
माता शाकम्भरी देवी दुर्गा का एक अवतार हैं. इनका वर्णन दुर्गाशप्तशती के मूर्ति रहस्य में आया है जहाँ देवी ने स्वयं कहा है कि जब पृथ्वी पर सौ वर्षों तक वर्षा नहीं हुई, तब मनुष्यों को भूख प्यास से पीड़ित देख मुनियों ने मां से प्रार्थना की थी. तब देवी शाकम्भरी के रूप में प्रकट हुई थीं और उन्होंने शाकम्भरी के रूप में अपने शरीर से उत्पन्न हुए शाकों के द्वारा ही संसार का भरण-पोषण किया था. इसी अवतार में उन्होंने दुर्गम नाम के दैत्य का वध किया था इसलिए उनका एक नाम दुर्गा हुआ. इस रूप में देवी ने सृष्टि को नष्ट होने से बचाया था. शाकम्भरी नवरात्रि उत्सव आठ दिनों का होता है. ये नवरात्रि मुख्य रूप से राजस्थान, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में जाती है. इस दौरान माता दुर्गा के शाकंभरी अवतार की पूजा की जाती है. दक्षिण भारत में इन्हें वनशंकरी भी कहते हैं. देवी दुर्गा का ये अवतार पुष्टि और स्वास्थ्य का प्रतीक माना जाता है. शाकम्भरी नवरात्रि भी अन्य नवरात्रियों की तरह ही मनाई जाती है, देवी भक्त इस दौरान व्रत रखते हैं और देवी दुर्गा की 8 दिन भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं.
मूर्ति रहस्य के अनुसार शाकम्भरी देवी का स्वरूप नील वर्ण का है. इन्हें ही शताक्षी और दुर्गा कहा गया है –
शाकम्भरी नीलवर्णा नीलोत्पलविलोचना।
गम्भीरनाभिस्त्रिवलीविभूषिततनूदरी॥१२॥
शाकम्भरी देवी के शरीर की कान्ति नीले रंग की है । उनके नेत्र नीलकमल के समान हैं , नाभि नीची है तथा त्रिवली से विभूषित उदर (मध्यभाग ) सूक्ष्म हैं ॥
सुकर्कशसमोत्तुङ्गवृत्तपीनघनस्तनी।
मुष्टिं शिलीमुखापूर्णं कमलं कमलालया ॥१३॥
पुष्पपल्लवमूलादिफलाढ्यं शाकसञ्चयम्।
काम्यानन्तरसैर्युक्तं क्षुत्तृण्मृत्युभयापहम् ॥१४॥
कार्मुकं च स्फुरत्कान्ति बिभ्रती परमेश्वरी।
शाकम्भरी शताक्षी सा सैव दुर्गा प्रकीर्तिता ॥१५॥
उनके दोनों स्तन अत्यन्त कठोर , सब ओर से बराबर , ऊँचे , गोल , स्थूल तथा परस्पर सटे हुए हैं । वे परमेश्वरी कमल में निवास करनेवाली हैं और हाथों में बाणों से भरी मुष्टि , कमल , शाकसमूह तथा प्रकाशमान धनुष धारण करती हैं . वह शाकसमूह अनन्त मनोवांछित रसों से युक्त तथा क्षुधा , तृषा और मृत्यु के भय को नष्ट करनेवाला तथा फूल , पल्लव , मूल आदि एवं फलों से सम्पन्न है . वे ही शाकम्भरी , शताक्षी तथा दुर्गा कही गयी हैं. ये ही विशोका, दुष्टदमनी ,सती,चंडी,मां गौरी ,कालिका तथा विपत्तियों का विनाश करने वाली पार्वती हैं.
माँ श्री शाकंभरी भगवती का अति पावन प्राचीन सिद्ध शक्तिपीठ सहारनपुर उत्तर प्रदेश में शिवालिक पर्वतमाला के जंगलों में एक बरसाती नदी के किनारे है. जिसका वर्णन स्कंद पुराण,मार्कंडेय पुराण,भागवत आदि पुराणों मे मिलता है. राजस्थान के जयपुर से करीब 100 किलोमीटर दूर सांभर कस्बे में स्थित मां शाकंभरी मंदिर अत्यंत प्राचीन है, इसका निर्माण सातवीं- आठवीं शताब्दी मे हुआ था. भारत में इसके इतर भी शाकम्भरी माता के अनेक प्रसिद्ध मन्दिर है.
