
ज्योतिष में यह एक स्थापित सिद्धांत है कि ग्रह कर्मफल प्रदान करने वाले होते हैं। इस सिद्धांत को ही श्रुतियां अलग अलग तरीके से कहती हैं। महर्षि पाराशर के अनुसार –
कर्मणां फलदातृत्वे ग्रहरूपी जनार्दन: ।
ग्रहयोगवियोगाभ्यां कुलदेशादि देहिनाम ।।
ग्रहरूपी जनार्दन प्राणियों के कर्म फल को देने वाले है, ग्रहों के योग और दुर्योग से मनुष्यों के कर्मों के अनुसार कुल देश आदि में उन्हें तत्तफल प्राप्त होता है ।
यह फलदातृत्व सिर्फ व्यष्टिगत या व्यक्तिगत स्तर पर नहीं होता, यह समष्टिगत स्तर भी किसी समाज की सामूहिक चेतना पर लागू होता है। कोई विशेष समाज या कम्युनिटी या कुल जब पूर्णत: विनाश को प्राप्त होते हैं तो यह उनकी सामूहिक चेतना द्वारा किये गये कर्म के कारण ही होता है जिसका किसी विशेष ग्रहीय योग में परिपाक होता है जब उसका नेतृत्व करने वाला नेता उस समाज या सामाजिक समूह में जन्म लेता है। वृष्णि वंश का विनाश ऋषियों के श्राप से हुआ, यह श्राप वृष्णि यादवों का प्रतिनिधित्व करने वाले परिवार के सदस्यों पर था। उनके द्वारा यह शाप कर्म क्रियाशील हुआ, उनकी बुद्धि भ्रष्ट होती गई और एक समय ऐसा आया जब मदिरा के नशे में एकदूसरे के दुश्मन बन गये। इस प्रकार उस सामाजिक समूह ने खुद को विनष्ट कर लिया।

महाभारत अनुशासन पर्व में पार्वती जी ने शिव से ज्योतिष के बारे में निम्नलिखित प्रश्न किया –
भगवन! आप ने बताया कि मनुष्यों की जो भली बुरी अवस्था है, वह सब उनकी अपनी ही करनी का फल है। किन्तु लोक में देखा जाता है कि लोग शुभाशुभ कर्म को ग्रहजनित मानते हैं? क्या यह मान्यता सही है !
महादेव कहते हैं –
नक्षत्राणि ग्रहाश्चैव शुभाशुभनिवेदका: ।
मानवानाम महाभागे न तु कर्मकर्मकरा: स्वयं ।।
प्रजानां तु हितार्थाय शुभाशुभविधिं प्रति ।
अनागतमतिक्रांतं ज्योतिश्चक्रेण बोध्यते ।।
किन्तु तत्र शुभं कर्म सुग्रहैस्तु निवेद्यते।
दुष्कृतस्याशुभैरेव समवयो भवेदिति ।।
हे देवी! तुमने उचित संदेह उपस्थित किया है । इस विषय में जो सिद्धांत मान्य है, उसे ध्यान से सुनो। ग्रह और नक्षत्र मनुष्य के शुभ और अशुभ कर्मों के निर्देशक होते हैं। प्रजा के हित के लिए ज्योतिश्चक्र के द्वारा भूत और भविष्य के शुभाशुभ फल का बोध कराया जाता है। शुभ और शुभ कर्मों का फल इन ग्रहों द्वारा ज्ञात किया जाता है। शुभ कर्मफल की सूचना शुभ ग्रह द्वारा और अशुभ कर्मफल की सूचना अशुभ ग्रह द्वारा प्राप्त होती है। हे देवि ! सारा अपना किया हुआ कर्म ही शुभ और अशुभ फल का उत्पादक होता है। ग्रह स्वयं कुछ नहीं करते, वे सिर्फ इन फलों को प्रदान करने वाले होते हैं।
भगवदगीता में इसी बात को भगवान कहते हैं कि भगवान का व्यक्ति के कर्मों से कोई लेना देना नहीं होता, न तो वे फल ही प्रदान करते हैं। जो भी शुभ या अशुभ फल है व्यक्ति अपने ही कर्मों के अनुसार प्राप्त करता है।
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।
परमेश्वर मनुष्योंके न कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के साथ संयोगकी रचना करते हैं; किन्तु स्वभाव ही बरत रहा है। सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पापकर्मको और न शुभकर्म को ही ग्रहण करता है; किन्तु अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है, उसीसे सब जीव मोहित हो रहे हैं।
मनुष्य का स्वभाव ही उसके शुभ-अशुभ कर्मों का जनक होता है जिसे संस्कार के द्वारा वो जन्म जन्मान्तरों तक ढोता रहता है, जब तक की उसका कर्मविपाक नहीं हो जाता। महर्षि पतंजलि के सूत्र ‘योगश्चित्तवृत्ति निरोध:’ का तात्पर्य इसी कर्मविपाक में है। यह तो आत्यंतिक निरोध की बात है, लेकिन इससे अलग जो सांसारिक मनुष्य हैं उनके लिए दूसरा पितृयान का मार्ग भी प्रशस्त है। पितृयान में सीट सुरक्षित रहे इसके लिए ज्योतिष सबसे बड़ा उपाय है। ज्योतिष का प्रयोजन जातक को उसके कर्मों की पहचान करवाना है ताकि जातक अपने कर्मों को समझ कर अपना इहलोक और परलोक संवार सके। ज्योतिष जीवात्मा को नष्टप्रणष्ट होने से बचा लेता है। ज्योतिष की मदद से जीवन में घटने वाली अच्छी बुरी घटनाओं को पहले ही जानकर जातक सावधान होकर अशुभ परिणामों से खुद को सुरक्षित कर सकता है।

उदाहरण के लिए इन तीन जन्मकुंडलियों को देखे , ये कुण्डलियाँ बिहार पटना की तीन सगी बहनों की हैं।तीनो बहनों में सबसे बड़ी की ज्यादा उम्र में शादी हुई लेकिन 3 वर्ष बाद कलह हुआ और पति ने भगा दिया और दो की शादी ही नहीं हो पा रही है। दोनों बहनों की उम्र शादी की उम्र को पार कर चुकी है- एक 37 वर्ष की है दूसरी 39 वर्ष की है। इन कुंडलीयों में जीवात्मा का इहलोक खराब है इसलिए इन्हें बड़े उपाय करने पड़ेंगे। कुंडली में जो दोष हैं उसके निवारण से कर्म ठीक होता है और पुन: चीजें घटित होने लगती हैं।