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षष्टी देवी का व्रत पूजन भारत के सभी राज्यों में किया जाता. षष्टी देवी सन्तानहीन को सन्तान देती हैं और सन्तान की रक्षा कर उन्हें दीर्घायु प्रदान करती हैं. इनका जन्म देवी के छठवें अंश से हुआ था. ये कुमार कार्तिकेय की पत्नी हैं. इनको देवसेना भी कहा जाता है. कथा के अनुसार स्वयम्भू मनु के पुत्र प्रियव्रत को लम्बे समय तक सन्तान नहीं हुई, तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराया और उस यज्ञ का चरु उन्हें प्रदान किया. उस चरु को प्रियव्रत ने अपनी पत्नी मालिनी को खिलाया जिससे उन्हें गर्भ हुआ. उनकी पत्नी ने उस गर्भ को 12 वर्ष तक धारण किया तत्पश्चात उन्होंने पुत्र क जन्म दिया. लेकिन वह पुत्र मृत ही जन्मा जिसकी आंखे उलटी थीं.

यह देख सभी स्त्रियाँ, बन्धु-बांधव शोक में डूब गये. राजा प्रियव्रत उस पुत्रको श्मसान ले कर गये और उसे वक्ष से लगा कर रोने लगे. राजा ने उस पुत्र को नहीं छोड़ा और स्वयं प्राण त्याग करने के लिए तत्पर हो गये. राजा का अत्यंत शोक में ज्ञान जाता रहा. उसी समय उन्हें एक दिव्य विमान दिखा जिस पर एक अत्यंत सुन्दर आभा वाली, रत्नों से अलंकृत, कृपा की साक्षात् मूर्ति सी दिखने वाली, योगसिद्ध, भक्तों पर अनुग्रह करने को आतुर देवी को देखा. उन्हें देख राजा ने बच्चे को भूमि पर रखकर उनका स्तवन और पूजन किया. स्तवन कर राजा उनसे पूछने लगे – हे सुव्रते, शोभने ! समस्त स्त्रियों में आदरणीय आप कौन हैं ?

प्रियव्रत के पूछने पर देवी देवसेना ने उनसे कहा – हे राजन ! मैं ब्रह्मा की मानस कन्या हूँ. सब पर शासन करने वाली, देवताओ को विजय प्रदान करने वाली मैं देवसेना नाम से विख्यात हूँ. विधाता ने मुझे कार्तिकेय को प्रदान किया था. मैं परा प्रकृति के छठवें अंश से उत्पन हुई इसलिए षष्टी नाम से प्रसिद्ध हूँ. मैं पुत्रहीन को पुत्र, दरिद्रो को धन, कर्म करने वालों को कर्म फल प्रदान करती हूँ. हे राजन ! सुख, दुःख, शोक, हर्ष, मंगल, अमंगल, विपत्ति, सम्पत्ति सब कर्म के अनुसार होता है. कर्म से ही मनुष्य सन्तानहीन और कर्म से अनेक पुत्रों वाला होता है. कर्म से ही अनेक पत्नियों वाला और कर्म से ही भार्याविहीन होता है. कर्म से मनुष्य रूपवान और कर्म से रोगी होता है. कर्म से ही मनुष्य निरोगता को प्राप्त करता है. हे राजन ! कर्म ही सबसे बलवान है-ऐसा श्रुति में कहा गया है.

इस प्रकार कहकर षष्टी देवी ने बालक को लेकर उसे स्पर्श किया और उसे जीवित कर दिया. जब राजा स्वर्ण के समान कान्तिमान अपने पुत्र को देखने लगे, उसी समय देवसेना उसे लेकर आकाश में जाने लगीं. यह देख कर राजा का मुख सूख गया. राजा भगवती की स्तुति करने लगे. तब देवी प्रसन्न हुई और राजा प्रियव्रत से कहने लगीं –
“हे राजन ! तुम स्वयंभुव मनु के पुत्र हो और तीनो लोकों के राजा हो. तुम सर्वत्र मेरी पूजा कराओ और स्वयं भी करो. मैं तुम्हारे कुल के लिए यह पुत्र प्रदान करूंगी. यह सुव्रत नाम से विख्यात होगा. यह योगी और महान साधक होगा. इसे समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होंगी.” ऐसा कह कर देवी ने प्रियव्रत को पुत्र प्रदान कर दिया. रजा ने पुत्र प्राप्ति के उपलक्ष्य में मंगल उत्सव कराए और षष्टी देवी पूजा का प्रारम्भ किया.
उसी समय से सर्वत्र शुक्ल पक्ष की षष्टी तिथि को भगवती का पूजन और व्रत होने लगा. एक वर्ष तक षष्टी व्रत करने और उनका पूजन करने से पुत्र की प्राप्ति होती है. “ॐ ह्रीं षष्टी देव्यै स्वाहा” इस मन्त्र से षष्टी के दिन पूजन करना चाहिए और जप करना चाहिए. इसका एक लाख जप करने का विधान है. कलश स्थापना कर षष्टी देवी की उसमे पूजा करनी चाहिए तदन्तर जप करना चाहिए.