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गोमाता भारत के रग-रग में बसती हैं. वेदों और पुराणों से लेकर लोककथाओं तक में उनकी महिमा का गान किया जाता रहा है. पुन्यकोटि गोमाता इस लोक और परलोक दोनों में ही अपनी महिमा में सबसे ऊपर विराजमान हैं. “उपरिष्टात्ततोSस्माकं वसंत्येता: सदैव ही” अर्थात हे इंद्र! गौ माता हम देवों  के लोक से ऊपर के लोक में विराजमान हैं, ऐसा ब्रह्माजी ने इंद्र से कहा था. कर्नाटक की वाचिक परम्परा में पुन्यकोटि को लेकर कन्नड़ में लिखा गया गीत आज भी जनमानस का हिस्सा है, इसे घर-घर में गया जाता है. उत्तर भारत में गौमाता की कथा घर-घर में भले ही न कही जाती हो लेकिन इस राज्य में पुन्यकोटि की कथा बड़े चाव से कही और सुनी जाती है. ”पुन्यकोटि-गोविना हादू” नाम से लिखी गई इस कविता द्वारा लेखक ने भारतीय संस्कृति के सनातन मूल्यों को प्रस्थापित किया गया है.  एक तरफ भारत संस्कृति का एक मूल्य गृहस्थ जीवन और मातृत्व है तो दूसरी तरफ सत्य और धर्म पर चलना, इन दोनों के बीच कैसे संतुलन स्थापित किया जाय जिससे कि  दोनों तरफ पूर्णता की उपलब्धि हो, इसमें से कुछ भी छूट न जाये? पुन्यकोटि की यह कथा इसी उधेड़बुन के बीच चलती है. भगवान वेदव्यास जी ने पुराणों द्वारा कथा की परम्परा का विकास आम जनमानस को उदात्त अध्यात्मिक भावभूमि पर उठाने के लिए ही किया था. गोविना हादू की कथा कोई नई कथा नहीं है, स्कन्द पुराण की कथा को ही लेखक ने नये ठंग से कहा है. इन लोक कथाओं में लोक और वेद एक रंग हो जाते हैं.

गोविना हादू की कथा के अनुसार: एक समय कर्नाटक के किसी  गाँव में एक गाय पुन्यकोटि अपने इकलौते बछड़े के साथ रहती थी. आसपड़ोस की गायों का झुण्ड ने पुन्यकोटि को अपना नेता भी मान रखा था. एक दिन घास चरते चरते पुन्यकोटि झुण्ड के साथ पास के घने जंगलों में प्रविष्ट हो जाती है, जहाँ झुण्ड का साक्षात्कार हुलिया नाम एक एक बाघ से होता है. शिकार की घात लगाये बैठा बाघ एक चट्टान के ऊपर से गायों के झुण्ड पर कूदता है, लेकिन दुर्भाग्य से वह चूक जाता है और गायों का झुण्ड भाग खड़ा होता है. झुण्ड के भाग खड़े होने पर हुलिया एक दूसरी चट्टान को ओट में घात लगाकर बैठता है. थोड़ी देर बाद देखता है कि एक अकेली गाय उसकी तरफ चली आ रही है. यह पुन्यकोटि थी जो हुलिया की उपस्थिति से अनजान थी. सुनहरे मौके को हाथ में आया देख हुलिया चट्टान की ओट से पुन्यकोटि के सामने आ धमकता है. वह गाय को सावधान करता है “हे गाय! मैं बहुत दिनों से भूखा हूँ, मैं आज तुझे खा कर अपनी भूख मिटाना चाहता हूँ; तू मरने के लिए तैयार हो जा” यह कहकर वह गाय को मारने के लिए आगे बढ़ता है, तब पुन्यकोटि शेर से विनय पूर्वक यह कहती, “ हे राजन! मैं तुम्हारा भोजन बनने के लिए तैयार हूँ लेकिन अभी मुझे घर जाने दो, मेरा बच्चा भूखा होगा मेरी राह देख रहा होगा. मैं शपथ खा कर कहती हूँ मैं तुम्हारा भोजन बनने के लिए जरूर उपस्थित होउंगी. मैं अपने बच्चे को दूध पिलाकर शीघ्र वापस आउंगी. आप मेरा यहीं पर थोड़े समय तक इन्तेजार करो!“ शेर गाय के बहकाने में नहीं पड़ना चाहता है, वह गाय पर कैसे विश्वास करे? शेर गाय से पूछता है, “ क्या मैं तुम्हें मूर्ख दिखता हूँ? मैं तुम पर कैसे विश्वास करूँ भला ? इस दुनिया में कौन है जिसे अपने प्राणों का मोह नहीं है! महर्षि याज्ञवल्क्य ने स्पष्ट कहा था “न वा अरे पत्‍युः कामाय पतिः प्रियो भवत्‍यात्‍मनस्‍तु कामाय पतिः प्रियो भवति। न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया भवन्त्‍यात्‍मनस्‍तु [..]!” तुम मेरा शिकार हो मैं तुम्हे नहीं जाने दे सकता हूँ .” शेर की बात सुनकर पुन्यकोटि कहती है, “ हे राजन! तुम मेरा विश्वास करो. मैं पृथ्वी को साक्षी मान कर शपथ लेती हूँ कि मैं अपने वचनों से पीछे नहीं हटूँगी. सत्य ही मेरा पिता है, सत्य ही मेरी माँ है. सत्य ही मेरा मित्र और सत्य ही मेरे सगे सम्बन्धी हैं. यदि मैं सत्य से दूर होती हूँ तो क्या ईश्वर मुझे कभी माफ़ करेगा ?“ गाय द्वारा भली भांति शपथ लेने और सत्य निष्ठा पर आग्रह से शेर कहता है, “तुम्हारे शपथ और सत्य निष्ठा को देखते हुए मैं तुम्हे जाने देता हूँ. लेकिन शीघ्र आना !” गाय हुलिया को धन्यवाद देकर घर की तरफ दौड़ती है और अपने बछड़े से मिलती है वह उसे दूध पिलाती है और दुलारती है.