शाकम्भरी नवरात्रि मुहूर्त –
शाकम्भरी नवरात्रि पर्व 7 जनवरी 2025 से प्रारंभ होकर 13 जनवरी 2025 तक रहेगा. अष्टमी तिथि का प्रारम्भ 6 जनवरी 2025 को शाम 06:23 बजे से होगा और इसकी समाप्ति 7 जनवरी 2025 को शाम 04:26 बजे होगी. पौष पूर्णिमा के दिन माता शाकम्भरी का प्राकट्य हुआ था. इस दिन शाकम्भरी जयंती मनाई जाती है. 13 जनवरी को इस बार शाकम्भरी जयंती मनाई जायेगी.
शाकम्भरी जयंती के दिन माता की विधि पूर्वक सभी प्रकार के अन्न, शाक, फलों से पूजन करना चाहिए. दुर्गा ही शाकम्भरी हैं इसमें कोई संदेह नहीं करना चाहिए. इस दिन दुर्गा माता की ही शाकम्भरी के रूप में चिन्तन करना चाहिए और उनका विधिवत पूजन करना चाहिए. जो कोई शाकम्भरी नवरात्रि करना चाहता है उसे शुभ मुहूर्त में कलश स्थापना करके 8 दिन व्रत पूर्वक पूजन और अनुष्ठान करना चाहिए.

शाकम्भरी अष्टकम् –
शक्तिः शाम्भवविश्वरूपमहिमा माङ्गल्यमुक्तामणि-
र्घण्टा शूलमसिं लिपिं च दधतीं दक्षैश्चतुर्भिः करैः ।
वामैर्बाहुभिरर्घ्यशेषभरितं पात्रं च शीर्षं तथा
चक्रं खेटकमन्धकारिदयिता त्रैलोक्यमाता शिवा ॥ १॥
देवी दिव्यसरोजपादयुगले मञ्जुक्वणन्नूपुरा
सिंहारूढकलेवरा भगवती व्याघ्राम्बरावेष्टिता ।
वैडूर्यादिमहार्घरत्नविलसन्नक्षत्रमालोज्ज्वला
वाग्देवी विषमेक्षणा शशिमुखी त्रैलोक्यमाता शिवा ॥ २॥
ब्रह्माणी च कपालिनी सुयुवती रौद्री त्रिशूलान्विता
नाना दैत्यनिबर्हिणी नृशरणा शङ्खासिखेटायुधा ।
भेरीशङ्खक्ष् मृदङ्गक्ष् घोषमुदिता शूलिप्रिया चेश्वरी
माणिक्याढ्यकिरीटकान्तवदना त्रैलोक्यमाता शिवा ॥ ३॥
वन्दे देवि भवार्तिभञ्जनकरी भक्तप्रिया मोहिनी
मायामोहमदान्धकारशमनी मत्प्राणसञ्जीवनी ।
यन्त्रं मन्त्रजपौ तपो भगवती माता पिता भ्रातृका
विद्या बुद्धिधृती गतिश्च सकलत्रैलोक्यमाता शिवा ॥ ४॥
श्रीमातस्त्रिपुरे त्वमब्जनिलया स्वर्गादिलोकान्तरे
पाताले जलवाहिनी त्रिपथगा लोकत्रये शङ्करी ।
त्वं चाराधकभाग्यसम्पदविनी श्रीमूर्ध्नि लिङ्गाङ्किता
त्वां वन्दे भवभीतिभञ्जनकरीं त्रैलोक्यमातः शिवे ॥ ५॥
श्रीदुर्गे भगिनीं त्रिलोकजननीं कल्पान्तरे डाकिनीं
वीणापुस्तकधारिणीं गुणमणिं कस्तूरिकालेपनीम् ।
नानारत्नविभूषणां त्रिनयनां दिव्याम्बरावेष्टितां
वन्दे त्वां भवभीतिभञ्जनकरीं त्रैलोक्यमातः शिवे ॥ ६॥
नैरृत्यां दिशि पत्रतीर्थममलं मूर्तित्रये वासिनीं
साम्मुख्या च हरिद्रतीर्थमनघं वाप्यां च तैलोदकम् ।
गङ्गादित्रयसङ्गमे सकुतुकं पीतोदके पावने
त्वां वन्दे भवभीतिभञ्जनकरीं त्रैलोक्यमातः शिवे ॥ ७॥
द्वारे तिष्ठति वक्रतुण्डगणपः क्षेत्रस्य पालस्ततः
शक्रेड्या च सरस्वती वहति सा भक्तिप्रिया वाहिनी ।
मध्ये श्रीतिलकाभिधं तव वनं शाकम्भरी चिन्मयी
त्वां वन्दे भवभीतिभञ्जनकरीं त्रैलोक्यमातः शिवे ॥ ८॥
शाकम्भर्यष्टकमिदं यः पठेत्प्रयतः पुमान् ।
स सर्वपापविनिर्मुक्तः सायुज्यं पदमाप्नुयात् ॥ ९॥
इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं शाकम्भर्यष्टकं सम्पूर्णम् ॥