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ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ शांति:! शांति: ! शांतिः !

तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च दैवतम्‌।
पतिं पतीनां परमं परस्ताद्‌विदाम देवं भुवनेशमीड्यम्‌॥ ||७|| (6/6)
हे ईश्वरों परम ईश्वर, देवताओं परम देव , पतियों के परमपति, अव्यक्तादि से भी पर हैं, विश्व के अधिपति सत्वनीय आप को हम जानते है.

न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया ||८||
उनके शरीर और इन्द्रियां नहीं हैं, उनके समान और उनसे बढ़कर भी कोई दूसरा नहीं है. उसकी पराशक्ति नाना प्रकार की सुनी जाती है. यह स्व्भाविकी ज्ञान, बल और क्रिया से सम्पन्न है.

न तस्य कश्चित्‌पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम्‌।
स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः॥ ||९||

लोक में कोई उसका स्वामी नहीं है, न कोई उसका शासक है और न ही उसका कोई लिंग है (चिन्ह ). वह सबका कारण है और इन्द्रियाधिष्टाता जीव का स्वामी है. उसका कोई उत्पत्तिकर्ता नहीं है.

एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥ ||११||

वह एकदेव ही समस्त प्राणियों में स्थित है, वह सर्वव्यापक, समस्त भूतों का अंतरात्मा, कर्मों का अधिष्ठाता, समस्त प्राणियों का अन्तर्यामी, सबका साक्षी, सबको चेतनत्व प्रदान करने वाला, शुद्ध और निर्गुण हैं.

एको वशी निष्क्रियाणां बहूनामेकं बीजं बहुधा यः करोति।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्‌॥ ||१२||

जो एक अद्वितीय स्वतंत्र परमात्मा बहुत से निष्क्रिय जीविन के एक बीज को अनेकरूप कर देता है, अपने अंत:करण में स्थित उस एक देव को  जो बुद्धिमान देखते हैं, उन्हें ही नित्य सुख की प्राप्ति होती है, औरों की नहीं.

नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान्‌।
तत्कारणं सांख्ययोगाधिगम्यं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥ ||१३||

जो नियों में नित्य, चेतनों में चेतन और अकेला भूतों को भोग प्रदान करता है, सांख्य-योग द्वारा ज्ञातव्य उस सर्वदेव जानकर यह पुरुष समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है.

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥ ||१४||
वहां सूर्य प्रकाशित नहीं होता, न चन्द्र और तारे प्रकाशित होते हैं, न ये बिजलियाँ ही वहां चमकती हैं, फिर अग्नि तो क्या वहां प्रकाशित हो सकता है ? ये सब उसके प्रकाश से ही प्रकाशित होते हैं, उसी के प्रकाश से ये सब कुछ प्रकाशित हैं.

एको हंसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः।
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥ ||१५|

इस भुवन के मध्य में एक हंस है, वही जल में स्थित अग्नि है. उसी को जानकर पुरुष मृत्यु को पार हो जाता है. इस विद्या से भिन्न मोक्ष का कोई अन्य मार्ग नहीं है. |

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।
तह देवंआत्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये॥
निष्कलं निष्क्रिय शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम्‌।
अमृतस्य पर सेतुं दग्धेन्दनमिवानलम्‌॥ ||१८||

जो सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा को उत्पन्न करता है और उनके लिए वेदों को प्रवृत्त करता है. अपनी बुद्धि को प्रकाशित करने वाले उस आत्मदेव की हम मुमुक्षु शरण लेते हैं. जो कलाहीन, क्रियाहीन, शांत, अनिन्द्य, निरंजन, निर्लेप, अमृतत्व का उत्कृष्ट सेतु और जिसका इंधन जल चूका है, अग्नि के समान देदीप्यमान उस देव की हम शरण लेते हैं.

-कृष्णयजुर्वेदीय श्वेताश्वतरोपनिषत:

ॐ सह नाववत्विति शम्