दूध पी चुकने है के बाद बछड़े से पुन्यकोटि कहती है “मेरे लाडले! मुझे हमेशा के लिए तुम्हे छोड़ कर जाना होगा. मेरा यह समय उधार का है. हुलिया शेर ने जंगल मुझे पकड़ लिया था और मैं उसके चुंगल से बड़ी शपथ देने के बाद तुम्हारे पास आ पाई हूँ. मुझे उसको दिया वादा निभाना ही होगा. बछड़ा रोते हुए कहता है,“ नहीं माँ मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगा. आज से हम उधर जायेंगे ही नहीं. हम अपना चारागाह बदल लेंगे, रास्ता बदल लेंगे. हुलिया फिर तुम्हारा कुछ नहीं कर पायेगा.” यह संवाद सुनकर पड़ोस की सभी गाये वहां आ पहुंचती हैं. सभी बछड़े की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहती हैं, “हाँ हाँ यह एकदम सही कह रहा है! हम यहाँ तक की अपनी आवाज भी बदल लेंगे. हम आपस में संकेतों से बात करेंगे! तुम मत जाओ हुलिया हमारा कुछ नहीं कर पायेगा.” पुन्यकोटि उनकी बातों से असहमत होते हुए कहती है, “तुम्हारे उपायों से हो सकता है मैं हुलिया से बच जाऊं, लेकिन मैं अपने आप से किस तरह बचूँगी? क्या मैं खुद से भाग पाऊँगी? क्या वह अपराधबोध मुझे मरते समय तक भीतर ही भीतर सालता नहीं रहेगा? मैं स्वप्न में भी विश्वास और सच की हत्या नहीं कर सकती. बहनों मुझे जाना ही होगा! सत्य के मार्ग से ही देवयान का विस्तार होता है, ऐसा शास्त्र कहते हैं. सत्य से न भागना ही अमृतत्व है. यही धर्म है.” यह कह कर पुन्यकोटि जंगल की तरफ चल पड़ती है.
बछड़ा रास्ता रोकता है और पूछता है “माँ रुक जाओ, मत जाओं ! यदि तुम चली जोगी तो मुझे दूध कौन पिलाएगा?” पुन्यकोटि वात्सल्य की दृष्टि से उसे निहारती है फिर अन्य गौओं की तरफ मुड़ती है और कहती है, “ मेरी प्यारी बहनों! मेरे बछड़े को अपने बछड़े जैसा प्यार देना, उसकी वैसे ही परवरिश करना क्योंकि वह और तुम एक ही हो.” यह कह कर वह अपने रास्ते चल पड़ती है और थोड़ी देर बाद शेर के सामने जा खड़ी होती है. शेर उसे सामने खड़ा देख हैरान होता, उसके आश्चर्य का कोई पारावार नहीं है. हतप्रभ शेर पुन्यकोटि से कहता है, “हे सत्यमूर्ति आप पुन्यकोटि हैं. मैं आपको कैसे मार सकता हूँ? आप अपने बछड़े के पास लौट जाएँ. इस सारी दुनिया में मैं ही बड़ा पापी हूँ.” यह कह कर अपराधबोध में शेर हुलिया पहाड़ से निचे खाई  में कूद कर अपने प्राण त्याग देता है.

यह लोक कथा कर्नाटक में बहुत प्रसिद्ध है. कर्नाटक के स्कूलों में बच्चे भी इसका नाट्य  मंचन करते हैं. हिंदी में “एक थी पुन्यकोटि” नाम से फिल्म भी बन चुकी है जिसमें मोहम्मद रफ़ी ने इस कथा को गाया है.