर रहा है. राजा ने संत से पानी माँगा. लेकिन संत की समाधि सच्ची थी.जब संत ने इसे पानी नही दिया तो इसे गुस्सा आया वहां एक मारा हुआ सर्प पड़ा हुआ था. वो सर्प उठाया और संत के गले में डाल दिया. इस तरह इन्होने संत का अपमान किया और अपने महल में चले आये.

शमीक ऋषि तो ध्यान में लीन थे। उन्हें ज्ञात ही नहीं हो पाया कि उनके साथ राजा ने क्या किया है लेकिन उनके पुत्र ऋंगी ऋषि को जब इस बात का पता चला तो उन्हें राजा परीक्षित पर बहुत क्रोध आया. ऋंगी ऋषि ने सोचा कि यदि यह राजा जीवित रहेगा तो इसी प्रकार ब्राह्मणों का अपमान करता रहेगा. इस प्रकार विचार करके उस ऋषिकुमार ने कमण्डल से अपनी अंजुली में जल ले कर तथा उसे मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके राजा परीक्षित को यह श्राप दे दिया कि जा तुझे आज से सातवें दिन तक्षक सर्प डसेगा.

जब शमीक ऋषि समाधि से उठे तो उनके पुत्र श्रृंगी ने सभी बातें अपने पिता को बताई. ऋषि बोले की बेटा तूने यह अच्छा नही किया. वो एक धर्म राजा है. तुमने बड़ा अनर्थ किया. कलि के प्रभाव के कारण उस राजा को क्रोध आ गया और उसने सर्प डाल दिया. संत बोले बेटा अब तो श्राप वापिस हो नही सकता. तुम राजा के पास जाओ और इस बात की खबर दो की सातवें दिन तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी. ऋषि शमीक को अपने पुत्र के इस अपराध के कारण अत्यन्त पश्चाताप होने लगा. जब परीक्षित महाराज अपने महल में पहुंचे और वो सोने का मुकुट उतारा तो कलयुग का प्रभाव समाप्त हो गया. अब परीक्षित जी महाराज सोच रहे है ये मैंने क्या कर दिया. एक संत के ब्राह्मण के गले में सर्प डाल दिया. मैंने तो महापाप कर दिया. राजा बहुत दुखी हो रहे थे और सोच रहे थे कि इसका पश्चाताप कैसे हो. उसी समय ऋषि शमीक का भेजा हुआ एक गौरमुख( द्रोमुख) नाम के शिष्य ने आकर उन्हें बताया कि ऋषिकुमार ने आपको श्राप दिया है कि आज से सातवें दिन तक्षक सर्प आपको डस लेगा. राजा परीक्षित ने शिष्य को प्रसन्नतापूर्वक आसन दिया और बोले – “ऋषिकुमार ने श्राप देकर मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है.

मेरी भी यही इच्छा है कि मुझ जैसे पापी को मेरे पाप के लिय दण्ड मिलना ही चाहिये. आप ऋषिकुमार को मेरा यह संदेश पहुँचा दीजिये कि मैं उनके इस कृपा के लिये उनका अत्यंत आभारी हूँ.” उस शिष्य का यथोचित सम्मान कर के और क्षमायाचना कर के राजा परीक्षित ने विदा किया. परीक्षित ने तुरंत अपने पुत्रो जनमेजय आदि को बुलाया और राज काज का भार उनको सौंप दिया. सब कुछ छोड़ कर परीक्षित केवल एक लंगोटी में घर से निकल गए और संकल्प ले लिया की अब ये जीवन भगवान की भक्ति में ही बीतेगा. अब तक मैंने भगवान को याद नही किया लेकिन अब और इस संसार में नही रहना है. उन्हें वैराग्य हो गया. इसके बाद ही उनके भागवत कथा सुनने की भूमिका तैयार हुई.

उसी समय वहाँ पर व्यास ऋषि के पुत्र, जन्म मृत्यु से रहित परमज्ञानी श्री शुकदेव जी पधारे। समस्त ऋषियों सहित राजा परीक्षित उनके सम्मान में उठ कर खड़े हो गये और उन्हें प्रणाम किया। उसके बाद अर्ध्य, पाद्य तथा माला आदि से सूर्य के समान प्रकाशमान श्री शुकदेव जी की पूजा की और बैठने के लिये उच्चासन प्रदान किया। उनके बैठने के बाद अन्य ऋषि भी अपने अपने आसन पर बैठ गये।

सभी के आसन ग्रहण करने के पश्चात् राजा परीक्षित ने मधुर वाणी मे कहा – “हे ब्रह्मरूप योगेश्वर! हे महाभाग! भगवान नारायण के सम्मुख आने से जिस प्रकार दैत्य भाग जाते हैं उसी प्रकार आपके पधारने से महान पाप भी अविलंब भाग खड़े होते हैं। आप जैसे योगेश्वर के दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है पर आपने स्वयं मेरी मृत्यु के समय पधार कर मुझ पापी को दर्शन देकर मुझे मेरे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दिया है।

आप योगियों के भी गुरु हैं, आपने परम सिद्धि प्राप्त की है। अतः कृपा करके यह बताइये कि मरणासन्न प्राणी के लिये क्या कर्तव्य है? उसे किस कथा का श्रवण, किस देवता का जप, अनुष्ठान, स्मरण तथा भजन करना चाहिये और किन किन बातों का त्याग कर देना चाहिये?

गुरुदेव कहते है की ये प्रश्न केवल परीक्षित का नही है प्रत्येक जीव का है। क्योंकि हम सब मृत्य के निकट है। हमारी मृत्यु कभी ही हो सकती है। राजा को तो 7 दिन का समय भी मिल गया लेकिन हमें तो ये भी नही पता की हम किस दिन मरेंगे।

तो जवाब में गुरुदेव कहते है जीवन के सात ही दिन है भैया! सोमवार से लेकर रविवार तक। और इन्ही सात दिनों में एक दिन हमारा दिन भी निश्चित है। इसलिए प्रत्येक दिन भगवान का स्मरण, कीर्तन और भजन करो।

इस प्रकार शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को श्रीमद् भागवत कथा का रस पान करवाया है और इन्हे मुक्ति मिली है। भगवान का लोक मिला है।

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