रेवती नक्षत्र के सम्बन्ध में श्रीमद्देवीभागवत में एक कथा आती है। कथा के अनुसार ऋत्वाक मुनि का पुत्र रेवती नक्षत्र के अन्तिम चरण में हुआ था – जिसे गण्डान्त कहते हैं। गण्डान्त में जन्म होने के कारण वह ब्राह्मण का पुत्र कोई कर्म नही करता था, उसने वेदादि शिक्षा भी नहीं ग्रहण की और अत्यन्त दुराचारी बन गया था। ऋषि ने इसका सारा दोष रेवती नक्षत्र को दिया और उसे अपने श्राप से नक्षत्र मण्डल से नीचे गिरा दिया। जिस कुमुद गिरि’ पर्वत पर रेवती का पतन हुआ उसे ऋत्विक अथवा रेवतक पर्वत कहा जाने लगा तथा उस पर्वत का सौन्दर्य कई गुना बढ़ गया। एकदिन रेवती की कान्ति एक सरोवर में परिवर्तित हो गयी और उसी सरोवर में एक उत्पल-पत्र पर एक दिव्य कन्या उत्पन्न हुई जिसे कुमुद गिरि पर तप कर रहे प्रमुच नाम के महातपस्वी मुनि ने देखा। मुनि प्रमुच द्रवित हो कर उस कन्या को सरोवर से निकाल कर अपने आश्रम ले आये तथा उसका पालन अपनी पुत्री की भांति करने लगे। उस कन्या का नाम भी उन्होंने रेवती ही रखा।
काल-क्रम से रेवती युवावस्था को प्राप्त हुई और संयोग से एक दिन दुर्गम नाम का राजा मृगया करते हुये मुनि प्रमुच के आश्रम जा पहुँचा। रेवती ने दुर्गम को देखा, दुर्गम ने रेवती को देखा और इस देखा-देखी में काम देव ने दोनों को आहत कर दिया। जब दुर्गम ने शादी का प्रस्ताव रखा तो रेवती ने दुर्गम से स्पष्ट कह दिया कि मेरे पालक पिता की अनुमति के बिना कुछ संभव नहीं है। दुर्गम ने मुनि प्रमुच से रेवती के साथ परिणय की अभिलाषा व्यक्त की तो प्रमुच ने रेवती का हाथ उसके हाथ में देने के लिए हाँ कह दिया किन्तु रेवती ने कहा कि वह विवाह तभी करेगी जब चन्द्रमा रेवती नक्षत्र में हो। मैं अपने नाम वाले रेवती नक्षत्र में ही मैं विवाह संस्कार कराना चाहती हूँ। मुनि प्रमुच जानते थे कि रेवती को तो अब नक्षत्र मण्डल में कोई स्थान प्राप्त है नहीं तो उस नक्षत्र में विवाह कैसे सम्पन्न हो सकता है ? तब रेवती ने अपने पिता से कहा कि यदि एक ऋषि ने अपने क्रोधवश अकारण ही रेवती को पदच्युत कर दिया तो आप भी उतने ही महान ऋषि हैं, आप क्या उसे फिर से उसका स्थान नहीं दिला सकते ? तब प्रमुच ऋषि ने रेवती को फिर से सोममार्ग में उसका स्थान वापस दिलाया और रेवती की शादी राजा से सम्पन्न करवा दिया। कन्यादान के उपरान्त मुनि प्रमुच ने राजा दुर्गम से कहा,”राजन! मैं अपने तपोबल का अधिकांश तुम्हारे और रेवती के विवाह हेतु रेवती नक्षत्र को पुनः नक्षत्र-मण्डल में स्थापित करने में व्यय कर चुका किन्तु जो कुछ तपोबल अवशिष्ट है उसके द्वारा तुम्हें मैं कोई वर देना चाहता हूँ। उस वर को तुम कन्या का यौतुक समझ लेना। वर मांगो !
राजा दुर्गम प्रमुच मुनि से कहा,”मुनिवर! मैं स्वायम्भुव मनु से चले आ रहे उस कुल का प्रतिनिधि हूँ जिसमें मनु होते आये हैं और जिनके नाम पर मन्वन्तर चले हैं। मेरी यह कामना है कि रेवती के गर्भ से मेरा जो पुत्र उत्पन्न हो वह नया मनु बने तथा उसके नाम पर भी एक नया मन्वन्तर प्रचलित हो।” प्रमुच मुनि ने यह वर प्रदान कर दिया। दुर्गम तथा रेवती का एक पुत्र पराक्रमी रैवत हुआ जो पंचम मनु-पद पर सुशोभित हुआ और उसी के नाम पर पाँचवाँ मन्वन्तर रैवत-मन्वन्तर के नाम से जाना जाता है। उस मन्वन्तर में इंद्र के पद पर ‘विभु’ तथा सप्तर्षियों के पद पर क्रमशः उर्ध्वबाहु, सोमनंदन, हिरण्यरोम, अत्रिकुमार सत्यनेय, देवबाहु, वेदशिरा, तथा यदुध्र प्रतिष्ठित थे। इसी मन्वन्तर में शुभ्र नामक ऋषि की पत्नी तपसी विकुण्ठा के गर्भ से उत्पन्न वैकुण्ठ ने अपने नाम पर वैकुण्ठ नाम का नगर बसाया जो कालांतर में चाक्षुष मनु के पुत्र महाराज अत्यराति (अत्यराति जानन्तपति) की राजधानी बना।
इस प्रकार कथा के अनुसार रेवती नक्षत्र गंडमूल नक्षत्र है और चौथा चरण अशुभ है लेकिन यह सब कुछ प्रदान करने वाला भी माना गया है। रेवती नक्षत्र के चतुर्थ चरण की अंतिम चार घड़ियों में जन्म लेने वाले जातक के लिए यह ज्यादा कष्टकारी साबित होता है। इसके चौथे चरण में जन्म लेने वाला जातक यदि बच जाता है तो वह प्रसिद्ध होता है और उसे भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। यदि किसी कारण वश किसी व्यक्ति का सब कुछ नष्ट हो जाए तो भी वह गुरु बृहस्पति की कृपा से सब कुछ पुनः प्राप्त कर सकता है। रेवती का देवता पूषा आत्मा, प्रकाश तथा जीवनी शक्ति के कारक हैं। आदित्य के द्वादश स्वरूपों में एकादश पूषा हैं। पूषा पशुधन और समृद्धि के देवता भी है। पुराण कथा के अनुसार दक्ष यज्ञ में शिव दूत वीरभद्र ने पूषा के दांत तोड़ दिए थे इसलिए पूषा के दांत नहीं हैं, ये पिसा हुआ आटा का पिष्ठ ही खाते हैं।

