वैदिक ज्योतिष सम्वत्सर आधारित है. सम्वत्सर 12 है जो बारह आदित्यों द्वारा शासित हैं. सूर्य के सम्वत्सर चक्र में दो दो राशियों के क्रम से छह ऋतुएं होती हैं. ऋतुओं के हिसाब से ही प्रकृति का शुभत्व है. औषधियों के वृक्ष अपनी ऋतुकाल में बलवान होती है. कहा गया है “मूले शुष्के बलं चार्धं मूलादौ भेषजे तथा ” अर्थात ग्रीष्म और वर्षा ऋतु में औषधियों में आधा बल रहता है. वहीं शरद ऋतु में पूर्ण बलवान होते हैं.
समष्टिगत ऋतुओं का आगमन दो दो राशि और मास के क्रम से है. वहीं ये छह ऋतुयें अहोरोत्र अर्थात 24 घंटे में 4 घंटे (दस घड़ी) के हिसाब से भी व्यष्टि में कही गई है. प्रात: चार घंटे वसंत ऋतु, दोपहर चार घंटे ग्रीष्म ऋतु, अपराह्न चार घंटे वर्षा ऋतु, प्रदोष काल के चार घंटे सायं में शरद ऋतु, मध्य रात्रि चार घंटे हेमंत ऋतु और तदुपरांत सुबह तक शिशिर ऋतु कही गई है. इस ऋतु विभाग के अनुसार ही शास्त्रों में षटकर्म अर्थात मारण, मोहन, वशीकरण, विद्वेषण, पुष्टि कर्म, उच्चाटन आदि बताये गये हैं.
“शारदे शांतिकं चैव हेमन्ते पौष्टिकं तथा …” शास्त्रों के अनुसार वसंत में वशीकरण कर्म , ग्रीष्म में विद्वेषण , वर्षा ऋतु में विद्रावण, प्रदोष में शांति कर्म, मध्य रात्रि में पुष्टि कर्म और बाकि सूर्योदय के पूर्व तक के काल में मारण कर्म करना चाहिए. इस प्रक्रार ऋतु काल में षटकर्म करने से उसकी सिद्धि मिलती है. इससे ऋतु, काल की प्रधानता सर्वत्र है. वर्जित काल में किया गया कर्म विनाशक होता है.
यदि वर्जित काल में कार्य किया जाय तो उससे जातक का विनाश हो जाता है. राहु-काल, यमगंड, दुर्मुहूर्त इत्यादि वर्ज्य काल है, इसलिए इस काल में शुभ कर्म मन्दिर प्रवेश, गृहप्रवेश, पुष्टि आदि कर्म वर्जित है. शुभ ऋतु में, ग्रहों के काल में, शुभ राशियों के उदय काल में कर्म करने का प्रावधान इसीलिए किया गया है. बड़े कर्म की क्या, दान जैसे कर्म भी शुभ काल में करने से ही फलदायी होते हैं. भगवद्गीता में कहा गया है कि “”दान देना ही कर्तव्य है” – इस भाव से जो दान योग्य देश, काल को देखकर ऐसे (योग्य) पात्र (व्यक्ति) को दिया जाता है, जिससे प्रत्युपकार की अपेक्षा नहीं होती है, वह दान सात्त्विक माना गया है।।” हर कर्म में देशकाल की महत्ता है.
ज्योतिष शास्त्र में कहा गया है कि स्त्री के साथ सम्भोग भी देश काल को ध्यान में रख कर ही करना चाहिए. भागवत पुराण में कश्यप ऋषि की पत्नी ने ऋषि को पुत्र प्राप्ति के लिए संध्या काल में निवेदन किया और मजबूर कर दिया. कश्यप ऋषि से संध्याकाल में सम्भोग का फल ये हुआ कि दानव का गर्भ में प्रवेश हो गया. संध्या काल छिद्र माना गया है. जिस तरह गंडमूल नक्षत्र होता है और उससे दोष कहा गया है इसी प्रकार संध्या दिन और रात्रि का मध्य होने से गंड है. यह छिद्र है जिसमे से असुरी, दानवी शक्तियाँ, भूत-प्रेतादि प्रविष्ट कर तबाही मचा सकती है.
ऋतुओं के अनुसार ही औषधियों के निर्माण करना चाहिए. औषधि का ग्रहण भी ऋतुओं के अनुसार करना चाहिए ऐसा वर्णन किया गया है. औषधियों का नक्षत्र विशेष से सम्बन्ध होता है इसलिए उनका ग्रहण चन्द्रमा का बलाबल जानकर शुभ नक्षत्र में करने का शास्त्रीय प्रावधान है.

