ज्योति भीतर है. ज्योति बाहर है. बाहर की ज्योति भीतर की ज्योति को प्रकट करने के लिए उत्प्रेरक मात्र है. ज्योति का मूल ऊपर है. इसकी शाखाएं (किरणें) नीचे तक फैली हो हैं. इतना ही ज्योतिष है. –
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।
ज्योति का मूल सूर्य ऊपर है. इस सूर्य की शाखाएं नीचे भूमि तक फैली हुई हैं. यह सूर्य अश्वत्थ (अश्नाति अंधकारकं ) अर्थात अंधकार का अशन भक्षण करने वाला शाश्वत है. पृथ्वी को अच्छादित करने वाले चन्द्र, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि आदि ग्रह पर्ण है (रक्षक ) हैं. जो इस तथ्य को जानता है वह ब्रह्म को जानता है. दूसरी तरह से देखो तो ज्ञान का मूल स्रोत सहस्रसार में है. इससे निकली तंत्रिकाएं देहांगों में नीचे तक फैली हुई हैं. सम्वेदना का भक्षण करने से यह मस्तिष्क अश्वत्थ है. यह आजीवन आक्षीण रहता है. शरीर में फैली समस्त ग्रन्थियां इसकी पोषक (पर्ण) हैं. इसका बोध जिसे है वह ज्योतिषी है.
यह शरीर ही वेद है. इसका कारक लग्न पति सूर्य है. इसका मूल सिर है, दोनों हाथ और पैर इसकी शाखाएं हैं. यह शरीर सन्तति प्रवाह के कारण अव्यय है. त्वचा, नख, केश, रोमादि इसके पत्ते हैं. ज्योतिष पुरुष का वर्णन इस प्रकार किया गया है –
नमो द्विशीर्ष्णे त्रिपदे चतु:शृङ्गाय तन्तवे ।
सप्तहस्ताय यज्ञाय त्रयीविद्यात्मने नम: ॥
जिसके दो सिर ( उत्तरायण और दक्षिणायन) हैं, उस काल पुरुष को नमस्कार है. उस पुरुष के तीन पैर (भू: भुव: स्व: रूप हैं), उसकी चार सिंगे हैं ( प्रात:, मध्याह्न, सायं और निशीथ सवन रूप हैं), यह तन्तुमान हैं. उसके सात हाथ ( सप्तवर्ण रश्मि रूप हैं ). यह यज्ञ स्वरूप है और सदैव त्रयी-विद्यात्मक हैं.
इसी का वर्णन ऋग्वेद में इस प्रकार है –
चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा:, द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्याँ आविवेश॥–ऋग्वेदः ४.५८.३
ग्रह नक्षत्रों का प्रकाश भी इस परमात्मा का ही प्रकाश है. इस पृथ्वी लोक के लिए सूर्य-चन्द्र उसका प्रतिनिधि हैं इसलिए “सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च” कहा गया है. यही ज्योतिपुरुष चर, अचर, द्विस्वभाव राशियों का प्रकाश भी है. यही पूर्वी क्षितिज पर उदित होता है और पश्चिमी क्षितिज में समा जाता है.
यही सभी प्राणियों में सतत अनुप्रविष्ट है. इसी पुरुष का स्वागत भोर में पक्षी चहचाहते हुए करते हैं. यह प्रकाश ही सबका विभिन्न रूपों में कारक है. तन्त्र, जादू-टोना, प्रेतविद्या करने वाले ज्योतिषी इस ज्योतिष को नहीं जानते इसलिए वे ठगी में नियुक्त रहते हैं. जो इस ज्योतिष को जानता है वह कर्म रहस्य को भी जानता है. कर्मणा ह्यापि बोधव्यं ..गहना कर्मणो गति:..”
-पं. श्री श्यामजीत दूबे ‘आथर्वण’

