कार्तिक मास अनेक कथाएं हैं. इन अनेकानेक कथाओं में ही गजराज और विष्णु के पार्षद जय-विजय की कथा है. पूर्व काल में देवहुति की कन्या तृणबिंदु के गर्भ से कर्दम ऋषि की दृष्टि मात्र से दो पुत्र उत्पन्न हुए थे. उनमें से बड़े का नाम जय और छोटे का नाम विजय था. इनके जन्म के बाद भगवान कपिल का जन्म हुआ था जिन्होंने सांख्य योग का उपदेश किया था. जय-विजय विष्णु के परम भक्त थे, उनका व्रत, पूजन तथा जप इत्यादि सदैव करने वाले थे. इनकी विद्वता और ज्ञान ख्याति दूर दूर तक थी.
एक समय राजा मरुत ने इन दो ब्राह्मण युवकों को अपने यज्ञ में बुलाया. उस यज्ञ में जय को ब्रह्मा और विजय को आचार्य बनाया गया. जब यज्ञ पूर्ण हुआ तो दक्षिणा का विभाजन हुआ. जय ने कहा -धन को बराबर बाँट लेते हैं. विजय ने कहा- नहीं, जो जिसको मिला है वही उसका है. ऐसे क्रोधित होकर जय ने शाप देते हुए कहा -तू ग्राह बन जा. इसके उत्तर में विजय ने भी श्राप दे दिया – तू मातंग की योनि में जा. तदुपरांत दोनों को होश आया तो दोनों ने भगवान से प्रार्थना की कि इस श्राप से कैसे मुक्त हों. भगवान विष्णु प्रकट हुए और कहा कि दोनों इस श्राप का फल भोग कर मेरे धाम को प्राप्त हो जाओगे.
तदन्तर दोनों गण्डकी नदी पर ग्राह और गजराज हाथी हो गये. लेकिन उन्हें पूर्व जन्म का स्मरण बना रहा. किसी समय कार्तिक महीने में गजराज नदी में कार्तिक स्नान करने गया. उस शाप के कारण ग्राह ने उसे पकड़ लिया. तब भयभीत गजराज ने भगवान विष्णु का स्मरण किया. भगवान वहीं प्रकट हो गये और चक्र से ग्राह का बध कर दिया . उसी समय दोनों श्राप से मुक्त होकर बैकुंठ चले गये. यही दोनों बाद में भगवान के प्रसिद्ध जय-विजय पार्षद बने.
कार्तिक, माघ और बैशाख महीने में स्नान का बहुत बड़ा फल बताया गया है. इससे पुण्यवशात मुक्ति भी हो जाती है.

