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पिप्लाद ऋषि और शनिदेव की कथा बड़ी है. कथा संक्षेप में कुछ इस तरह है कि जब पिप्पलाद को पता चला कि शनि देव के कारण उन्हें बचपन में ही माता-पिता को खोना पड़ा है, तब वे पीपल के नीचे तपस्या करने बैठ गये। ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके उनसे ब्रह्मदंड मांगा और शनि देव की खोज में निकल पड़े। इन्होंने शनि देव को पीपल के वृक्ष पर बैठा देख तो उनके ऊपर ब्रह्मदंड से प्रहार किया।

इससे शनि के दोनों पैर टूट गये। शनि देव दुखी होकर भगवान शिव को पुकारने लगे। भगवान शिव ने आकर पिप्पलाद का क्रोध शांत किया और शनि की रक्षा की। इस दिन से ही शनि पिप्पलाद से भय खाने लगे। पिप्लाद का जन्म पीपल के वृक्ष के नीचे हुआ था और पीपल के पत्तों को खाकर इन्होंने तप किया था इसलिए ही पीपल की पूजा करने से शनि का अशुभ प्रभाव दूर होता है।


य: पुरा नष्टराज्याय, नलाय प्रददौ किल ।
स्वप्ने तस्मै निजं राज्यं, स मे सौरि: प्रसीद तु ।। १।।
केशनीलांजन प्रख्यं, मनश्चेष्टा प्रसारिणम् ।
छाया मार्तण्ड सम्भूतं, नमस्यामि शनैश्चरम् ।। २।।
नमोऽर्कपुत्राय शनैश्चराय, नीहार वर्णांजनमेचकाय ।
श्रुत्वा रहस्यं भव कामदश्च, फलप्रदो मे भवे सूर्यपुत्रं ।।३।।
नमोऽस्तु प्रेतराजाय, कृष्णदेहाय वै नम: ।
शनैश्चराय ते तद्व शुद्धबुद्धि प्रदायिने ।। ४।।
य एभिर्नामाभि: स्तौति, तस्य तुष्टो ददात्य सौ ।
तदीयं तु भयं तस्यस्वप्नेपि न भविष्यति ।। ५।।
कोणस्थ: पिंगलो बभ्रू:, कृष्णो रोद्रोऽन्तको यम: ।
सौरि: शनैश्चरो मन्द:, प्रीयतां मे ग्रहोत्तम: ।। ६।।
नमस्तु कोणसंस्थाय पिंगलाय नमोऽस्तुते ।
नमस्ते बभ्रूरूपाय कृष्णाय च नमोऽस्तुते ।। ७।।
नमस्ते रौद्र देहाय, नमस्ते बालकाय च ।
नमस्ते यज्ञ संज्ञाय, नमस्ते सौरये विभो ।। ६।।
नमस्ते मन्दसंज्ञाय, शनैश्चर नमोऽस्तुते ।
प्रसादं कुरु देवेश, दीनस्य प्रणतस्य च ।। ७।।

।। इति पिप्पलादकृत शनि स्तोत्रं ।।