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कार्तिक महीने की पूर्णिमा chaturdashi के एक दिन बाद 27 नवम्बर को पड़ रही है, तदुपरांत यह पुण्यमय महीना खत्म हो जायेगा. इस महीने का वैष्णव धर्म में बड़ा माहात्म्य है. इस मास की यह कथा श्री कृष्ण ने सत्यभामा को सुनाई थी. कथा इस तरह है…

सत्यभामा ने पूछा -नाथ ! आपने जो मुझे कथा सुनाई वह बड़ा आश्चर्यजनक है कि दूसरे के दिए पुण्य से मुक्ति मिल जाती है? इस कार्तिक महीने का ऐसा प्रताप है और यह आपको इतना प्रिय है कि इसमें किये हुए स्नान-दान से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं. प्रभो ! जो दूसरे का दिया हुआ पुण्य है, वह उसके देने से तो मिल जाता है, किन्तु बिना दिया हुआ पुण्य मनुष्य कैसे पा सकता है?

श्री कृष्ण ने कहा – प्रिये ! सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में देश, ग्राम, और कुल भी मनुष्य के किये हुए पुण्य और पाप के भागी होते हैं. परन्तु कलियुग में केवल कर्ता को पाप और पुण्य का फल भोगना पड़ता है. शिक्षा देने से, यज्ञ करने से अथवा एक पंक्ति में बैठ कर भोजन करने से भी मनुष्य दूसरे के पुण्य और पाप का चौथाई भाग पा लेता है. एक आसन पर बैठने, एक सवारी पर चलने, स्वांस का स्पर्श होने, और परस्पर अंग सट जाने से भी पुण्य पाप के छठे भाग का फल मिलता है. (पापी के संग पाप, पुण्यात्मा के संग पुण्य). देखने, नाम सुनने तथा मन के द्वारा चिन्तन करने से दूसरे से दूसरे के पुण्य या पाप का शतांश प्राप्त होता है. जो दूसरे की निंदा करता है, चुगली करता है, और धिक्कार देता है वह उसके किये पातक को लेकर अपना पुण्य देता है. एक पंक्ति में बैठ कर भोजन करने वालों में जो किसी को छोड़ देता है, तो उसके पुण्य का छठां भाग उसे प्राप्त होता है. जो स्नान या संध्या करते समय किसी को छूता या बातचीत करता है (सम्मलित पूजन को छोड़कर), उसे अपने पुण्य का छठे अंश को उसे देना पड़ता है. जो धर्म के लिए धन लेता है उसके पुण्य का छठा अंश धनदाता प्राप्त करता है.

जो दूसरे का धन चुराकर धर्म करता है उसके धन से किये गये समस्त पुण्य कर्म को उस धन का स्वामी प्राप्त करता है. जो मनुष्य ऋण चुकाए बिना मर जाता है उसके पुण्य को धन के अनुसार ऋणदाता बाँट लेते हैं. धर्म कर्म की सलाह देने वाला, उसका अनुमोदन करने वाला, सामग्री जुटाने वाला, बल से सहायता करने वाला पुरुष भी छठे अंश को प्राप्त करते हैं. राजा अपनी प्रजा से, गुरु शिष्य से, पति अपनी पत्नी से, पिता अपने पुत्र से, उसके पुण्य पाप का छठवां अंश प्राप्त करते हैं (इसलिए विद्या मन्त्र गुरु सबको प्रदान नहीं करते. शिष्य की परीक्षा करके प्रदान करते हैं क्योंकि यदि शिष्य पाप करेगा तो उसे गुरु को भोगना होगा.). वृत्ति (काम, नौकरी) देने वाला भी वृत्वातिभोगी के पुण्य का छठवां हिस्सा प्राप्त करता है, यदि उसने बदले में अपनी सेवा न कराई हो या दूसरे की सेवा न कराई हो. ब्राह्मण से सेवा लेने वाले का या ब्राह्मण के धन को लेने वाले मनुष्य के पुण्य का एक तिहाई ब्राह्मण को प्राप्त हो जाता है. इस प्रकार दूसरे के दिए हुए पुण्य और पाप भी आते जाते रहते हैं.

देवि! पूर्व काल में धनेश्वर नाम एक महापापी ब्राह्मण ऐसे ही मुक्त होकर यक्ष बन गया था. उसने अवन्ती में नर्मदा तट पर एक महीने कार्तिक में बिताये और हजारों वैष्णव महात्माओं, श्रद्धालुओं के दर्शन किये, उसका स्पर्श हुआ, उनकी की गई स्तुतियों को उसने सुना. कार्तिक दीपोत्सव को भी उसने देखा. फिर कार्तिक में ही नर्मदा तट पर उसे सांप ने काट लिया. वहीं उसकी मृत्यु हो गई. यमराज के दूत उस महापापी यमलोक ले गये. यमराज ने उसे कुम्भीपाक में डालने का आदेश दिया. जब यम दूतों ने उसे खौलते तेल के कड़ाहे में डाला तो उसका कुछ भी बाल बांका नहीं हुआ. यह देख यमराज को बड़ा आश्चर्य हुआ. उसी समय नारद आये. नारद ने हंसते हुए यमराज से कहा – प्रभु यह नरक भोगने योग्य नहीं क्योंकि इसके द्वारा ऐसा कर्म हो गया है जो नरक का नाश करने वाला है. इसने एक मास तक श्री हरि के पवित्र कार्तिक मास में नर्मदा तट पर वैष्णवों के दर्शन किये, उनका स्पर्श प्राप्त किया. सैकड़ों वैष्णवों के पुन्यांश का यह भागी है. यह सुन कर यमराज ने उसे सभी नरक दर्शन करा करके उसे मुक्त कर दिया, तदन्तर वह शेष बचे पुण्य से यक्ष बन गया.