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प्रकरण आत्मपूजा का है इसलिए ऋषि ने सूत्र “सर्वकर्मनिराकरणमावाहनम्” में स्पष्ट किया है कि आत्म देवता का आवाहन तभी सम्भव है जब व्यक्ति के सभी कर्म निराकृत हो जाते हैं। जब तक कर्म रहेंगे तब तक विषयों का अवाहन चलता रहता है, जब कर्म खत्म होते हैं तब जिस तरह पक्षी सायं होने के बाद अपने घोसलों में लौट आता है इसी प्रकार व्यक्ति अपने आत्मतत्व के पास लौट आता है। सांसारिक व्यक्ति के जब दिन के कर्म खत्म होते हैं तब रात्रि में वो खुद को अपने पास पाता है, खुद के बारे दो पल सोच पाता है। बृहदारण्यक उपनिषद में महर्षि याज्ञवल्क्य ने सुषुप्ति या निद्रा का उदाहरण दे कर इसे समझाया है कि किस तरह मनुष्य निद्रा में सभी कर्मो से मुक्त होकर आत्मतत्व के करीब स्थित होता है और जब निद्रा से उठता है तो ब्रह्म के आनन्द की स्मृति उसे रहती है।
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु: ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ।।
अविद्या के वशीभूत हो स्वभावानुसार व्यक्ति कर्म करता है, वस्तुत: उसका कर्म और कर्तुत्व दोनों ही मिथ्या है। ईश्वर ने इसे नहीं बनाया, यह अविद्या या माया की निर्मिती है। व्यक्ति प्रकृति द्वारा वशीभूत हो स्वभाव के अनुसार अच्छे बुरे कर्म करता है, उसे कर्म-अकर्म और विकर्म के स्वरूप को समझ कर कर्म फल का त्याग करना चाहिए। यदि उसकी कर्मों से निवृत्ति हो गई है और तीव्र वैराग्य का जन्म हुआ है तो उसे कर्म त्याग का भी अधिकार है। यह उपनिषद सन्यास प्रधान उपनिषद है इसलिए इसमें सर्व कर्म निराकरण को ही आवाहन कहा गया है।

भगवान ने ‘कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते’ द्वारा कर्म त्याग की अपेक्षा कर्म फल त्याग को ज्यादा श्रेष्ठ बतलाया है लेकिन जब तीव्र वैराग्य का जन्म हो तो ऐसे व्यक्ति के लिए कर्म सन्यास प्रशस्त है। बृहदारण्यक उपनिषद का वचन है – कि प्रजया करिष्यामो येषां नोऽयमात्मायं लोक इति अर्थात हमको प्रजा से क्या लेना हम जिनको आत्मलोक ही अभीष्ट है ! इस प्रकार ऐसे लोग जिनका कर्म निवृत्त हो गया वे सन्यास ग्रहण कर सिर्फ भिक्षा पर ही जीवन यापन करते हैं और आत्मा में ही रमण करते हैं।
यह उपनिषद आत्मपूजा के लिए जरूरी मानसिकसपर्या का वर्णन करता है।आत्मपूजा एक मानसिक पूजा है, ऐसी ही मानसिक पूजा भगवान की भी करनी चाहिए। आदि शंकराचार्य ने समय मत के अनुसार शिव मानस पूजा करते हुए लिखा है –
आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं।
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः॥

संचारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो।
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्॥

हे प्रभु, मेरी आत्मा आप हैं। मेरी बुद्धि आपकी शक्ति पार्वती जी हैं। मेरे प्राण ही आपके गण हैं। मेरा यह पंच भौतिक शरीर आपका सुंदर मंदिर है। संपूर्ण विषय भोग की रचना भी आपकी पूजा ही है। मैं जो सोता हूँ, वह आपकी ध्यान तथा समाधि है। मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है। मेरी वाणी से निकला प्रत्येक उच्चारण आपके स्तोत्र व मंत्र हैं। इस प्रकार मैं आपका भक्त जिन-जिन कर्मों को करता हूँ, वह आपकी आराधना ही है।

मेरी -आत्मपूजा उपनिषद व्याख्या से साभार