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माघ महात्म्य की यह कथा पद्म पुराण में कही गई है. कथा के अनुसार नर्मदा के तट से कुछ दूर पर स्थित अकलंक नामक गाँव में एक वेदों का ज्ञाता ब्राह्मण निवास करता था. उसका नाम सुव्रत था. वह सभी वेदांगों में पारंगत था और अनेक भाषाओँ को जानने वाला था. सब कुछ उसने धन कमाने के लिए सीखा लेकिन भिन्न भिन्न गुरुओं को दक्षिणा तक नहीं दिया. उसने बहुत धन कमाया और धर्म के अन्याय मार्ग से धन संग्रह किया. उसने उन चीजों का विक्रय किया जो ब्राह्मण को शास्त्रों में वर्जित है. उसने कन्या भी बेच कर धन अर्जित किया. धन कमाने के पीछे उसका धर्म पीछे छुट गया. धनोपार्जन करते करते उसकी वृद्धावस्था आ पहुंची. अब वह कुछ करने योग्य नहीं रहा. धन का स्रोत भी बंद हो गया. तब वह चिंतित होकर व्याकुल हो सोचने लगा.

मैंने नीच प्रतिग्रह (दान) से, न बेचने योग्य वस्तु को बेचने से, अधर्म से धन कमाया है. लेकिन इस धन से मुझे शांति नहीं मिलती. मेरी लालसा अनंत है और अत्यंत दु:सह है. यह मेरु के समान असंख्य सुवर्ण पाने की अभिलाषा रखती है. बूढ़े होने पर सिर के बाल पक गये हैं, दांत टूट गये हैं, आँख और कानो की शक्ति जाती रही, किन्तु तृष्णा भूतनी की तरह बनी हुई है. जिसके भीतर इस तरह अनंत कामनाएं हैं वह बुद्धिमान होकर भी अत्यंत मूर्ख है. मैं अब से परलोक सुधारूँगा और धर्म करूंगा. ऐसा निश्चय कर ब्रह्मण एक रात सो गया. उसी रात चोर घर में घुस गये और उसे खम्भे से बांध कर सारा धन लेकर चम्पत हो गये. मुझे लिखते समय चम्पत राय की सोना लूटने की बात का स्मरण हो रहा है. खैर, धन लूट जाने के बाद वह अधर्मी विलाप करने लगा- हाय ! मेरा धन कमाना, भोग और मोक्ष किसी काम नहीं आया. न मैंने उसे भोगा और न दान ही दिया. यह धन का अधर्म मार्ग से उपार्जन किस काम का रहा ? सब जगह गलत लोगो से दान लिया, पाप मार्ग से कमाए धन का दान लिया, एक ही गाय का प्रतिग्रह लेना चाहिए लेकिन अनेक गायें प्रतिग्रह में ली और उसे बेचा. हमने मदिरा तक का क्रय-विक्रय किया. यदि एक गाय दान में ली तो दूसरी गाय का प्रतिग्रह लेना कदापि उचित नहीं. उस गौ को यदि बेचा जाय तो 7 पीढियां दग्ध हो जाती हैं, ऐसा शास्त्र में लिखा गया है. मैंने लोभ वश इस तरह के जघन्य पाप किये. हमने कोई धर्म नहीं किया. हमने न सन्यासी का सत्कार किया, न गुरु को दक्षिणा दी और न ही अतिथियों की सेवा ही की. मैंने ब्राह्मणों को वस्त्र, अन्न का दान तक नहीं किया. हमने न कोई तप किया, न कोई जप किया. हमने न शिव पूजा की और न व्रत ही किया. अब तो मैं बुढा और असमर्थ हूँ. हाय ! मैं तो नरक ही जाऊंगा, यह निश्चित है. मुझ पर बड़ा भारी कष्ट आ पड़ा है. मेरे पास परलोक सुधारने के लिए आवश्यक धन नहीं रहा. मैं दान कैसे दूंगा ? तीर्थ कैसे करूंगा?

इस प्रकार व्याकुल चित्त वह ब्राह्मण विलाप करने लगा. तभी उसे स्मरण आया . अहो ! मेरी समझ में आ गया, आ गया. मैं धन कमाने कश्मीर गया था. उस समय मार्ग में भागीरथी तट पर अनेक विद्वान प्रात: काल में माघ स्नान करके बैठे थे और जप-तप कर रहे थे. उस ब्राह्मणों में एक ब्राह्मण ने यह श्लोक कहा था –

माघे निमग्ना सलिले सुशीते
विमुक्तपापास्त्रिदिवं प्रयान्ति !

माघ मास में शीतल जल के भीतर डुबकी लगाने वाले मनुष्य पाप मुक्त होकर स्वर्ग लोक जाते हैं.

यह बहुत प्रामाणिक वचन है अतः इसके अनुसार ही मैं अगले माघ महीने में प्रतिदिन नर्मदा स्नान करूंगा और वहीं तट पर निराहार शिव जी का मन्त्र जपूंगा. इस प्रकार माघ महीना आया और उस पापी ब्राह्मण ने एक महीने तक नर्मदा तट पर निवास कर विधि पूर्वक माघ स्नान किया. वह विद्वान् था इसलिए उसने जप इत्यादि भी विधिपूर्वक किया. इस एक महीने के तप से वह पाप मुक्त हो गया और उसे स्वर्ग लोक की प्राप्ति हुई.